Wayanad Tragedy: बेटी की मौत का था सदमा, फिर भी गम भुलाकर 'देवदूत' बनीं ये महिला एंबुलेंस ड्राइवर
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Wayanad Tragedy: बेटी की मौत का था सदमा, फिर भी गम भुलाकर 'देवदूत' बनीं ये महिला एंबुलेंस ड्राइवर

Wayanad news: वायनाड के पीड़ितों की कहानियां पढ़कर आपकी रूह कांप जाएगी. त्रासदी के निशान भले ही अब मिट से गए हों, लेकिन लोगों के दिलों में लगे घाव कब भरेंगे ये कोई नहीं जानता. इस बीच एक महिला एंबुलेंस ड्राइवर ने जो कुछ किया उसे जानकर आप भी उन्हें सैल्यूट करेंगे.   

Deepa Joseph's (एंबुलेंस चालक दीपा जोसेफ)

Kerala Landslide: केरल के वायनाड जिले में हुए विनाशकारी भूस्खलन (Wayanad Landslide) के जख्म भरने में सालों का वक्त लग जाएगा. इस बीच अपना गम भुलाकर हादसे के पीड़ितों की मदद करने वाली एक महिला एम्बुलेंस ड्राइवर दीपा जोसेफ की हिम्मत और हौसले को लोग सलाम कर रहे हैं. उनकी हिम्मत की दाद दी जा रही है इसके साथ ही उनकी कहानी सोशल मीडिया पर भी वायरल हो रही है. लगातार आपदा क्षेत्र से घायलों को अस्पताल और मृतकों को मुर्दाघरों में पहुंचाती रहीं और इस दौरान उन्होंने अपने जीवन में घट चुकी एक त्रासदी पर भी कोई ध्यान नहीं दिया. केरल की पहली महिला एम्बुलेंस चालक दीपा एक मजबूत महिला हैं. वह मेप्पाडी के अस्थायी मुर्दाघर में मृतकों और मानव शरीर के अंगों को ले जाते समय देखे गए भयावह दृश्यों को याद करते हुए अपने आंसुओं को नहीं रोक पाती हैं.

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बेटी की मौत का लगा था सदमा, फिर भी गम भुलाकर 'देवदूत' बनीं ये महिला एंबुलेंस ड्राइवर

दीपा जोसेफ अपनी बेटी की रक्त कैंसर से मृत्यु हो जाने के बाद अवसाद में चली गईं थी, जिसके बाद उन्होंने एंबुलेंस चलाना बंद कर दिया था, लेकिन जब उन्हें वायनाड की जमीनी हालत का पता चला तो वह अपने दुख और गमों को नजरअंदाज करते हुए कोझिकोड से यहां आ गईं.

भूस्खलन के बाद अगले पांच दिनों में वह पूरी तरह बदल गईं. इस दौरान उन्हें यह एहसास हुआ कि जिस मनोस्थिति से वह गुजर रही हैं, उससे आसानी से निपटा जा सकता है.

कांप जाएगी रूह

दीपा ने बताया, 'एक या दो दिन तक तो हमने ऐसे लोगों को देखा जो यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि उनके प्रियजन मर चुके हैं. अगले दिनों में भी वही लोग मुर्दाघर में आए और प्रार्थना करने लगे की बरामद शव उनके प्रियजनों के हों.'

दीपा के सामने अगले कुछ दिनों तक दिल को झकझोर देने वाले दृश्य सामने आए, जिसमें कटे हुए हाथ-पैर और मानव शरीर इस तरह दब गये थे कि उन्हें पहचानना मुश्किल हो गया. ऐसे में उन्हें अहसास हुआ कि वह अब इसे और सहन नहीं कर सकती.

उन्होंने कहा, 'मैं साढ़े चार साल से एम्बुलेंस चालक के तौर पर काम कर रही हूं. मैंने कई दिन पुराने और बुरी तरह सड़ चुके शवों को भी पहुंचाया है. लेकिन वायनाड में रिश्तेदारों को अपने परिजनों के शवों की पहचान सिर्फ कटी हुई उंगली या कटे हुए अंग को देखकर करनी पड़ती थी. यह दर्द सहन कर पाने की क्षमता से कहीं ज्यादा अधिक था.'

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(इनपुट- भाषा)

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