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Vanvas Story of Ram Laxman and Sita: वनवास के दौरान प्रभु श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ जब अत्रि मुनि के यहां पहुंचे और प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण किया तो सीता जी भी उनकी पत्नी अनसूया जी से मिलीं. उन्होंने सीता जी को स्त्री और पतिव्रत धर्म के बारे में बताते हुए कहा कि देवी आप तो स्वयं आदर्श हैं और सब जानती हैं कि एक स्त्री को किस तरह आचरण करना चाहिए.
सीता जी के अनुसूया जी से स्त्री धर्म का उपदेश सुनने के पश्चात प्रभु श्री राम ने अत्रि मुनि से आगे चलने के लिए आज्ञा मांगते हए कहा, 'मुझ पर आप निरंतर कृपा बनाए रखिएगा और अपना सेवक जानकर कभी भी स्नेह न छोड़िएगा.' ज्ञानी मुनि ने उनके वचन सुनने के बाद कहा, ब्रह्मा, शिव और सनकादि सभी तत्ववेत्ता जिनकी कृपा चाहते हैं, हे राम जी आप वही निष्काम पुरुषों के भी प्रिय और दीनों के बंधु भगवान हैं, जो इस प्रकार के कोमल वचन बोल रहे हैं. अब मैंने लक्ष्मी जी की चतुराई समझ ली है जिन्होंने सब देवताओं को छोड़कर आप ही का चिंतन किया है.
अत्रि मुनि ने कहा, 'हे स्वामी मैं किस प्रकार आपसे कहूं कि अब आप जाइए, आप तो अंतर्यामी हैं.' ऐसा कहकर मुनि के नेत्रों से प्रेम के आंसू बहने लगे और शरीर पुलकित हो गया. वे मन ही मन विचार करने लगे कि उन्होंने ऐसा कौन सा तप का किया है जिसके कारण मन, ज्ञान, गुण और इंद्रियों से परे अपने प्रभु के दर्शन प्राप्त किए. मुनि के चरणों में सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्री राम वन को चले. तो पीछे जानकी जी और लक्ष्मण जी भी चल पड़े.
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तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं कि जिस तरह ब्रह्म और जीव के बीच माया होती है ठीक उसी तरह श्री राम और लक्ष्मण जी के बीच में जानकी जी चल रही हैं, नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियां सभी अपने स्वामी को पहचान कर सुंदर रास्ता दे देते हैं. जहां जहां श्री रघुनाथ जी जाते हैं, आकाश में बादल चलते हुए छाया करते हुए चले जा रहे हैं ताकि प्रभु, उनकी पत्नी और भाई को सूर्य के ताप न लगे.
रास्ते में विराध नाम का राक्षस मिला और उनका रास्ता रोक कर खड़ा हो गया. सामने से न हटने पर श्री राम ने उसका वध कर दिया. श्री राम के हाथों मरते ही उसने तुरंत सुंदर दिव्य रूप प्राप्त कर लिया फिर भी वह दुखी था, उसने प्रभु श्री राम से कहा कि आपके हाथों मरने के बाद कौन जीना चाहता है किंतु उसे वरदान था कि प्रभु के हाथों मारे जाने के बाद वह दिव्य रूप प्राप्त करेगा. उसका दुख देखकर प्रभु श्री राम द्रवीभूत हो गए और उसे अपने परमधाम भेज दिया.
विराध राक्षस का वध कर उसे परमधाम पहुंचाने के बाद प्रभु श्री राम आगे चले तो जानकारी मिली की पास ही में शरभंग ऋषि का आश्रम है. तुलसीदास जी लिखते हैं कि प्रभु श्री राम तो वनवास के नाम पर सभी श्रेष्ठ ऋषि मुनियों को दर्शन देना चाहते थे. शरभंग ऋषि के आश्रम में पहुंचे तो शरभंग जी उन्हें देख कर धन्य हो गए, 'वे बोले प्रभु मैं तो दिन रात आप ही का इंतजार कर रहा था. इतने कहते हुए उनकी आंखों से भी प्रेम के आंसू बह निकले.'