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ZEE News Time Machine: ज़ी न्यूज की स्पेशल टाइम मशीन में आज हम आपको ले चल रहे हैं 67 साल पहले के साल 1955 में. जब जबलपुर में दीवाली नहीं मनी थी, जब गांधी जी को महात्मा मानने से बाबा साहेब अंबेडकर ने इनकार कर दिया था, जब एक राजा को बनाया गया था भारत का पहला आर्मी चीफ. जब स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का जन्म हुआ. ये वही साल था जब उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने खुद को भारत रत्न दिलवा दिया. जब सऊदी अरब के शेख के बनारस आने पर वहां के मंदिर और मूर्तियां ढक दिए गए. तो चलिये सफर करते हैं टाइम मशीन में और आपको बताते हैं साल 1955 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में..
साल 1955 और तारीख थी 13 नवंबर. ये वो दिन था जब पूरा देश दिवाली के दीयों से जगमगा रहा था. वहीं मध्य प्रदेश का एक शहर ऐसा भी था जो अंधकार के साये में डूबा हुआ था. हम बात कर रहे हैं जबलपुर शहर की. आपको जानकर हैरानी होगी कि जबलपुर के लोगों ने 1955 में दिवाली नहीं मनाई थी. जानते हैं इसकी बड़ी वजह क्या थी. वो थी भोपाल को मध्यप्रदेश की राजधानी बना देना. दरअसल जबलपुर के लोग चाहते थे कि उनके शहर को मध्यप्रदेश की राजधानी बनाना चाहिए. क्योंकि उन्हें लगता था कि भोपाल के मुकाबले जबलपुर ज्यादा सक्षम शहर था. जबकि दूसरी ओर ये कहा गया कि भोपाल को राजधानी बनाने से कई समस्याओं से निजात मिल सकती है. भोपाल में अलगाववादी ताकतें कमजोर हो जाएंगी, क्योंकि भोपाल नवाब भारत से अलग होकर पाकिस्तान के साथ जाना चाह रहे थे. इसके अलावा बड़ी इमारतों और मध्य प्रदेश के बीचों-बीच होने का भी भोपाल को फायदा मिला. यही वजह है कि जबलपुर वासियों ने 1955 की वो दिवाली वाली रात अपने घरों और शहर को दीयों से रोशन नहीं किया.
महात्मा गांधी और बाबासाहेब अंबेडकर, इतिहास के पन्ने जब भी पलटते हैं तो इन दोनों के बीच उस मनमुटाव का जिक्र जरूर होता है. जिसके बारे में कई बातें कहीं गईं. बाबा साहेब अंबेडकर ने खुलकर एक इंटरव्यू में कहा था कि महात्मा गांधी ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिसके चलते वो उन्हें महात्मा कहें. राजनीतिज्ञ की तरह. वो कभी महात्मा नहीं थे. मैं उन्हें महात्मा कहने से इनकार करता हूं. मैंने अपनी जिंदगी में उन्हें कभी महात्मा नहीं कहा. वो इस पद के लायक कभी नहीं थे, नैतिकता के लिहाज से भी. इसके अलावा इस इंटरव्यू में अंबेडकर ने महात्मा गांधी को महज इतिहास का हिस्सा बता दिया था. मुझे इस बात पर हैरानी होती है कि पश्चिमी देश गांधी में इतनी दिलचस्पी क्यों लेते हैं. जहां तक भारत की बात है, वो देश के इतिहास का महज एक हिस्सा हैं, कोई युग निर्माण करने वाले नहीं. गांधी को लोग भूल चुके हैं.
