Mahakumbh 2025: महाकुंभ में कल्पवास की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है. बड़ी संख्या में प्रयागराज में लोग कल्पवास करने आते हैं. इस प्रक्रिया के दौरान जमीन पर सोना पड़ता है. तीन समय गंगा स्नान करने की अनिवार्यता भी है. पढ़िए पूरी डिटेल
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Mahakumbh 2025: लंबे समय से महाकुंभ में कल्पवास की परंपरा चली आ रही है. माना जाता है कि जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो प्रयागराज में शुरू हुए कल्पवास में एक कल्प का पुण्य मिलता है. शास्त्रों में एक कल्प का मतलब ब्रह्मा का एक दिन बताया गया है. महाभारत और रामचरितमानस में भी कल्पवास का वर्णन है. कहा जाता है कि एक महीने तक संगम तट पर चलने वाले कल्पवास में कल्पवासी को जमीन पर सोना पड़ता है. इस दौरान एक समय का आहार या निराहार रहना होता है.
माघ मास में संगम पर कल्पवास
कहा जाता है कि तीन समय गंगा स्नान करने की अनिवार्यता भी है. महाभारत की मानें तो सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या का जो फल है, वह माघ मास में संगम पर कल्पवास कर पाया जा सकता है. मान्यताओं की मानें तो माघ महीने में सभी तीर्थों को अपने राजा से मिलने प्रयागराज आना पड़ता है. यह तीर्थ और देवता गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगम पर स्नान करके धन्य हो जाते हैं. कहा जाता है कि कल्पवास के दौरान स्नान करने से अक्षय पुण्य मिलेगा.
अर्धकुंभ और कल्पवास की परंपरा
रिपोर्ट्स के मुताबिक, अर्धकुंभ और कल्पवास की परंपरा सिर्फ प्रयाग और हरिद्वार में ही है. इतिहासकारों की मानें तो 1665 में कुंभ मेले का पहला विवरण मुगलकाल के लिखे गए गजट खुलासातु-त-तारीख में मिलता है. इस तथ्य को कुछ इतिहासकार विवादित करार देते हैं. कुंभ मेले को वे पुराणों और वेदों का हवाला देकर सदियों पुराना मानते हैं. इतिहासकार मानते हैं कि 19वीं शताब्दी में 12 साल में मिलने वाले धर्माचार्यों को जब लगा कि उन्हें बीच में भी एक बार इकट्ठा होना चाहिए तो 6 साल पर अर्ध कुंभ की परंपरा की नींव रखी गई.
शासन के प्रतीक चिह्न राजदंड
रिपोर्ट्स की मानें तो कई इतिहासविद सम्राट हर्षवर्धन के काल से संगम पर कुंभ के आयोजन की बात करते हैं, लेकिन यही बात आखिरी नहीं है. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा है कि हर छठे साल संगम तट पर सम्राट हर्षवर्धन की ओर से कुंभ का आयोजन हुआ करता था. सम्राट यहां धन-वस्त्र ही नहीं, शासन के प्रतीक चिह्न राजदंड को भी दान देते थे. इसके बाद बहन राज्यश्री से चीवर (वस्त्र का टुकड़ा) मांगकर पहनते और अपने राज्य कन्नौज लौट जाते थे.
1924 प्रयाग कुंभ की घटना
जानकारों की मानें तो 1924 प्रयाग कुंभ में अंग्रेज सरकार ने संगम में स्नान पर रोक लगा दी थी. सरकार का कहना था कि संगम के पास फिसलन बढ़ गई है, भीड़ की वजह से हादसा हो सकता है. दरअसल, कल्पवासी दिन में तीन बार स्नान करते हैं. दोपहर का स्नान वे संगम तट पर ही करते हैं. इसलिए वे संगम में स्नान के लिए अड़े थे. कल्पवासियों को पंडित मदन मोहन मालवीय का साथ मिला. उन्होंने सरकार के फरमान के खिलाफ जल सत्याग्रह शुरू कर दिया. 200 से ज्यादा कल्पवासी, मालवीय के साथ ब्रिटिश पुलिस के साथ आर-पार के मूड में थे. तब जवाहरलाल नेहरू भी प्रयाग में ही थे. जब उन्हें पता चला कि संगम में स्नान को लेकर मालवीय जल सत्याग्रह कर रहे हैं, तो वे भी संगम पहुंच गए.
नेहरू की आत्मकथा में जिक्र
अपनी आत्मकथा में नेहरू ने लिखा था कि मेला पहुंचने पर मैंने देखा कि मालवीय जी जिला मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ जल सत्याग्रह कर रहे हैं. जोश में आकर मैं भी सत्याग्रह दल में शामिल हो गया. मैदान के उस पार लकड़ियों का बड़ा सा बैरिकेड बनाया गया था. हम आगे बढ़ने लगे, तो पुलिस ने रोका. हमारे हाथ में सीढ़ी थी, जिसे पुलिस ने छीन लिया. हम रेत पर बैठकर धरना देने लगे. दोनों तरफ पैदल और घुड़सवार पुलिस खड़ी थी. धूप बढ़ती जा रही थी. मेरा धैर्य अब टूटने लगा था. इसी बीच घुड़सवार पुलिस को कुछ ऑर्डर मिला.
कल्पवासियों ने कैसे किया स्नान?
नेहरू ने आगे लिखा था मुझे लगा कि ये लोग हमें कुचल देंगे. हमारे साथ मार-पीट करेंगे. मैंने सोचा क्यों न हम घेरे के ऊपर से ही फांद जाएं. मेरे साथ बीसों आदमी बैरिकेड्स के ऊपर चढ़ गए. कुछ लोगों ने बांस की बल्लियां भी निकाल लीं. इससे रास्ता जैसा बन गया. मुझे बहुत गर्मी लग रही थी, सो मैंने गंगा में गोता लगा दिया. मालवीय जी बहुत गुस्से में थे. अचानक बिना किसी से कुछ कहे वो उठे और पुलिस के बीच से निकलकर गंगा में कूद पड़े. फिर पूरी भीड़ गंगा में डुबकी लगाने के लिए टूट पड़ी और ऐसे ब्रिटिश सरकार के फरमान के बावजूद कल्पवासियों ने संगम में स्नान किया.
डिस्क्लेमर
यहां बताई गई सारी बातें धार्मिक मान्यताओं पर आधारित हैं. इसकी विषय सामग्री और एआई द्वारा काल्पनिक चित्रण का जी यूपीयूके हूबहू समान होने का दावा या पुष्टि नहीं करता.
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