आखिर अधिकतर राज्य और हाई कोर्ट देश में क्यों नहीं चाहते हैं AIJS

देश के अलग-अलग हाई कोर्ट और अधिकतर राज्य सरकारों की ओर से सहमति नहीं देने के बाद केंद्र सरकार ने अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) के प्रस्ताव को समाप्त कर दिया है. AIJS लागू होने से पूरे देश के लिए एक समान मानकों पर अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों और जिला न्यायाधीशों के लिए एक साथ भर्ती परीक्षा हो सकती थी.

Written by - Nizam Kantaliya | Last Updated : Jul 28, 2022, 01:06 AM IST
  • कानून मंत्री ने AIJS का प्रस्ताव लाने से किया इनकार
  • कई राज्यों की सरकारें और हाई कोर्ट नहीं हैं समर्थन में
आखिर अधिकतर राज्य और हाई कोर्ट देश में क्यों नहीं चाहते हैं AIJS

नई दिल्ली: देश के अलग-अलग हाई कोर्ट और अधिकतर राज्य सरकारों की ओर से सहमति नहीं देने के बाद केंद्र सरकार ने अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) के प्रस्ताव को समाप्त कर दिया है. AIJS लागू होने से पूरे देश के लिए एक समान मानकों पर अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों और जिला न्यायाधीशों के लिए एक साथ भर्ती परीक्षा हो सकती थी, लेकिन इस प्रस्ताव के समाप्त हो जाने से देश में न्यायिक सुधारों को बड़ा झटका लगा है.

कानून मंत्री ने AIJS का प्रस्ताव लाने से किया इनकार
केंद्र सरकार केंद्रीय सिविल सेवाओं की तर्ज पर AIJS को नए सिरे से स्थापित करना चाहती थी, लेकिन इसे लेकर सहमति नहीं मिली. गत शुक्रवार राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने AIJS का प्रस्ताव लाने से इनकार किया.

कई राज्य सरकारें भी नहीं हैं समर्थन में
जिस प्रकार संघ लोक सेवा आयोग केंद्रीय भर्ती प्रक्रिया आयोजित करता है और सफल उम्मीदवारों के संवर्गों का आवंटन करता है, उसी प्रकार से AIJS देश की लोअर ज्यूडिशरी में जजों की भर्ती करने से लेकर उन्हें राज्य आवंटन करने का प्रस्ताव रखती है. इसके विस्तृत नियम और रूपरेखा तैयार करने के लिए सरकार को संसद में विधेयक पेश करना था. इससे भी पहले इस पर राज्यों के बीच आम सहमति बनाना जरूरी है, लेकिन फिलहाल कई राज्य सरकारों के साथ-साथ अधिकतर हाई कोर्ट भी इसके समर्थन में नहीं हैं.

जिस मुद्दे पर सर्वाधिक विवाद है, वो निचली अदालतों में स्थानीय भाषा में सुनवाई और बहस है. इन अदालतों में करीब 3 करोड़ केस पेडिंग हैं. अगर AIJS के जरिए भर्तियां होती हैं तो उत्तर भारत के व्यक्ति के लिए दक्षिण भारत की अदालतों में सुनवाई करना कैसे संभव होगा?

सरकारी सूत्र बताते हैं कि यह मुद्दा तो अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा और अखिल भारतीय पुलिस सेवा में भी हो सकता है, लेकिन वहां नहीं होता है. जैसे उन सेवाओं के अधिकारी भाषा संकट से उबर जाते हैं, न्यायिक सेवा के अधिकारियों के लिए भी ये संकट नहीं होगा.

देश के अलग-अलग हिस्सों से कानूनविदों से की गई बातचीत के आधार पर AIJS के प्रस्ताव के समाप्त होने के पीछे कई कारण माने गए हैं.  

राज्यों का भयः संघवाद की भावना के विरुद्ध
संविधान के अनुच्छेद 233 के अनुसार अधीनस्थ न्यायपालिका में भर्ती राज्य का विशेषाधिकार है. अनुच्छेद 233 (1) में कहा गया है, किसी राज्य में जिला न्यायाधीश नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति तथा जिला न्यायाधीश की पदस्थापना और प्रोन्नति उस राज्य का राज्यपाल ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले हाई कोर्ट से परामर्श करके करेगा.

