Opinion: चंपई सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री भी अचानक ही बने थे, अब अपमान क्यों फील कर रहे?
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Opinion: चंपई सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री भी अचानक ही बने थे, अब अपमान क्यों फील कर रहे?

Jharkhand Politics: कोई 'झारखंड टाइगर' तो कोई शिबू सोरेन के 'हनुमान' के तौर पर उन्हें जानता है. झारखंड में चंपई सोरेन को लोग पहले से जानते थे पर देश ने सीएम बनने के बाद जाना. जैसे अचानक सीएम की कुर्सी मिली, वैसे एक दिन चली भी गई. फिर चंपई सोरेन को इतनी तकलीफ क्यों हो रही है? हेमंत सोरेन से नाराज होकर अब भाजपा में जाने वाले हैं. 

Opinion: चंपई सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री भी अचानक ही बने थे, अब अपमान क्यों फील कर रहे?

Champai Soren BJP News: झारखंड की राजनीति में ऊहापोह वाली स्थिति चंपई सोरेन के एक लेटर से खत्म हो चुकी है. झारखंड मुक्ति मोर्चा के दिग्गज नेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने अब अपना रास्ता अलग कर लिया है. लेटर में पीड़ा लिख उन्होंने साफ कर दिया कि अब सारे विकल्प खुले हुए हैं. ज्यादातर लोग मान रहे हैं कि वह भाजपा के साथ जाने वाले हैं. भगवा दल से वेलकम वाले संदेश भी आने लगे हैं. चुनाव करीब है, ऐसे में इस तरह से पाला बदलने की कवायद नई बात नहीं. झारखंड में भाजपा एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं. ऐसे में दिशोम गुरु का कोई खास, वो भी 'सोरेन' का साथ मिल जाए तो पार्टी आदिवासी वोटों को खींचकर सत्ता हथियाने का ख्वाब जरूर देख रही होगी. लेकिन सवाल यह है कि चंपई सोरेन को अब अचानक अपमान जैसा क्यों फील होने लगा?

सपा, RJD हो या कांग्रेस

नेता कब क्या बोलेंगे. किसे राजनीति और किसे रणनीति बोलकर निकल जाएंगे. आप सोच भी नहीं सकते. क्या कोई इस सच्चाई से मुंह मोड़ सकता है कि राष्ट्रीय जनता दल का मतलब लालू प्रसाद यादव है. क्या आप नहीं जानते कि समाजवादी पार्टी का मतलब मुलायम सिंह यादव है और अब अखिलेश यादव है. कांग्रेस का मतलब फिलहाल गांधी परिवार है. आप कितना भी परिवारवाद की रट लगाइए लेकिन जो सच्चाई है उसे आपको मानना ही पड़ेगा. और आप किसी को गलत भी नहीं कह सकते क्योंकि उन्हें भी जनता ने चुनकर अपना रहनुमा माना है. 

इस मामले में भाजपा खुद को अलग दिखाने की कोशिश करती है पर स्क्रीनिंग में वे भी फंस जाएंगे. माता-पिता में अगर कोई सांसद है तो बेटे के लिए खूब जोर आजमाइश चलती है. बेटे को कहीं विधायकी भी मिल जाती है. नहीं, तो किसी और जगह सेट करने की कोशिश तो होती रही है. खैर, मोदी सरकार में एक परिवार से एक वाला फॉर्मूला 2024 के चुनाव से पहले खूब तेजी से उछला. साफ था सब अपने औलाद के लिए टिकट मांग रहे होंगे. यहां नाम किसी का नहीं लेते हैं. वापस चंपई जी पर लौटते हैं.

