China ने भारत और अमेरिका को किया था दूर? 70 साल बाद यूं आए नजदीक
Advertisement
trendingNow11791712

China ने भारत और अमेरिका को किया था दूर? 70 साल बाद यूं आए नजदीक

India and US: भारत-अमेरिका के रिश्ते मजबूत हो रहे हैं. 1947 से पहले अमेरिका, ब्रिटेन (UK) के उपनिवेश से भारत की आजादी का समर्थक था. तब चीन (China) ने ऐसी नजर लगाई कि दोनों के बीच दूरियां बढ़ती गईं. आज हमारी ताकत बढ़ी तो चीन की आक्रामकता के खिलाफ भारत को रक्षा कवच माना जा रहा है.

China ने भारत और अमेरिका को किया था दूर? 70 साल बाद यूं आए नजदीक

India US Relationship: भारत के साथ संबंधों को लेकर अमेरिका की उम्मीदें हैं कि ये गठजोड़ चीन (China) और रूस (Russia) के खिलाफ एक मजबूत सुरक्षा कवच बनकर उभरेगा. दरअसल भारत की आजादी के बाद 1947 से लेकर 2023 तक करीब 76 साल का एक समय चक्र पूरा हो चुका है. आखिरकार वाशिंगटन और नई दिल्ली के बीच सहमति बनती नजर आ रही है. हांलाकि हमेशा की तरह, भारत और अमेरिका के संबंध (India America Relations) एशियाई राष्ट्र की आजादी से पहले से लेकर अब तक अस्पष्टता में डूबे हुए हैं, लेकिन अब दोनों लोकतांत्रिक देश एक साथ करीब आते दिख रहे हैं. जियो पॉलिटिक्स के अलावा, इसका एक बड़ा उदाहरण यानी महत्वपूर्ण घटनाक्रम भारतीय विरासत की एक शख्सियत कमला हैरिस का अमेरिका में दूसरे सर्वोच्च पद पर आसीन होना है. ऐसा कुछ, जो अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट, जिन्होंने भारत को औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त कराने के लिए आधारशिला रखी थी, ये किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा.

भारत की आजादी का समर्थक था अमेरिका

अमेरिका के साथ आधुनिक भारत के संबंधों का पता रूजवेल्ट द्वारा ब्रिटिश प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल, कट्टर नस्लवादी उपनिवेशवादी को 1941 के अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करने से लगाया जा सकता है, जिसमें आत्मनिर्णय के एक खंड के साथ उपनिवेशों के लिए स्वतंत्रता का वादा किया गया था. कहा जाता है कि रूजवेल्ट ने साम्राज्यवादियों को चेतावनी देते हुए कहा था, 'अमेरिका इस युद्ध में इंग्लैंड की मदद सिर्फ इसलिए नहीं करेगा ताकि वह औपनिवेशिक लोगों पर अत्याचार करना जारी रख सके.'

फिर भी, रूजवेल्ट, जिन्होंने ब्रिटिश और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं के बीच एक दूत की मध्यस्थता करने की असफल कोशिश की, चर्चिल को इसे लागू करने के लिए मजबूर नहीं कर सके जब तक कि द्वितीय विश्‍वयुद्ध जारी था. अंततः रूजवेल्ट का विचार प्रबल हुआ और उनके दोनों उत्तराधिकारियों, अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन और ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली के समझौते के तहत भारत स्वतंत्र हो गया.

ट्रूमैन को लोकतांत्रिक भारत से बहुत उम्मीदें थीं और उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लंदन से लाने के लिए अपना विमान भेजा था. लेकिन चीन को यह सब पसंद नहीं था इसलिए उसने हस्तक्षेप किया.

ताइवान का लंबे समय से समर्थक रहा है अमेरिका

शीतयुद्ध के साथ दोनों नेता चीन पर निर्भर थे - ट्रूमैन ताइवान का समर्थन कर रहे थे, फिर संयुक्त राष्ट्र में चीन को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी और कम्युनिस्ट बीजिंग के खिलाफ खड़े थे, और चाहते थे कि नेहरू, जो माओत्से तुंग के पीछे थे, पाला बदल लें. यह दोनों देशों के बीच दरार का पहला प्रत्यक्ष संकेत था फिर भी लगभग तीन-चौथाई सदी के बाद यह चीन ही है जो उन्हें करीब ला रहा है. ट्रूमैन के राज्य सचिव डीन एचेसन ने नेहरू को 'सबसे कठिन व्यक्तियों में से एक' घोषित किया.