सिखों का सबसे बड़ा गुरूद्वारा स्वर्ण मंदिर, वो स्वर्ण मंदिर जिसे ताजमहल के बाद सबसे ज्यादा पर्यटक देखने आते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि अमृतसर का दिल कहे जाने वाले इसी स्वर्ण मंदिर पर 1955 में पहली बार पुलिस कार्रवाई की गई थी. पूरा विवाद एक आंदोलन के चलते हुआ. जिस आंदोलन में पंजाबी सूबा मोर्चा के लोग एक अलग पंजाबी भाषी राज्य की मांग कर रहे थे. ऐसा कहा जाता है कि ये लोग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में इकट्ठा हुए थे, जिसकी जानकारी मिलने के बाद पंजाब की तत्कालीन सरकार ने इस आंदोलन को रोकने के लिए स्वर्ण मंदिर में पुलिस बल भेजा ताकि आंदोलन रोका जाए. पुलिस द्वारा की गई इस कार्रवाई को लेकर काफी हंगामा भी हुआ जिसकी वजह पुलिस उपमहानिरीक्षक अश्वनी कुमार के नेतृत्व में पुलिस का जूते पहनकर मंदिर परिसर में जाना बताया गया. पुलिस की अचानक हुई कार्रवाई से वहां के आम लोगो को काफी परेशानी हुई. पुलिस ने स्वर्ण मंदिर के ग्रंथियों समेत करीब 237 लोगों को गिरफ्तार किया. एकाएक हुई इस कार्यवाही से सिख समुदाय की धर्मिक भावनाओं को भी काफी ठेस पहुंची. यहां तक कि सिख समुदाय ने तो ये तक कह दिया था कि ये कार्रवाई उनके लिए एक बड़े हमले जैसी थी.
जनरल महाराज श्री राजेंद्र सिंह जी जडेजा.. वो नाम है, जिसे भारतीय सेना का पहला थलसेना प्रमुख होने का गौरव प्राप्त है. ब्रिटिश काल के दौरान आर्मी में भर्ती होने वाले महाराज राजेंद्र ने साल 1921 में सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर भारतीय सेना की सेकेंड लेंसर यूनिट में कमीशन प्राप्त किया. अपने कार्यकाल के दौरान राजेंद्र सिंह जी जडेजा ने दूसरे विश्व युद्ध में विदेशों में जाकर शांति मोर्चा संभाला था. इसके लिए इन्हें विशिष्ट सेवा-पदक से सम्मानित भी किया गया. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमेन ने राजेन्द्र सिंह जडेजा को अमेरिकन लीजन ऑफ़ मेरिट पदक से भी सम्मानित किया. आजादी के बाद अपने पद से रिटायरमेंट से ठीक एक महीने पहले ही 1 अप्रैल 1955 को इन्हें थल सेना का अध्यक्ष बना दिया गया. हालांकि उन्होंने अपने कार्यकाल को ज्यादा लंबा नहीं खींचा और इसी साल 14 मई को वो आर्मी चीफ के पद से रिटायर हो गए. साल 1964 में 65 साल की उम्र में राजेंद्र सिंह जी जडेजा का निधन हो गया.
गुलामी की बेड़ियों में जकड़े भारत ने 1947 में आजादी की खुली सांस लेनी शुरू कर दी थी. आजाद भारत में अर्थव्यवस्था का आसमान भी खुल गया और बदलते भारत की तस्वीर साल दर साल बदलने लगी. इसी बीच भारतीय बैंक के क्षेत्र में एक नया बदलाव हुआ और आजाद भारत में आ गया एक बैंक, जो इतिहास के पन्नों में छप गया. जिस स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को आप देश की सबसे बड़ी बैंक के तौर पर जानते हैं. असल में उसकी नींव साल 1955 में रखी गई थी. लेकिन क्या आप ये जानते हैं कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को एक नए नाम और नए रूप के साथ 1955 में ही पेश किया गया था. असल में ये बैंक पहले ('द इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया') के नाम से जाना जाता था. द इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे पुराना और सबसे बड़ा कमर्शियल बैंक था. इसकी स्थापना जे एम केंस ने 28 जनवरी 1921 को की थी लेकिन ये एक तरह से अंग्रेजों का ही बैंक था. इसे बैंक ऑफ बंगाल, बैंक ऑफ बॉम्बे और बैंक ऑफ मद्रास को मिला कर बनाया गया था. साल 1955 को भारतीय रिजर्व बैंक ने इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया में कंट्रोलिंग इंस्ट्रस्ट हासिल किया और 30 अप्रैल 1955 को इसका नाम बदल कर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया कर दिया गया.