देश की अधिकतर राज्य सरकारें AIJS के प्रस्ताव को संघवाद की भावना के विरुद्ध मानती हैं और इसे संविधान द्वारा प्रदत्त राज्यों की शक्तियों पर केंद्र के अतिक्रमण के रूप में देखती हैं. कई राज्य और हाई कोर्ट AIJS के विचार का इसलिए भी विरोध कर रहे हैं कि इस तरह के नियम बनाने और जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति को नियंत्रित करने की राज्यों की मौलिक शक्ति छीन ली जाती है तो यह संघवाद के सिद्धांत और बुनियादी संरचना सिद्धांत के खिलाफ हो सकता है.

स्वीकार नहीं करने वालों में कई वे राज्य भी शामिल हैं​, जो सत्ताधारी दल से जुड़े हैं. यहां तक कि कई राज्य इस आशंका से अपने जवाब ढूंढते हैं कि AIJS की केंद्रीय भर्ती प्रक्रिया उनके राज्य की विशिष्ट चिंताओं को दूर करने में सक्षम नहीं होगी.

केंद्र के सामने अनुच्छेद 312 की मुश्किल राह
AIJS को लेकर संविधान का अनुच्छेद 312 भी एक मुश्किल राह तैयार करता है. इस अनुच्छेद के खंड 3 के अनुसार AIJS में जिला न्यायाधीश के पद से कम पद शामिल नहीं होगा. ऐसे में मजिस्ट्रेट और सिविल जजों की नियुक्ति के लिए हाई कोर्ट और राज्य सरकारों को भर्ती करनी ही होगी, जिस तरह से एसडीएम और तहसीलदार के पदों के लिए हर राज्य अपने स्तर पर परीक्षा आयोजित करते हैं.

AIJS के माध्यम से अधीनस्थ न्यायपालिका में नियुक्ति को लेकर केंद्र को इस संवैधानिक बाधा का सामना करना पड़ सकता है. यही कारण है कि स्पष्ट बहुमत के बावजूद केंद्र सरकार इस मुद्दे पर ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकती. ये मामला केवल राज्यों और हाई कोर्ट की सहमति के बाद ही पूर्ण किया जा सकता है. केंद्र देश के राज्यों की नाराजगी का सामना तो कर सकता है, लेकिन सभी हाई कोर्ट की असहमति को नजरअंदाज नहीं कर सकती.

हाई कोर्ट नहीं चाहते उनका नियत्रंण समाप्त हो
संविधान के अनुच्छेद 235 के अनुसार लोअर ज्यूडिशरी के सदस्यों पर प्रशासनिक नियंत्रण हाई कोर्ट के क्षेत्राधिकार में आता है. अनुच्छेद 233, 234 के साथ अनुच्छेद 309 के अलग-अलग प्रावधानों से राज्य सरकारें हाईकोर्ट के परामर्श से ही इनके लिए नियम और विनियम तैयार करती हैं.

वर्तमान में देश में लोअर ज्यूडिशरी की समस्त नियुक्तियां हाईकोर्ट द्वारा की जा रही हैं. इसके लिए बजट व अन्य सुविधाएं राज्य सरकारें जुटाती हैं तो वही पदों की स्वीकृति से लेकर उनकी नियुक्ति, पदोन्नति व अन्य सभी निर्णय राज्यपाल की आज्ञा से माने जाते हैं. लेकिन इसके लिए भी उन्हे हाईकोर्ट से परामर्श करना होता है. इस व्यवस्था से भर्ती पूर्णतया हाई कोर्ट के अधीन होती है, जो एक बड़ी शक्ति है. अगर ये नियुक्तियां एक केंद्रीय परीक्षा के जरिए होती है तो इन अधिकारियों पर नियंत्रण करना हाई कोर्ट के लिए आसान नहीं होगा.