कैसे बनी भारत के गुटनिरपेक्षता होने की अवधारणा?

यात्रा के कुछ ही समय बाद नेहरू ने और अधिक मजबूती से गुटों के साथ गठबंधन न करने की नीति की घोषणा की, जो बाद में गुटनिरपेक्षता की अवधारणा बन गई. एक साल बाद शुरू हुए कोरियाई युद्ध में जब अमेरिका और बीजिंग की सेनाएं भिड़ीं, तो भारत तटस्थ रहा, जिससे वाशिंगटन को बहुत निराशा हुई. लेकिन अमेरिका ने भारत के लिए आर्थिक सहायता जारी रखी और 1951 में, जब भारत को गंभीर भोजन की कमी का सामना करना पड़ा, ट्रूमैन ने भारत आपातकालीन खाद्य सहायता अधिनियम को आगे बढ़ाया.

नेहरू का वो दौर

वैचारिक कोहरे में घिरे नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की अपनी बयानबाजी तेज कर दी, जिसे वास्तव में पश्चिम की आलोचना के रूप में माना गया.
वाशिंगटन के साथ कमजोर संबंध नेहरू और युद्धकालीन जनरल राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर के बीच संबंधों में थोड़ी गर्माहट के साथ जारी रहे, जिन्होंने अपने संस्मरण में नेहरू के प्रति सम्मान व्यक्त किया था. 

कैसे करीब आए पाकिस्तान और अमेरिका?

1959 में आइजनहावर भारत का दौरा करने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बने. इस बीच, पाकिस्तान अमेरिका के करीब आ गया था, दो अब समाप्त हो चुके रक्षा समूहों, सीटो और सेंटो में शामिल हो गया था, और अमेरिका से सैन्य रूप से लाभान्वित हुआ था. 1962 में भारत-चीन युद्ध ने नेहरू को वास्तविकता से झकझोर दिया और उन्होंने अस्थायी रूप से गुटनिरपेक्षता का मुखौटा त्यागकर राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी से अमेरिकी सैन्य सहायता मांगी, जो उन्हें प्राप्त हुई.

भारत-रूस के संबंध

सोवियत संघ, जो चीन से अलग हो गया था, ने भारत को हथियारों की आपूर्ति शुरू कर दी, विशेष रूप से MIG 21 लड़ाकू विमानों की, हालांकि आपूर्ति युद्ध के बाद शुरू हुई, जिससे उनके बीच गहरे संबंधों का बीजारोपण हुआ. कैनेडी प्रशासन ने शुरू में बोकारो में एक विशाल राज्य के स्वामित्व वाले इस्पात संयंत्र की स्थापना के लिए नेहरू के अनुरोध का समर्थन किया, लेकिन एक समाजवादी परियोजना के रूप में देखे जाने पर इसे राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ा. मॉस्को ने भारत को इस्पात संयंत्र स्थापित करने में मदद करने के लिए कदम बढ़ाया और दोनों देशों के बीच संबंधों को और गहरा किया.

1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान वाशिंगटन की कीमत पर इसे और मजबूत किया गया, जब इस्लामाबाद ने भारत पर उन्नत अमेरिकी हथियार फेंके, जो ज्यादातर सोवियत और पुराने ब्रिटिश हथियारों का उपयोग कर रहे थे. फिर भी, जब भारत पर अकाल का खतरा मंडराने लगा, तो राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने 1966 में भारत को खाद्य सहायता भेज दी, साथ ही कृषि में सुधार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की आलोचना को कम करने के वादे भी किए.

भारत और अमेरिका पहले से ही कृषि विकास में सहयोग कर रहे थे और संभवतः भारत-अमेरिका सहयोग में यह सबसे बड़ी उपलब्धि थी, जिसने कुछ ही वर्षों में हरित क्रांति के माध्यम से भारत को खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल करने में मदद की और इसे दुनिया के अन्न भंडारों में से एक बना दिया.

1971 का बांग्लादेश का स्वतंत्रता संग्राम नई दिल्ली-वाशिंगटन संबंधों में सबसे खराब स्थिति है. युद्ध से एक महीने पहले, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वाशिंगटन का दौरा किया और राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से मुलाकात की और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान पर पाकिस्तानी सैन्य कार्रवाई को कम करने के लिए मदद मांगी थी.

(एजेंसी इनपुट)

Trending news