तरक्‍की के झांझ-मंजीरे बाद में, पहले बीमार शिक्षा की फिक्र कर लें
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तरक्‍की के झांझ-मंजीरे बाद में, पहले बीमार शिक्षा की फिक्र कर लें

क्‍यों सारी वेतन वृद्धियां, तरक्‍की आदि का एक व्‍यवस्थित ढांचा नहीं बनाया जाता जो सभी संवर्गों पर समान रूप से लागू हो? असमानता में जीत के मौके हैं, यह बनी रहेगी तो उपकृत कर अपना हित साधन होता रहेगा. लेकिन नीतियों का झोल केवल शासन स्‍तर पर नहीं है. 

तरक्‍की के झांझ-मंजीरे बाद में, पहले बीमार शिक्षा की फिक्र कर लें

अधिक दिन नहीं हुए, कुछ बरस पहले तक ही, बच्‍चे का हाथ शिक्षकों को सौंपते हुए कहा जाता था- ‘इसका भविष्‍य आपके हाथों में है. न पढ़े तो खाल खींच लीजिएगा और यह भरोसा शिक्षक की तरफ से भी होता था. प्राथमिक शाला के शिक्षकों की सख्‍ती और कोमल स्‍वभाव का तालमेल आज भी हमें बरबस याद हो आता है. क्‍या ऐसी स्थिति आज है? क्‍या हम बच्‍चों को शिक्षकों के हाथों में सौंपते हुए पूर्ण विश्‍वास से कह सकते हैं कि खाल खींच लीजिएगा? नहीं कह सकते.

शिक्षक इतने अवसाद में जी रहे हैं कि वे सच में ही खाल खींच सकते हैं और बच्‍चों का पालन सुविधाओं की हथेलियों पर इस कदर हो रहा है, कि वे शिक्षक पर गोलियां चलाने में भी चूक नहीं करते. (‍याद कीजिए, हरियाणा के यमुनानगर में 12वीं के छात्र ने डांटने पर प्रिंसिपल को गोलियां मार दीं!). नर्सरी के पहले की शिक्षा हो या उच्‍च शिक्षा, मध्यप्रदेश सहित देश के अन्‍य राज्‍यों में पूरा ढांचा जैसे वेंटीलेटर पर है. हम इस तथ्‍य से आंख मिलाना ही नहीं चाहते. हम यानि शासन, प्रशासन और जनता. दुष्‍यंत कुमार के शब्‍दों में कहूं तो 'तुम्‍हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्‍हें यकीन नहीं.'

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मध्यप्रदेश में कुछ दिनों पहले अध्‍यापक हड़ताल पर रहे. उन्‍हें 2003 के पहले कांग्रेस की दिग्विजय सरकार ने शिक्षाकर्मी के रूप में नियुक्‍त किया था. वे तब से समान कार्य समान वेतन की मांग कर रहे थे. इतना की इस दौर में ठीक-ठाक गुजर हो सके. मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने ना केवल उन्‍हें शिक्षाकर्मी संस्‍कृति से बाहर निकाला बल्कि शिक्षा विभाग में संविलियन भी किया. सरकार का तर्क है कि अध्‍यापकों को कर्मी संस्‍कृति से बाहर निकाला गया है. उन्‍हें सम्‍मानजनक वेतन देने के प्रयास हुए है. अच्‍छा है कि उनकी मांग पूरी हुई.

यह आंदोलन दस वर्ष से अधिक समय तक चला. अब जब सरकार ने अध्‍यापकों की मांग पूरी कर दी है तो यह उनकी जिम्‍मेदारी बनती है कि वे कम से कम बच्‍चों के शिक्षा के स्‍तर को उचित बनाए रखने में अपना दायित्‍व पूर्ण करें. शिक्षाकर्मियों के इस आंदोलन के संदर्भ में दो पक्ष हैं. एक तो यह कि अध्‍यापकों जैसे वेतन व सुविधावृद्धि की मांग वाले सारे आंदोलन सैद्धांतिक रूप से गलत है. जब उनकी भर्ती हुई थी तब ही वेतन ढांचें सहित तमाम शर्तें स्‍पष्‍ट थी.

