BANDAA Review: बांध कर रखता है यह कोर्ट रूम ड्रामा, मनोज बाजपेयी को देखकर आप कहेंगे बंदा ये बिंदास है
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BANDAA Review: बांध कर रखता है यह कोर्ट रूम ड्रामा, मनोज बाजपेयी को देखकर आप कहेंगे बंदा ये बिंदास है

Manoj Bajpayee Film: मनोज बाजपेयी फिर से शानदार परफॉरमेंस के साथ लौटे हैं. वह अपनी हर नई फिल्म में चौंकाते हैं. बीच में एक दौर आया था, जब वह लगातार खुफिया पुलिस या एजेंटनुमा भूमिकाएं निभा रहे थे. लेकिन वकील पी.सी. सोलंकी के किरदार में वह नई ऊर्जा के साथ नए फॉर्म में हैं. आप उनके फैन हैं, तो किसी हाल में इस फिल्म को मत छोड़िए.

 

BANDAA Review: बांध कर रखता है यह कोर्ट रूम ड्रामा, मनोज बाजपेयी को देखकर आप कहेंगे बंदा ये बिंदास है

Manoj Bajpayee Film On OTT: कहा जाता है कि रावण से बड़ा शिव भक्त कोई नहीं हुआ, परंतु श्रीराम के हाथों मरने के बाद भी उसे मोक्ष नसीब नहीं हुआ. वह शिवजी की तपस्या करता रहा लेकिन भगवान ने अपने सबसे बड़े भक्त को माफ नहीं किया. कोर्ट रूम में जब एडवोकेट पी.सी. सोलंकी (मनोज बाजपेयी) अपनी आखिरी बात रखते हुए शिवजी और रावण की कथा सुनाकर बताते हैं कि क्यों भगवान ने रावण को माफी नहीं दी, तो फिल्म अपने शिखर पर नजर आती है. भगवान के नाम पर मानवता का कल्याण करने की आड़ में एक नाबालिग बच्ची का यौन उत्पीड़न करने वाला बाबा (सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ) के खिलाफ सोलंकी को अकेले मुकदमा लड़ते देखना रोमांचित करता है. मनोज बाजपेयी का यह परफॉर्मेंस नए एक्टरों के लिए किसी शानदार लेक्चर से कम नहीं है. फिल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म जी5 पर आज रिलीज हुई है.

सत्य घटना स्क्रीन पर
फिल्म सत्य घटनाओं से प्रेरित है, लेकिन घटनाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहती. बावजूद इसके आप जानते हैं कि यह किसकी बात कर रही और इसमें आने वाले किरदार कौन-कौन हैं. फिल्म मूल रूप से एक बाबा की बात करती है, जो बेहद प्रभावशाली है. उसके आश्रम में लड़कियों का यौन शोषण हो रहा है. बाबा की भक्त एक नाबालिग लड़की नू सिंह (अदृजा सिन्हा) इस शोषण के विरुद्ध आवाज उठाती है. वह माता-पिता के साथ मिलकर पुलिस में बाबा के खिलाफ पुलिस में केस दर्ज कराती है. बाबा को जोधपुर में गिरफ्तार करके अदालत के सामने पेश किया जाता है. बाबा और उसके लोगों को पूरा विश्वास है कि उसे जमानत मिल जाएगी, लेकिन ऐसा होता नहीं. जमानत की यह लड़ाई लंबी खिंचती है और केस में पी.सी. सोलंकी की एंट्री होती है.

सोलह बरस की नू
वास्तव में सोलंकी का किरदार पूरी कहानी में शुरू से अंत तक छाया है. एक साधारण-सा वकील उस समय सबको हतप्रभ कर देता है, जब एक-एक करके दिल्ली से बाबा की बेल का केस लड़ने के लिए आने वाले, देश के दिग्गज वकीलों को अदालत में धूल चटा देता है. तमाम वकील लड़की को 16 साल की नू को बालिग साबित करना चाहते हैं, ताकि बाबा पर लगा पॉक्सो एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्राम सेक्सुअल ऑफेंसेस एक्ट) को हटवाया जा सके क्योंकि इसके रहते शिकंजा बुरी तरह से कसा है. दिल्ली से आए एक वकील साहब बाबा को न्यूरोलॉजिकल बीमारी से पीड़ित बताते हुए कहते कि इलाज के लिए उनका अमेरिका जाना बहुत जरूरी है. जबकि दूसरे वकील की नजर में बाबा को सजा होने से जनकल्याण से जुड़े अस्पताल और शिक्षा के तमाम काम रुक जाए जाएंगे. लेकिन सोलंकी का तर्क हैः स्कूल और अस्पताल बनवाने का काम आपको रेप करने का लाइसेंस तो नहीं देता न!

अपराजित सत्य
फिल्म पूरी तरह से कानूनी गलियारों से होते हुए आगे बढ़ती है. सेशंस कोर्ट, हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बाबा की जमानत की लड़ाई यहां खूबसूरती और बारीकी से दिखाई गई है. जिसमें सोलंकी का कद लगातार बढ़ता जाता है. इसे आप उन दुर्भल फिल्मों में रख सकते हैं, जहां आप लगातार सत्य को जीतते देख सकते हैं. वह एक कदम भी न पीछे हटता है और न पराजित होता है. इतना जरूर है कि केस से जुड़े कुछ मर्डर एक के बाद एक होते हैं, सोलंकी के मन और उसके परिवार में डर का माहौल होता है. इसके बावजूद लगातार जीत के रास्ते खुलते जाते हैं. वैसे यही एक बात फिल्म की कमी भी है. अपराजेय दिख रहे फिल्म के सत्य की वजह से कहानी को और रोचक बना सकने वाले उतार-चढ़ाव गायब हैं. बाबा के साथ उसके बेटे के भी रेप में पकड़े जाने की कहानी पलक झपकते आती और गायब हो जाती है. जिन किरदारों की हत्या होती है, उनके बारे में विस्तार से चीजें सामने नहीं आ पाती.

क्यों नहीं माफी
दीपक किंगरानी ने कहानी को कसावट के साथ लिखा है. वहीं अपूर्व सिंह कार्की के निर्देशन में यहां बात एक सीध में चलते हुए इधर-उधर भटकती नहीं है. स्क्रिप्ट, ड्रामा और डायलॉग्स को मनोज बाजपेयी ने अपने परफॉरमेंस से मजबूत ऊंचाई प्रदान की है. जबकि सेशंस कोर्ट में बाबा के लिए केस लड़ने वाले वकील प्रमोद शर्मा की भूमिका में विपिन शर्मा ने मनोज बाजपेयी का बढ़िया साथ निभाया है. बाबा के रोल में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ और नू बनी अदृजा सिंह भी अपनी सीमित भूमिकाओं में असरकारी हैं. फिल्म की शुरुआत बढ़िया ढंग से होती है और क्लाइमेक्स बांधता देती है. बीच में जरूर थोड़ी कसावट की जरूरत मालूम पड़ती है, लेकिन आप इसे नजरअंदाज भी कर सकते हैं. फिल्म समाज में छुपे रावणों को समझने और उनके साथ रियायत न बरतने के संदेश देती है. वह बताती है कि क्यों उन्हें किसी हाल में माफी नहीं मिलनी चाहिए. इस फिल्म में मनोज बाजपेयी को आप भूल नहीं पाएंगे. अगर फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज होती तो निश्चित ही ढेर सारी तालियां बटोरती.

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