Lok Sabha Chunav 2024: केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पैसे की कमी के चलते लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया. लोकसभा चुनाव 2024 में इलेक्टोरल बॉन्ड के चुनावी मुद्दा बन गया है. इससे पहले से कांग्रेस-भाजपा खुदरा चंदा भी मांग रही है. ऐसे में शायद ही यकीन हो कि कभी देश में दो-तीन हजार में पूरा चुनाव लड़ा जा सकता है. चुनाव में चवन्नी-अठन्नी चंदा मांगा-दिया जाता था.
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Election Expenditure For Candidates: लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बीते दिनों पैसे की कमी की बात कहते हुए भाजपा उम्मीदवार बनने से मना कर दिया. उन्होंने कहा कि चुनाव लड़ने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं है. उनसे पहले सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने बकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर कहा कि उनके पास प्रचार अभियान और कार्यकर्ताओं के खर्च तक के लिए पैसे नहीं है.
इलेक्टोरल बॉन्ड बना चुनावी मुद्दा, भाजपा-कांग्रेस ने मांगा फुटकर चंदा
दूसरी ओर, इलेक्टोरल बॉन्ड के चुनावी मुद्दा बनने से पहले कांग्रेस और फिर भाजपा ने चुनावी खर्च के लिए लोगों से खुलकर चंदा मांगा. समर्थकों ने ऑनलाइन और ऑफलाइन चंदा देने के बाद रसीद की फोटो और स्क्रीन शॉट भी साझा किया. लोकसभा चुनाव में बीते दो दशक में चुनाव खर्च की सीमा करीब चार गुना तक बढ़ गई है. तमाम राजनीतिक दलों के उम्मीदवार चुनाव के दौरान पांच से छह गुना तक खर्च कर रहे हैं.
देश के पहले आम चुनाव 1951 में कुल 10.5 करोड़ रुपए का खर्च
पूरे चुनाव खर्च की बात करें तो देश के पहले आम चुनाव 1951 में कुल 10.5 करोड़ रुपये लगे थे. लोकसभा चुनाव 2019 में यह चुनावी खर्च बढ़कर 6600 करोड़ हो गए. वहीं, प्रत्याशियों की बात करें तो लोकसभा चुनाव 2024 में हरेक को 95 लाख रुपये तक खर्च करने की छूट दी गई है. लोकसभा चुनाव 2004 में चुनाव खर्च की सीमा 30 लाख रुपये थी. क्या आप जानते हैं कि पहले देश में चुनाव खर्च और उम्मीदवारों का खर्च कैसे चलता था?
चौथे आम चुनाव 1967 के दौरान गमछा फैलाकर जुटाते थे चंदा
इलेक्टोरल बॉन्ड और बेतहाशा चुनावी खर्च की सुर्खियों के बीच आइए, किस्सा कुर्सी का में जानते हैं कि देश के चौथे आम चुनाव 1967 के दौरान एक उम्मीदवार ज्यादा से ज्यादा एक-दो हजार रुपए खर्च करते थे. चुनावी जनसभाओं में भाषण के बाद पार्टी के नेता, उम्मीदवार और कार्यकर्ता भीड़ के सामने गमछा फैलाकर लोगों से चवन्नी-अठन्नी का चुनावी चंदा जुटाते थे. पूरे चुनाव में दो-तीन हजार रुपए खर्च को काफी ज्यादा माना जाता था.
पोलिंग एजेंट को नहीं मिलता था बूथ का खर्च, पैदल प्रचार अभियान
हालांकि, उस दौर में चावल भी 40 पैसे में 40 किलो (1 मन ) यानी एक रुपये में प्रति क्विंटल मिलता था. नेताओं के पास इतने पैसे नहीं होते थे कि वह पोलिंग एजेंट को बूथ का खर्च दे सकें. चुनाव प्रचार अभियान भी ज्यादातर पैदल या मामूली साधनों से होता था. चुनावी सभाओं के स्थानीय लोगों के घर पर ही रूखा-सूखा खाना होता था. कई नेताओं को क्षेत्र में प्रचार के दौरान भूखा भी लौटना पड़ता था.
