Abdul Ghaffar Khan Death Anniversary: अब्दुल गफ्फार खान का जन्म 6 फरवरी 1890 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के पेशावर के पास एक पश्तून मुस्लिम परिवार में हुआ था. आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से तायनाएं सहने के बाद पश्तूनों के हक की लड़ाई लड़ी और पाकिस्तान के जेलों में कई साल तक कैद रहे. साल 1987 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न" से नवाजा. इसके कुछ ही महिनों बाद उनकी मौत हो गई. आइए जानते हैं पुण्यतिथि पर पाकिस्तान के "बादशाह खान" की कहानी, जिनकी रगों में आखिरी वक्त तक भारत ही बसा हुआ था.
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Abdul Ghaffar Khan Death Anniversary: 'सीमांत गांधी' के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान को दुनिया को अलविदा कहे 35 साल हो गए हैं. खान अब्दुल गफ्फार खान और महात्मा गांधी एक दूसरे के बहुत करीब थे. दोनों ने मिलकर मुल्क में गंगा-जुमनी तहजीब और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए काम किया था. फ्रंटियर गांधी ने भारत की आजादी की लड़ाई के वक्त वर्तमान पाकिस्तान के किसी भी नागरिकों की तुलना में अंग्रेजी हुकूमत में सबसे ज्यादा जेल और यातनाएं सही. भले ही उनका सियासी सफर पहली बार आगरा में 1913 में हुए मुस्लिम लीग के इजलास से हुआ हो, लेकिन वे 1940 के लाहौर प्रस्ताव और भारत से अलग होकर नया मुल्क पाकिस्तान बनाने के सख्त खिलाफ थे.
खान 1947 में नया मुल्क पाकिस्तान बनने के बाद भी मुल्क में रहकर पाकिस्तान के खिलाफ बोलना और लिखना बंद नहीं किया. यही कारण है कि बादशाह खान अपने करीब सौ साल के जीवन में अपनी जिंदगी के सबसे बेहतरीन वक्त यानी करीब जिंदगी का एक चौथाई हिस्सा आजादी से पहले अंग्रेजी सल्तनत और बाद में पाकिस्तानी सरकार की जेल में गुजारी. उन्होंने अपने आखिरी सांस तक पाकिस्तान को कबूल नहीं किया.
भारत रत्न पाने वाले पहले गैर-भारतीय
भारत सरकार ने अब्दुल गफ्फार खान को 1987 में देश के सबसे सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" नवाजा था. ये सम्मान पाने वाले वे पहले गैर-भारतीय भी थे. इसके एक साल बाद ही पाकिस्तान सरकार ने 1988 में उन्हें पेशावर में उनके घर में नजरबंद कर दिया और इसी साल 20 जनवरी, 1988 को उनका इंतकाल हो गया. उनकी आखिरी इच्छा के मुताबिक उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफन किया गया.
कैसे बने ‘बादशाह खान’
खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म 6 फरवरी 1890 को एक पश्तून परिवार में हुआ था. काफी विरोध के बावजूद उनकी शुरुआती पढ़ाई मिशनरी स्कूल में हुई. इसके बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से की. वे महिला अधिकारों और अहिंसा के समर्थक थे. उन्होंने 20 साल की उम्र में ही अपने गृहनगर उत्मान जई में एक लड़कियों के लिए स्कूल खोला था. हालांकि, ये स्कूल कुछ ही महीनों तक चल पाया और अंग्रेजी हुकूमत ने उनके स्कूल को 1915 में बैन कर दिया, लेकिन इसके बाद भी वे अगले 3 साल तक ‘लड़ाकू’ प्रवृत्ति के लिए मशहूर पश्तूनों को जागरूक करने के लिए सैकड़ों गांवों की पैदल यात्रा की. कहा जाता है कि इसके बाद ही वहां के लोगों ने उन्हें ‘बादशाह खान’ नाम का लकब दिया था.
इसलिए भारत में "सीमांत गांधी" के नाम से पुकारा जाता है
खान अब्दुल गफ्फार खान ने ताउम्र अहिंसा में अपना यकीन कायम रखा और सामाजिक चेतना के लिए ‘खुदाई खिदमतगार’ नाम के एक ऑर्गेनाइजेश की भी स्थापना की. इस ऑर्गेनाइजेशन की स्थापना महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह जैसे सिद्धान्तों से प्रेरित होकर की गई थी. इन्हीं सिद्धांतों की वजह से भारत में उन्हें ‘फ्रंटियर गाँधी’ यानी सीमांत गांधी के नाम से पुकारा जाता है.
जब पीएम इंदिरा गांधी खुद ‘बादशाह खान’ के इस्तकबाल में एयरपोर्ट पर खड़ी थी
इंतकाल करने से करीब 18 साल पहले बादशाह खान साल 1969 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के आग्रह पर इलाज के लिए भारत आए थे, तब हवाई अड्डे पर उनके इस्तकबाल में खुद पीएम इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण खड़े थे.
लंबे कद के छरहरे बदन वाले खान जब हवाई जहाज से बाहर आए तो उनके हाथ में एक सफेद रंग की गठरी थी, जिसमें उनका कुर्ता पैजामा था. जैसे ही इंदिरा गांधी ने उस गठरी को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो खान ने बड़े इत्मीनान और बड़े ठंडे मन से बोले – "यही तो बचा है ,इसे भी ले लोगी” ?
कहा जाता है कि इंदिरा गांधी और जेपी नारायण ने ये सुनने के बाद सिर झुका लिया और जयप्रकाश नारायण अपने को संभाल नहीं पाए. उनकी आँखों से आंसू गिरने लगे. बादशाह खान के इस शब्द से बंटवारे का दर्द झलक रहा रहा था. वे हमेशा से बटवारे के खिलाफ थे और भारत के साथ रहना चाहते थे.