Kafas Review: वेब सीरीज है रोचक, लेकिन लेखक-निर्देशक से नहीं संभल पाई कहानी की लाइन-लेंथ
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Kafas Review: वेब सीरीज है रोचक, लेकिन लेखक-निर्देशक से नहीं संभल पाई कहानी की लाइन-लेंथ

Web Series Kafas Review: कफस देखने जैसी वेब सीरीज है. इसका कथानक अलग है और यह जटिल चीजों को सरल ढंग से सामने लाने की कोशिश करता है. लेकिन कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, इसकी लय बिगड़ती जाती है और अंत निराश करता है.

 

Kafas Review: वेब सीरीज है रोचक, लेकिन लेखक-निर्देशक से नहीं संभल पाई कहानी की लाइन-लेंथ

Kafas Prime Video Web Series: हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को लेकर यूं तो तमाम कहानियां बड़े-छोटे पर्दे पर आई हैं, लेकिन उनमें कफस कुछ अलग है. यही बात इसे देखने लायक बनाती है. अच्छी बात यह है कि मेकर्स ने इसे लंबा नहीं खींचा और करीब 35-35 मिनिट्स के छह एपिसोड्स में बात पूरी हो जाती है. साथ ही वे सेकेंड सीजन जैसे बचकाने में मोह में नहीं पड़े. लेकिन इस सीरीज में कुछ बड़ी समस्याएं भी हैं. कहानी के मिजाज को देखते हुए, इसकी कास्टिंग और ऐक्टरों के परफॉरमेंस ज्यादा बेहतर होने चाहिए थे. मगर सबसे ज्यादा जो बात इसे आहत करती है, वह है क्लाइमेक्स. जो तमाम उतार-चढ़ाव के बाद अंत में बिना किसी ड्रामा के सपाट हो जाता है.

कैरेक्टर सेर्टिफिकेट
सोनी लिव पर आई यह वेब सीरीज देखने योग्य है. इसकी वजह यह है कि बॉलीवुड को एक अनदेखे कोण से दिखाती है. कहानी के केंद्र में मौजूद यौन शोषण का मुद्दा तो है ही, सीरीज बताती है कि जो लोग अपने बच्चों को फिल्म स्टार बनाने का ख्वाब पाले रहते हैं, वे कैसे-कैसे दौर से गुजरते हैं. उनकी मुश्किलें-तकलीफें, उनके अंतर्द्वंद्व और उनके परिवार का माहौल काफी हद तक आप यह सीरीज देखते हुए समझ सकते हैं. एक और बात जो सीरीज के शुरू में ही खटकती है, वह राइटर-डायरेक्टर द्वारा शुरुआत में ही इंडस्ट्री के अंदर से आने वाले नेपो-सितारों को कैरेक्टर सेर्टिफिकेट जैसी क्लीन चिट.

चुपके से वीडियो
सीरीज की कहानी फिल्मों में सुपरस्टार विक्रम (विवान भटेना) की है. वह अपनी अगली फिल्म में चाइल्ड आर्टिस्ट सनी वशिष्ठ (मिखाइल गांधी) को लॉन्च कर रहा है. मगर विक्रम शूटिंग के दौरान सनी का यौन उत्पीड़न करता है. जिसका वीडियो सनी ने चुपके से शूट कर लिया. लेखक-निर्देशक जब विक्रम को इंट्रोड्यूस करते हैं तो इस बात पर जोर देते हैं कि उसने बाहर आकर अपने लिए इंडस्ट्री में मुकाम बनाया. साथ वह उसे नाबालिग का यौन उत्पड़ीन करते दिखाते हैं. इस तरह से डायरेक्टर सिंघा और उनके राइटर करण शर्मा अप्रत्यक्ष रूप से कहते हैं कि इंडस्ट्री के अंदर से आने वाला कोई नेपो-सितारा ऐसा नहीं करता. क्या विक्रम के इंडस्ट्री से बाहर से आने का तथ्य रखना जरूरी थाॽ जबकि कहानी में कहीं इससे कोई फर्क नहीं पड़ा.

