श्रीहरि के वाराह अवतार का स्मृति दिवस है वरुथिनी एकादशी, जानिए कथा
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श्रीहरि के वाराह अवतार का स्मृति दिवस है वरुथिनी एकादशी, जानिए कथा

वैशाख मास की कृष्‍ण पक्ष की तिथि को आने वाली एकादशी को वरुथिनी एकादशी (Varuthini Ekadashi) कहते हैं. इस व्रत को करने बहुत सौभाग्य और पुण्य मिलता है. यह एकादशी 19 अप्रैल 2020 को सुबह 05 बजकर 51 मिनट तक है. इसके बाद करीब साढ़े आठ बजे तक व्रत का पारण किया जा सकता है. 

श्रीहरि के वाराह अवतार का स्मृति दिवस है वरुथिनी एकादशी, जानिए कथा

नई दिल्लीः सनातनी संस्कृति के अनुसार यूं तो बारहों मास अपने अनुसार पवित्र और मान्य हैं, लेकिन इन सबके बीच वैशाख का महीना अपना अलग ही महत्व रखता है. यह मास विशेष दान-पुण्य का होता है और साथ ही नए ऋतु के आगमन का कारण भी बनता है. वैषाख की कृष्ण पक्ष की एकादशी से ही गर्मी का प्रभाव तेज होने लगता है. इसलिए इस दिन जलदान की भी परंपरा है. शाश्त्रों में इसे वरुथिनी एकादशी कहा गया है. 

  1. वैशाख मास की कृष्‍ण पक्ष की तिथि की एकादशी को वरुथिनी एकादशी  कहते हैं
  2. राजा मांधाता ने किया था वरुथिनी एकादशी का व्रत

पवित्र है वैशाख मास
वैशाख मास की कृष्‍ण पक्ष की तिथि की एकादशी को वरुथिनी एकादशी (Varuthini Ekadashi) कहते हैं. इस व्रत को करने बहुत सौभाग्य और पुण्य मिलता है. यह एकादशी 19 अप्रैल 2020 को सुबह 05 बजकर 51 मिनट तक है. इसके बाद करीब साढ़े आठ बजे तक व्रत का पारण किया जा सकता है.

भगवान विष्णु के वाराह अवतार के प्राकट्य का दिन है वरुथिनी एकादशी. इस दिन भगवान विष्णु के वाराह अवतार की पूजा अर्चना की जाती है. दशावतारों में से वाराह अवतार तीसरा है. 

क्यों लिया था हरि ने वाराह अवतार
देव माता दिति के गर्भ से दो भीषण दैत्यों ने जन्म लिया था. हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप. दोनों ने ही ब्रह्मा से वरदान लेकर पृथ्वी पर आतंक मचा रखा था और अन्य लोकों को भी तहस-नहस कर रहे थे. हिरण्यकश्यप छोटा था. राज-काज हिरण्याक्ष संभालता था. एक दिन उसने ब्रह्मांड पर ही विजय प्राप्त करने के लिए पाताल से कदम बढ़ा दिए और सीधा क्षीरसागर पहुंच गया. यहां उसने शेषनाग के फन पर आधारित और ब्रह्मांड में स्थापित पृथ्वी का हरण कर लिया और पाताल में छिपा दिया. 

ब्रह्मा ने लगाई गुहार
अपनी सृष्टि की यह दुर्दशा देख ब्रह्मदेव त्राहि-त्राहि कर उठे. दरअसल, श्रीहरि ने अभी-अभी धरती को जल प्रलय से बचाया था और हिरण्याक्ष के कारण पृथ्वी फिर से जल मग्न होने लगी. ऐसा देखकर श्रीहरि ने वराह का स्वरूप बनाया और सबसे पहले अपनी शूकर सिंह से हिरण्याक्ष का वध कर दिया, क्योंकि वह विश्वकर्मा के बनाए किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मर सकता था.

इसके बाद भगवान वराह ने पृथ्वी को पाताल से अपनी सींगों पर टिकाकर निकाला और पंजों व नुकीली सींग के माध्यम से धरती पर भरे अतिरिक्त जल को निकाल दिया. इससे कहीं ताल, कहीं जलधारा तो कहीं पर्वतों का विकास हुआ. शेष पृथ्वी समतल हो गई. यह अवतार जिस दिन हुआ, उसे वरुथिनी एकादशी कहते हैं. 

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यह है व्रत की कथा
वरुथिनी एकादशी के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं. उनमें से एक लोकप्रिय कथा राजा मांधाता की है. प्राचीन काल में नर्मदा नदी के किनारे बसे राज्य में मांधाता राज करते थे. वे जंगल में तपस्या कर रहे थे, उसी समय एक भालू आया और उनके पैर खाने लगा. मांधाता तपस्या करते रहे. उन्होंने भालू पर न तो क्रोध किया और न ही हिंसा का सहारा लिया.

पीड़ा असहनीय होने पर उन्होंने भगवान विष्णु से गुहार लगाई. भगवान विष्णु ने वहां उपस्थित हो उनकी रक्षा की, पर भालू द्वारा अपने पैर खा लिए जाने से राजा को बहुत दुख हुआ. भगवान ने उससे कहा- हे वत्स! दुखी मत हो. भालू ने जो तुम्हें काटा था, वह तुम्हारे पूर्व जन्म के बुरे कर्मो का फल था.

तुम मथुरा जाओ और वहां जाकर वरुथिनी एकादशी का व्रत रखो. तुम्हारे अंग फिर से वैसे ही हो जाएंगे. राजा ने आज्ञा का पालन किया और फिर से सुंदर अंगों वाला हो गया.

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