किस हाल में सीएम बने थे चंपई 

याद कीजिए जब इसी साल झारखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर चंपई सोरेन का नाम पहली बार आया था. झारखंड के लोग उन्हें अच्छे से जानते थे लेकिन राष्ट्रीय मीडिया के जरिए देश के लोगों को पहली बार जानकारी हो रही थी. उससे पहले वह झारखंड सरकार के सबसे वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री बनकर ही खुश थे लेकिन 8 महीने में सत्ता के स्वाद ने ऐसा दिमाग पलटाया कि 'महारानी' वेब सीरीज की अगली पटकथा तैयार हो गई. 

सवाल नंबर 1: जब जेल जाने से पहले हेमंत सोरेन राज्यपाल से मिलने जा रहे थे और चंपई सोरेन सीएम बनने की तैयारी कर रहे थे, क्या उन्हें नहीं पता था कि यह पद उन्हें अचानक क्यों मिल रहा है?

सवाल नंबर 2: पूरे देश में लेख लिखे गए कि हेमंत सोरेन किसी ऐसे खास या कहिए वफादार को सत्ता सौंपना चाहते हैं जिससे जब चाहें वापस ले भी सकें. क्या चंपई सोरेन साहब को ये बात तब समझ में नहीं आई थी? अब ये कहना कि 2-3 कार्यक्रम पहले से तय थे और मना कर दिया गया, इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता. 

सवाल नंबर 3: जब अचानक से सीएम पोस्ट मिल सकता है तो जा भी सकता है, इसमें आपका जमीर जागने जैसी कोई बात तो होनी नहीं चाहिए. क्या आपने उस समय सोचा था जब सीएम पोस्ट के लिए आपका नाम आगे किया गया कि आपमें ऐसा कौन सा विशेष गुण है जो आप पर ही हेमंत को भरोसा है?  

हां, क्योंकि हेमंत सोरेन चाहते तो पत्नी को भी पोस्ट थमा सकते थे. मीडिया में तो कहा भी जाने लगा था कि लालू वाला प्रयोग झारखंड में दोहराया जा सकता है लेकिन उन्होंने शायद अपने पिता की सलाह ली. उन्होंने समझाया होगा कि ऐसे समय में वरिष्ठता और करीबी, खासतौर से वफादार को सत्ता सौंपना ठीक रहेगा. इस एक फैसले से कई निशाने भी सधे. हेमंत सोरेन यह दिखाने में कामयाब रहे कि उन्होंने वरिष्ठ का सम्मान किया. बाद में जब जेल से छूटे तो कुर्सी ले ली. हालांकि यह चंपई सोरेन जी आपकी गलती नहीं है, यह सत्ता का सुख चीज ही ऐसी है. हर राज्य में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे. जब आपको पद मिलता है तो विनम्रता और कृतज्ञता में हाथ जोड़ लेते हैं और जब वापस कुर्सी ली जाती है तो जमीर जाग जाता है. 

बीजेपी का गेम तो नहीं

वैसे, कुछ लोगों को आशंका है कि स्क्रिप्ट बीजेपी ने लिखी है. यह सब अपमान बताकर अब झारखंड विधानसभा चुनाव की नींव तैयार की जा रही हो. अच्छा होता सत्ता में होते हुए कुर्सी को ठुकराकर नेताओं का जमीर जागता. कैबिनेट मंत्री होते समय कुछ गलत लगता तो पार्टी के खिलाफ खड़े हो जाते. लेकिन अफसोस जब तक पार्टी सत्ता में रहती है तो नेता रबड़ी खाते हैं और चुनाव के करीब आते ही नफा-नुकसान तौलकर कूद जाते हैं.

कांग्रेस में भी अनेकों उदाहरण 

ऐसा ही 10 साल में कई खांटी कांग्रेसियों ने भी दिखाया. शुरू से कांग्रेस का झंडा लेकर भाजपा को गालियां देते रहे और 2014 के बाद समझ में आया कि हवा उल्टी दिशा में बहने लगी है तो याद आ गया कि कांग्रेस तो बेकार है, राष्ट्र विरोधी, हिंदू विरोधी पता नहीं क्या-क्या सब याद आ गया. कोई इनसे पूछे कि अब विचारधारा का कुर्ता नहीं पहनिएगा? सच तो ये है नेताजी कि कांग्रेस और भाजपा की विचारधारा वहीं है आप लोग लाइन से बेपटरी हो जाते हैं. काश! चंपई सोरेन भी समझ पाते.