ये क्‍या कि आप भर्ती हुए और फिर एका कर अपनी बात मनवाने सरकार को ब्‍लेकमेल करने लगे. लेकिन, इस तर्क से सरकार के प्रति उपजी सहानुभूति कुछ ही पलों में काफूर हो जाती है. यह सरकार ही तो है जिसकी नीतियों ने ऐसी व्‍यवस्‍था को जन्‍म दिया जहां पीएचडी, एमटेक, एमफिल करने वाले छात्र भी पांचवीं पास योग्‍यता वाली नौकरी करने को टूट पड़ते हैं. रोजगार हैं कहां? इसलिए जब जो मिलता है, भागते भूत की लंगोटी की तरह पकड़ लेते है, बाद में देखा जाएगा, लड़-भिड़ कर ले लेंगे और सरकार भी वोट तंत्र को पोषित करते हुए चतुराई से असंतुलन बढ़ाती रहती है, ताकि मौकों पर ‘उपहार’ दे कर जयमाला पहनी जा सके.

क्‍यों सारी वेतन वृद्धियां, तरक्‍की आदि का एक व्‍यवस्थित ढांचा नहीं बनाया जाता जो सभी संवर्गों पर समान रूप से लागू हो? असमानता में जीत के मौके हैं, यह बनी रहेगी तो उपकृत कर अपना हित साधन होता रहेगा. लेकिन नीतियों का झोल केवल शासन स्‍तर पर नहीं है. यानि राजनीतिक निर्णय ही ऐसे नहीं होते बल्कि प्रशासनिक स्‍तर पर होने वाले निर्णय तो और भी भारी पड़े हैं. एक अधिकारी आता है, वह बिना तैयारी, बिना परामर्श, बिना क्षमता जांचें एक नीति लागू कर देता है. उसके हटने के बाद दूसरा अधिकारी आता है, वह पुराने का निर्णय पलट देता है.

व्‍यवस्‍था जब तक तालमेल साधती है नीति बदल जाती है. मध्यप्रदेश के कॉलेजों में सेमेस्‍टर प्रणाली लागू करना इसका सटीक उदाहरण है. बिना तैयारी यह व्‍यवस्‍था लागू हुई, जब तक कॉलेज प्रबंधन, शिक्षक और विद्यार्थी तैयार हुए तब तक व्‍यवस्‍था खत्‍म कर दी गई. सिलेबस बनता है, उसकी किताबें आती ही नहीं. किताबें आती है तब तक सिलेबस बदलने की कवायद शुरू हो जाती है. निजी स्‍कूलों में किताबों का एक अलग खेल है. संस्‍था प्रथम की असर रिपोर्ट (एनुअल स्‍टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) मध्यप्रदेश में नीतियों की खामियों को रेखांकित किया गया कि मप्र सहित देश में 6 से 14 सालों के बच्‍चों के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम है. 18 वर्ष से अधिक की उम्र पर उसे भारतीय नागरिक के रूप में अधिकार मिल जाते हैं. मगर 14 से 18 वर्ष की किशोरावस्‍था में वह नीतिविहीन होता है. कॅरियर के इस मोड़ पर खाली हाथ सा.

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शिक्षा की स्थिति देखी महसूस होता है कि तरक्‍की के झांझ-मजीरें बाद में पीट लेंगे पहले इस बात की फिक्र करें कि नौकरी ही नहीं अब बच्‍चों को पढ़ाई के लिए पलायन क्‍यों करना पड़ रहा है. हम उन्‍हें राज्‍य के बाहर पढ़ने भेजना चाहते हैं. यह मजबूरी क्‍यों हैं? बच्‍चे चाहें निजी स्‍कूल में पढ़ रहे हों, सरकारी स्‍कूल में, मॉडल स्‍कूल या टॉप फाइव में शामिल कॉलेजों में… नीति नियंता जरा कुछ देर उनसे उनकी किताबों और पढ़ाई की बात कर लें. विकास का रोडमैप मिल जाएगा. लेकिन इसके लिए व्‍यक्तिगत अहम, आस्‍था और सीमाओं से बाहर निकलना होगा. यह कर पाएं तो ठीक अन्‍यथा तो सूरज उगता रहेगा, कीर्तन होते रहेंगे, आस्‍था मूर्तियां गढ़ती रहेगी, विरोध में नारे लगते रहेंगे और हमारे द्वारा तैयारी ‘साक्षर भेड़े’ पूर्ण समर्पण से ‘फालो’ करती रहेंगी.

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं) 
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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