जिस तरह से एक राज्य प्रशासन के अधीन होने के बावजूद कई आईएएस और आईपीएस केंद्र से भी जुड़े रह सकते हैं या वे डेपुटेशन पर कहीं भी जा सकते हैं. ऐसे में AIJS के माध्यम से अधीनस्थ न्यायपालिका की भर्ती से नियुक्त होने वाले अधिकारियों पर हाई कोर्ट का नियत्रंण समाप्त होकर कार्यपालिका को ट्रांसफर होने का खतरा है.

निचली न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति कई राज्यों में राज्य सेवा आयोग के जरिए करवाई जाती है, लेकिन इस सेवा पर पूरा नियंत्रण हाई कोर्ट का रहता है. हाई कोर्ट इस नियंत्रण को छोड़ना नहीं चाहते. वे नहीं चाहते कि निचली अदालत में होने वाली नियुक्तियों में सरकार का दखल हो.

कई हाई कोर्ट ने इसे न्यायिक स्वायत्तता से जोड़ा और AIJS सेवा के खिलाफ अपना विचार दिया. AIJS जैसी एक केंद्रीय परीक्षा जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका को शक्ति प्रदान करेगा और इस प्रक्रिया में बाकी सभी हाई कोर्ट का पक्ष कमजोर हो सकता है.

राज्य-विशिष्ट की पहचान और स्थानीय भाषा की चुनौती
AIJS के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती स्थानीय भाषा और प्रतिनिधित्व की है. एक ओर जहां सुप्रीम कोर्ट से लेकर देशभर के हाई कोर्ट और सभी सरकारें कोर्ट की सुनवाई को क्षेत्रीय भाषाओं में करने की वकालात कर रहे हैं, दूसरी तरफ केंद्रीय भर्ती से न्यायिक कार्य में क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल पूर्णतया प्रभावित हो सकता है.

वर्तमान में राज्य स्तर पर होने वाली भर्ती में स्थानीय आरक्षण को लागू करना आसान है. हाई कोर्ट और राज्य सरकारें आपसी सामंजस्य से 85 से 90 प्रतिशत तक उसी राज्य के लोगों को भर्ती में शामिल कर रहे हैं, लेकिन केंद्रीय भर्ती परीक्षा से राज्य सरकारें और हाई कोर्ट ऐसा नहीं कर पाएंगे.

राज्यों के साथ-साथ ​सभी हाई कोर्ट को ये डर है कि अगर न्यायिक अधिकारियों की भर्ती केंद्रीय स्तर पर होती है, तब स्थानीय भाषा, स्थानीय जाति के आधार पर आरक्षण से लेकर ग्रामीण उम्मीदवारों और भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए न्यायिक व्यवस्था में पहुंचना बेहद मुश्किल हो जाएगा. AIJS से निचली अदालतों के समक्ष मौजूद संरचनात्मक मुद्दों का समाधान की समस्या भी पैदा होगी.

AIJS को लेकर कब क्या हुआ 
बता दें कि साल 1958 में विधि आयोग की 14वीं रिपोर्ट में पहली बार AIJS का प्रस्ताव दिया गया. 1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन ने अनुच्छेद 312 (1) में संशोधन करके संसद को एक या एक से अधिक अखिल भारतीय सेवाओं के निर्माण के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया, जिसमें ‘अखिल भारतीय न्यायिक सेवा’ भी शामिल है. 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने AIJS लागू करने के लिए केंद्र पर छोड़ दिया.

2006 में संसद की स्थायी समिति ने देश में AIJS की स्थापना का समर्थन देते हुए विधेयक का मसौदा तैयार किया. 2015 सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार द्वारा लाए गए एनजेएसी कानून- 2014 (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) को निरस्त कर दिया. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से स्वप्रेणा प्रसंज्ञान लेते हुए जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति के मुद्दे पर केंद्रीय चयन प्रक्रिया का प्रस्ताव रखा. 2022, 21 अप्रैल को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कानून मंत्री ने कहा कि आम सहमति की कमी के कारण AIJS लाने का कोई प्रस्ताव नहीं है.

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