नई दिल्ली: देश की राजनीति में सबसे बड़ा नासूर अगर कुछ है तो वो है वंशवाद या परिवारवाद, लेकिन विडंबना तो देखिए न तो ये कोई पुरानी बात हो गई न ही मौजूदा दौर की सियासत ही इससे अछूती है. ऐसा लगता है मानो सदियों से चली आ रही परंपरा को आज भी निभाया जा रहा है. लेकिन बीजेपी (BJP) इस कड़ी को तोड़ने की पहल में एक कदम आगे बढ़ती हुई नज़र आई. भले ही इसकी शुरुआत पंचायत चुनाव से ही क्यों न की गई हो.
यूपी में वंशवाद का खात्मा
दरअसल, यूपी में पंचायत के चुनाव होने वाले हैं, जिसकी तैयारी जोरों पर है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) ने इस बात को ऐलान कर दिया है कि राज्य में होने वाले आगामी पंचायती चुनाव में राज्य के किसी मंत्री, विधायक या सांसद के परिवार को चुनाव लड़ने की इजाज़त नहीं होगी और कार्यकर्ताओं को चुनाव (Election) लड़ने का मौका मिलेगा. ज़ाहिर सी बात है इस घोषणा के बाद ज़मीन से जुड़े कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर तो है ही दूसरा उन्हें सीधे अपने कार्यों से खुद को साबित करने का मौक़ा भी मिल रहा है. योगी का ये कदम एक तीर से दो निशाने को साधने जैसा है एक तरफ तो वो अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं की हौसला अफ़ज़ाई कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उन सियासी दलों पर सीधा प्रहार जो परिवारवाद की पहचान बन चुके हैं.
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भाजपा (BJP) ने लगातार मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर वंशवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया और खुद की पार्टी में आम कार्यकर्ता से खास बनने के सफर तक को साझा किया. और ये भी कहा कि हमारी पार्टी में ज़मीन से जुड़ कर काम करने वालों को तरजीह दी जाती है.
वंशवाद ज़रूरी या मज़बूरी
एक गरीब की हसरत हमेशा होती है कि उसकी औलाद उसकी तरह संघर्ष की ज़िंदगी न गुज़ारे और भविष्य में कुछ बड़ा करे, एक डॉक्टर की चाहत अपने औलद से उससे भी नामचीन डॉक्टर बनने की होती है. एक उद्योगपति भी यही चाहता है कि उसकी अगली पीढ़ी उसकी ज़िम्मेदारी को संभाले तब ऐसे में सवाल उठता है कि फिर कोई राजनेता या सियासी चेहरा अपनी अगली पीढ़ी को लेकर भी यही तमन्ना रखे तो ग़लत क्या है?
हो सकता है तर्क अलग हो, विचार अलग हो लेकिन सच ये ही कि सियासत को परिभाषा बदलाव से जुड़ी है, उस बदलाव से जिसमें समाज बदले, सोच बदले और देश बदले. सियासत से सत्ता के शिखर तक पहुंचने का मतलब भी यही है कि देशहित की कल्पना की जाए और इस भाव में पारिवारिक मोह की कोई जगह नहीं होती. लेकिन एक उद्योगपति अपने कारोबार को लेकर नियत स्वार्थ के साथ अपने वंश को उससे जोड़ता दिखता है, तो एक डॉक्टर अपने औलाद को खुद से आगे.. यानि सीधे तौर पर वंशवाद की ज़रूरत बदल जाती है. लेकिन देश की सियासी पार्टियों ने वंशवाद को तव्वजो देकर राजनीति को कारोबार का रूप दे दिया है. और वही नासूर बन कर पतन का भी कारण बन रहा है. जिसमें स्वार्थ की मज़बूरी भी है राजनीतिक पार्टी का कारोबार चालाने की ज़रूरत भी
परिवारवाद का पुराना नाता
बीजेपी खुद को वंशवाद का विरोधी बताती है और इसके पीछे उसका तर्क भी है और सच भी है की चंद बड़े नामों की औलादें पार्टी के साथ तो हैं लेकिन किसी बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ जुड़े नहीं है. तो दूसरी तरफ कांग्रेस का इस वंशवाद की भट्टी में ही पकी नज़र आती है बात चाहे जवाहरलाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक की क्यों ना की जाए. आज भी देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस गांधी परिवार को छोड़कर बाहरी चेहरे पर भरोसा नहीं कर पा रही है और यही वजह कि बग़ावत की सुलगती चिंगारी भले ही अभी कांग्रेस में दबी हो लेकिन कभी भी सुलग सकती है क्योंकि सत्ता के रासतल में पहुंच चुकी पार्टी के हाल को देखकर कई पुराने कांग्रेसी चेहरे अब मुखर भी होने लगे हैं.
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भारतीय राजनीति में वंशवाद किसी एक राज्य तक की बात नहीं है, ये दक्षिण में भी मुखर तो उत्तर में भी सियासत का हिस्सा. चंद्रबाबू से लेकर मुलायम तक की सियासत इसकी ही बानगी पेश करता है. पंजाब में अकाली भले ही किसानों का हमदर्द बताकर बीजेपी से अगल हो गई हो, लेकिन वंशवाद का कीड़ा प्रकाश सिंह बादल के बाद सुखवीर सिंह बाद और हरसिमरत कौर तक में नज़र आया है.
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, बिहार में लालू हों या रामविलास ये सब वंशवाद वाली सियासत के ही प्रचारक हैं. लेकिन दूसरे परिपेक्ष में ये भी देखना होगा कि उन दलों का भी अब क्या भविष्य है जिनका कोई उत्तराधिकारी नहीं है, मसलन नीतीश के बाद जदयू का क्या होगा और मयावती की बहुजन सामज पार्टी को संभालने वाला वो एक जन कौन होगा?
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