उन्होंने लेटर में लिखा है कि जनता मूल्यांकन करेगी, क्या करेगी? आप भी जानते हैं कि शिबू सोरेन का नाम लेकर आपकी राजनीति यहां तक पहुंची है, फिर उसे हेमंत सोरेन आगे बढ़ा रहे हैं, कहीं फंसे तो आपकी मदद ली या ढाल बनाया, तब आपको समझ में नहीं आया. इतने अबोध बच्चे तो आप राजनेता नहीं हो सकते. ये कहिए कि अब सत्ता का चस्का लग गया था तो छोड़ना नहीं चाहते थे. यही हाल हेमंत सोरेन का है, वह अनंत काल के लिए कुर्सी पर खुद ही जमे रहना चाहते हैं. बाकी भाजपा का अपना गणित है, जहां भी उनकी सरकार नहीं वहां उनका विरोध जबर्दस्त दिखता है. जनता सब समझती है साहब कि सत्ता का खेल क्या होता है.

आगे पढ़िए चंपई सोरेन का लेटर

जोहार साथियों,

आज समाचार देखने के बाद, आप सभी के मन में कई सवाल उमड़ रहे होंगे। आखिर ऐसा क्या हुआ, जिसने कोल्हान के एक छोटे से गांव में रहने वाले एक गरीब किसान के बेटे को इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया। 

अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत में औद्योगिक घरानों के खिलाफ मजदूरों की आवाज उठाने से लेकर झारखंड आंदोलन तक, मैंने हमेशा जन-सरोकार की राजनीति की है। राज्य के आदिवासियों, मूलवासियों, गरीबों, मजदूरों, छात्रों एवं पिछड़े तबके के लोगों को उनका अधिकार दिलवाने का प्रयास करता रहा हूं। किसी भी पद पर रहा अथवा नहीं, लेकिन हर पल जनता के लिए उपलब्ध रहा, उन लोगों के मुद्दे उठाता रहा, जिन्होंने झारखंड राज्य के साथ, अपने बेहतर भविष्य के सपने देखे थे।

इसी बीच, 31 जनवरी को, एक अभूतपूर्व घटनाक्रम के बाद, इंडिया गठबंधन ने मुझे झारखंड के 12वें मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य की सेवा करने के लिए चुना। अपने कार्यकाल के पहले दिन से लेकर आखिरी दिन (3 जुलाई) तक, मैंने पूरी निष्ठा एवं समर्पण के साथ राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया। इस दौरान हमने जनहित में कई फैसले लिए और हमेशा की तरह, हर किसी के लिए सदैव उपलब्ध रहा। बड़े-बुजुर्गों, महिलाओं, युवाओं, छात्रों एवं समाज के हर तबके तथा राज्य के हर व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए हमने जो निर्णय लिए, उसका मूल्यांकन राज्य की जनता करेगी।

जब सत्ता मिली, तब बाबा तिलका मांझी, भगवान बिरसा मुंडा और सिदो-कान्हू जैसे वीरों को नमन कर राज्य की सेवा करने का संकल्प लिया था। झारखंड का बच्चा- बच्चा जनता है कि अपने कार्यकाल के दौरान, मैंने कभी भी, किसी के साथ ना गलत किया, ना होने दिया। 

इसी बीच, हूल दिवस के अगले दिन, मुझे पता चला कि अगले दो दिनों के मेरे सभी कार्यक्रमों को पार्टी नेतृत्व द्वारा स्थगित करवा दिया गया है। इसमें एक सार्वजनिक कार्यक्रम दुमका में था, जबकि दूसरा कार्यक्रम पीजीटी शिक्षकों को नियुक्ति पत्र वितरण करने का था। पूछने पर पता चला कि गठबंधन द्वारा 3 जुलाई को विधायक दल की एक बैठक बुलाई गई है, तब तक आप सीएम के तौर पर किसी कार्यक्रम में नहीं जा सकते।