आजाद भारत के साथ देश की दशा और दिशा दोनों ही बदली. हर लिहाज़ से भारत खुद को मजबूत बनाने के सफर पर निकल पड़ा. लेकिन बदलते वक्त के बीच सत्ता और सियासी उठापटक के बीच मतभेद वाला मंत्र भी देश में खूब फूंका गया. इसी से जुड़ी है देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की कहानी. दरअसल राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू के साथ मतभेद होने के बावजूद उन्हें ‘भारत रत्न’ प्रदान किया था और इस फैसले की पूरी जिम्मेदारी उन्होंने खुद ली थी. 1955 में जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया जाए और इसके बाद पंडित नेहरू को भारत रत्न से सम्मानित करने की घोषणा की गई. खास बात ये है कि, ये घोषणा उस सरकार ने की थी, जिसके मालिक खुद जवाहरलाल नेहरू ही थे. ऐसे में तब कई लोगों ने नैतिकता पर सवाल भी उठाए थे. लेकिन जिस समय नेहरू को देश का सबसे बड़ा सम्मान देने की घोषणा की गई थी, वे यूरोप दौरे के तहत वियना में थे और ऑस्ट्रिया के चॉन्सलर जूलियस राब से भेंट कर रहे थे. नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के बीच मतभेद के बावजूद सितम्बर 1955 को नेहरू को भारत रत्न से सम्मानित किया गया.
8 मई 1955.. ये वो तारीख थी जब एक ऐसा कानून बनकर तैयार हुआ. जिसके तहत कुछ ऐसे कामों को अपराध घोषित किया गया जो छुआछूत से संबंधित हुआ करते थे. इस विशेष कानून का नाम था 'सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955'. इस कानून के बनाए जाने का उद्देश्य था कि हर नागरिक को सामान अधिकार देना, साथ ही छुआछूत के नाम पर दलितों का शोषण करने वाले व्यक्तियों को सजा दिलाना. अब आप ये समझिए कि आखिर क्या कहता है कानून? यह कानून 8 मई 1955 को बनकर तैयार हुआ. राज्य किसी भी नागरिक के साथ जाति, धर्म, लिंग, जन्म स्थान और वंश के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता. किसी भी भारतीय नागरिक को जाति, धर्म, लिंग, जन्म स्थान और वंश के आधार पर अस्पताल, सार्वजानिक भोजनालयों, स्नान घाटों, तालाबों, सड़कों और पब्लिक रिजॉर्ट्स में जाने से नहीं रोका जा सकता. इस कानून के तहत कई सजाएं भी रखी गईं. यह एक दंडनीय अपराध होगा, जिसमें किसी भी तरीके से माफी नहीं दी जा सकेगी. गुनाह साबित होने पर 6 महीने का कारावास या 500 रुपए जुर्माना या दोनों, हो सकते हैं. संसद या विधानसभा के चुनाव में खड़े हुये किसी उम्मीदवार पर आरोप साबित होता है तो उसको अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा.