सवाल 10 करोड़ का
कफस की कहानी सनी के श्रीलंका-शूटिंग-शेड्यूल से मुंबई वापस लौटने पर शुरू होती है. सनी की बड़ी बहन भी है, श्रेया. श्रेया वशिष्ठ (तेजस्वी सिंह अहलावत) भी ऐक्ट्रेस बनना चाहती है. सनी अपने माता-पिता (मोना सिंह-शरमन सिंह) को विक्रम की करतूत का वीडियो दिखाता है. वे विक्रम की लीगल टीम से आमना-सामना करते हैं और अंततः उनके द्वारा मामले को दबाने के लिए रखे गए 10 करोड़ रुपये के ऑफर को स्वीकार कर लेते हैं. ताकि बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाए. लेकिन क्या ऐसा हो पाता है. क्या बात यहीं दब जाती हैॽ क्या सनी सदमे से उबर पाता हैॽ क्या विक्रम की फिल्म धूम मचा पाती हैॽ क्या सनी और विक्रम एक-दूसरे के साथ सहज हो पाते हैंॽ सनी और उसके माता-पिता की जिंदगी में आगे क्या-क्या होता हैॽ ऐसे तमाम सवालों के जवाब इस सीरीज में आपको मिलेंगे.

जैसे डाले हथियार
कफस का अर्थ होता है, पिंजरा. इस पूरी कहानी का सबसे आकर्षक हिस्सा राघव (शरमन जोशी) और सीमा (मोना सिंह) की जिंदगी है. पूरे घटनाक्रम में वे जैसे पिंजरे में कैद हैं. रोचक तथ्य यह है कि राघव की यह दूसरी शादी है. उसकी पहली पत्नी (मोना वसु) और उससे हुआ बेटा भी कहानी में अहम उपस्थिति दर्ज कराते हैं. यह पूरा परिवार, उनके आपसी रिश्ते, एक-दूसरे के लिए पल-पल बदलती भावनाएं, सच-झूठ-छल और लुकी-छुपी का यह ट्रेक रोमांचित करता है. लेकिन लेखक-निर्देशक ने जिस तरह से किरोशवय बच्चे के साथ विक्रम की हरकत और इसके व्यक्तिगत तथा कानूनी पहलुओं को रचा है, वह निराश करता है. यहां संवेदना और तार्किकता की कमी साफ नजर आती है. हालांकि कानूनी पक्ष इतना जरूर बता देता है कि रसूखदार लोग किस तरह से अपने अपराधों को ढंकने के लिए काम करते हैं. कहानी के तमाम रास्तों से गुजरते हुए आप तूफानी क्लाइमेक्स की उम्मीद करते हैं, लेकिन वह ठंडा है. निराश करता है. क्लाइमेक्स में एक समय के बाद जैसे राइटर-डायरेक्टर हथियार डाल देते हैं.

होना था और बेहतर
इसमें संदेह नहीं कि शरमन जोशी और मोना सिंह अच्छे एक्टर हैं, लेकिन वह सनी के माता-पिता की भूमिका में नहीं जमते. मिखाइल गांधी ने अपना रोल अच्छे से निभाया है और कमजोर क्लाइमेक्स से पहले विवान भटेना भी प्रभावित करते हैं. तेजस्वी सिंह अहलावत और मोना वसु, दोनों अपनी सीमित भूमिकाओं में याद रह जाती हैं. कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा यहां सीनियर जर्नलिस्ट की भूमिका में हैं, मगर कहानी में इस रोल की अहमियत को राइडटर-डायरेक्टर उभारने में नाकाम रहे. कुल मिलाकर यह वेब सीरीज अपने अलग कथानक के लिए जरूर देखी जा सकती है. लेकिन इतना साफ है कि यह कहीं बेहतर बन सकती थी.

निर्देशकः साहिल संघा
सितारे: शरमन जोशी, मोना सिंह, विवान भटेना, मिखाइल गांधी, प्रीति झांगियानी, मुकेश छाबड़ा, जरीना वहाब
रेटिंग**1/2

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