लोकसभा चुनाव 1967 में बिहार के जमुई में मधु लिमये मांगते थे चवन्नी
लोकसभा चुनाव 1967 में बिहार के जमुई संसदीय क्षेत्र के मलयपुर बस्ती स्थित चौहानगढ़ स्कूल में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार मधु लिमये के भाषण खत्म होने के बाद भीड़ में लोगों से चुनावी खर्च के लिए एक-दो रुपये मांगे जाते थे. मंच से बड़े नेता इसकी घोषणा करते थे. मधु लिमये के आह्वान पर कार्यकर्ता गले में गमछा की झोली लटकाकर लोगों के बीच घूमकर चवन्नी-अठन्नी लेते थे. एक-दो रुपए का चंदा तब बड़ा माना जाता था.
टिन से बनाते थे लाउडस्पीकर, चूड़ा-गुड़, मूढ़ी-मटर, चना चबेना का नाश्ता
उस समय के चुनाव प्रचार अभियान को याद करते हुए कई बुजुर्ग बताते हैं कि कार्यकर्ता भी टिन को गोलकर उसे लाउडस्पीकर की तरह गले में लटकाते थे. उसी में बोलकर लोगों को रैली में बुलाते थे. वे लोग प्रचार करने जिस गांव में जाते थे, वहीं के लोग खाना-नाश्ते के लिए चूड़ा-गुड़, मूढ़ी-मटर, चना चबेना वगैरह का इंतजाम कर देते थे. कई बार गांव के मुखिया से चंदा में मिले अनाज से ही पार्टी कार्यालय में कार्यकर्ताओं का खाना बनता था.
आदिवासी गांव में एक टोकरी मकई और लाल टमाटर खाकर मिटाई भूख
इस दौरान जमुई में मधु लिमये स्थानीय नेता श्याम प्रसाद सिंह के साथ वोट मांगने बरहट के जंगल स्थित गुरमाहा गांव गए थे. देर हो जाने से वहां जबरदस्त भूख लग गई. आदिवासी समाज के लोगों ने उनके कहने पर एक टोकरी मकई और लाल टमाटर लाकर रख दिए. सभी लोगों ने उसे ही एक साथ बड़े चाव से खाया. उस समय कोई जात-पात की राजनीति नहीं होती थी. लोग विचारधारा से जुड़ते थे, लेकिन राजनीतिक द्वेष नहीं होता था.
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चुनाव खर्च की सीमा कैसे निर्धारित करता है भारत निर्वाचन आयोग
भारत निर्वाचन आयोग (ECI) के अनुसार चुनाव खर्च की सीमा मुद्रास्फीति सूचकांक के आधार पर निर्धारित की जाती है. बीते वर्षों में सेवाओं और वस्तुओं की कीमतों में हुई बढ़त के आधार पर चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित की जाती है. निर्वाचन आयोग ने वर्ष 2020 में चुनाव खर्च तय करने के लिए एक कमेटी का गठन किया था. इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही आयोग ने चुनाव खर्च की सीमा 70 से बढ़ाकर 95 लाख रुपये की है.
तय सीमा में कौन सा खर्च शामिल होता है? क्या है आबादी की भूमिका
निर्वाचन आयोग द्वारा लोकसभा और विधानसभा चुनाव में राज्यों और प्रदेशों की कुल आबादी और कुल मतदाताओं के हिसाब से राज्यवार चुनाव खर्च की सीमा निर्धारित की जाती है. इसमें राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की सार्वजनिक बैठकों, रैलियों, विज्ञापनों, पोस्टर, बैनर, वाहनों और विज्ञापन समेत तमाम खर्च शामिल होता है. कोई भी उम्मीदवार चुनाव के दौरान निर्धारित सीमा से अधिक रकम खर्च नहीं कर सकते हैं. हालांकि, कई बार इस नियम के उल्लंघन की खबर सामने आती रहती है.