1955 में तत्कालीन सऊदी के बादशाह शाह सऊद 17 दिन की यात्रा पर भारत आए. 4 दिसम्बर 1955 को दिल्ली पहुंचने पर भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनका स्वागत किया. बनारस के महाराजा के निमंत्रण पर अरब के बादशाह "शाह सऊद" बनारस भी गए. शाह सऊद के बनारस जाने के लिए विशेष ट्रेन की व्यवस्था की गई. यहां तक की जितने दिन शाह सऊद बनारस में रहे. वहां की सरकारी इमारतों पर बनारस के महाराजा के आदेश पर कलमा तैयबा लिखे झंडे लगाए गए, बनारस के जिन रास्तों से भी शाह सऊद गुजरने वाले थे, उन रास्तों में पड़ने वाले मंदिरों और मूर्तियों को परदे से ढक दिया गया था. अपनी यात्रा के दौरान "शाह सऊद" ने भारत की जमकर तारीफ भी की थी. उन्होंने कहा था कि मैं अपने मुस्लिम भाइयों के लिए संतोष के साथ पूरी दुनिया से कहना चाहता हूं कि भारतीय मुस्लमानों का भाग्य सुरक्षित हाथों में है. सऊदी के बादशाह शाह सऊद की ये यात्रा भारत के राजनितिक और आर्थिक विकास के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हुई थी.
देश की सबसे बड़ी परियोजनाओं में से एक भाखड़ा-नांगल बांध की नींव भी 1955 में पड़ी. बांध की नींव में कंक्रीट की पहली बाल्टी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 18 नवंबर 1955 में डाली. भाखड़ा नांगल बांध परियोजना को पूरा करने में लगभग 245 करोड़ 28 लाख रुपए खर्च हुए थे. इसे बनाने के लिए इतनी मात्रा में कंक्रीट लगी थी कि आज भी उसमे संसार की सभी सड़कों का दोबारा निर्माण किया जा सकता है. डैम को बनाने का आइडिया ब्रिटिश जनरल लुई डेन के दिमाग की उपज थी. लुई एक बार हिमाचल के भाखड़ा में एक तेंदुए का पीछा करते हुए सतलज नदी की तराई में पहुंच गए. यहां उन्होंने सतलुज नदी के बहाव को देखा तो सोचा कि इसका इस्तेमाल तो बिजली बनाने में किया जा सकता है. 1908 में उन्होंने इसके लिए ब्रिटिश सरकार को एक प्रस्ताव भेजा लेकिन सरकार ने पैसों की कमी का हवाला देते हुए मना कर दिया. जिसके बाद आजाद भारत में एक बार फिर 1948 में भाखड़ा प्रोजेक्ट सरकार के सामने रखा गया. जिसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हरी झंडी दिखाई. भाखड़ा नांगल बांध आजादी के बाद से ही भारत सरकार की बहुउद्देश्यीय परियोजना रही, जिसको बनाने का उद्देश्य सतलुज-ब्यास नदी में बाढ़ के पानी को रोकना और पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों की कृषि भूमि को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराना था. भाखड़ा नांगल बांध विश्व के सबसे ऊंचे बांधों में से एक है.
भारतीय सिनेमा के इतिहास का बदलता दौर भी आजादी के कुछ सालों बाद बदलने लगा. साल 1955 भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. 1955 में सत्यजीत रे की पहली फिल्म ‘द अपू ट्रिलॉजी’ और 'पाथेर पांचाली' रिलीज हुई थी. फिल्म की कहानी एक गरीब बंगाली ब्राह्मण के बारे में थी जो अमीर बनने और अपने बच्चों के लिए बेहतर भविष्य के लिए गांव छोड़ देता है. पंडित रविशंकर ने 11 घंटे तक नॉन-स्टॉप सत्र में फिल्म के लिए म्यूजिक रिकॉर्ड किया था. फिल्म को नेशनल अवॉर्ड मिला और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इन फिल्मों की खूब तारीफ हुई. उस वक्त में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी फिल्म को वाहवाही मिलना अपने आप में बेहद बड़ी बात थी. एक तरह से भारत ने सिनेमा के क्षेत्र में भी अपने पैर जमाने शुरू कर दिए थे.
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सोनाली बेंद्रे के साथ देखिए 'Time Machine', सऊदी शेख के लिए ढके मंदिर!...इतिहास के कुछ यादगार पन्ने...1955 की 10 कहानियां, जो ना देखीं ना सुनीं | LIVE #TimeMachine @iamsonalibendre #LiveUpdates - https://t.co/asaJAvmeIt https://t.co/LVSAcbm0G4
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