क्या लोकतंत्र में इस से अपमानजनक कुछ हो सकता है कि एक मुख्यमंत्री के कार्यक्रमों को कोई अन्य व्यक्ति रद्द करवा दे? अपमान का यह कड़वा घूंट पीने के बावजूद मैंने कहा कि नियुक्ति पत्र वितरण सुबह है, जबकि दोपहर में विधायक दल की बैठक होगी, तो वहां से होते हुए मैं उसमें शामिल हो जाऊंगा। लेकिन, उधर से साफ इंकार कर दिया गया।

पिछले चार दशकों के अपने बेदाग राजनैतिक सफर में, मैं पहली बार, भीतर से टूट गया। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। दो दिन तक, चुपचाप बैठ कर आत्म-मंथन करता रहा, पूरे घटनाक्रम में अपनी गलती तलाशता रहा। सत्ता का लोभ रत्ती भर भी नहीं था, लेकिन आत्म-सम्मान पर लगी इस चोट को मैं किसे दिखाता? अपनों द्वारा दिए गए दर्द को कहां जाहिर करता? 

जब वर्षों से पार्टी के केन्द्रीय कार्यकारिणी की बैठक नहीं हो रही है, और एकतरफा आदेश पारित किए जाते हैं, तो फिर किस से पास जाकर अपनी तकलीफ बताता? इस पार्टी में मेरी गिनती वरिष्ठ सदस्यों में होती है, बाकी लोग जूनियर हैं, और मुझ से सीनियर सुप्रीमो जो हैं, वे अब स्वास्थ्य की वजह से राजनीति में सक्रिय नहीं हैं, फिर मेरे पास क्या विकल्प था? अगर वे सक्रिय होते, तो शायद अलग हालात होते। 

कहने को तो विधायक दल की बैठक बुलाने का अधिकार मुख्यमंत्री का होता है, लेकिन मुझे बैठक का एजेंडा तक नहीं बताया गया था। बैठक के दौरान मुझ से इस्तीफा मांगा गया। मैं आश्चर्यचकित था, लेकिन मुझे सत्ता का मोह नहीं था, इसलिए मैंने तुरंत इस्तीफा दे दिया, लेकिन आत्म-सम्मान पर लगी चोट से दिल भावुक था। 

पिछले तीन दिनों से हो रहे अपमानजनक व्यवहार से भावुक होकर मैं आंसुओं को संभालने में लगा था, लेकिन उन्हें सिर्फ कुर्सी से मतलब था। मुझे ऐसा लगा, मानो उस पार्टी में मेरा कोई वजूद ही नहीं है, कोई अस्तित्व ही नहीं है, जिस पार्टी के लिए हम ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। इस बीच कई ऐसी अपमानजनक घटनाएं हुईं, जिसका जिक्र फिलहाल नहीं करना चाहता। इतने अपमान एवं तिरस्कार के बाद मैं वैकल्पिक राह तलाशने हेतु मजबूर हो गया।

मैंने भारी मन से विधायक दल की उसी बैठक में कहा कि - "आज से मेरे जीवन का नया अध्याय शुरू होने जा रहा है।" इसमें मेरे पास तीन विकल्प थे। पहला, राजनीति से सन्यास लेना, दूसरा, अपना अलग संगठन खड़ा करना और तीसरा, इस राह में अगर कोई साथी मिले, तो उसके साथ आगे का सफर तय करना।

उस दिन से लेकर आज तक, तथा आगामी झारखंड विधानसभा चुनावों तक, इस सफर में मेरे लिए सभी विकल्प खुले हुए हैं। 

आपका, चम्पाई सोरेन

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