जानिए कर्ण के पूर्व जन्म की कथा, ऐसे मिले थे उसे कवच और कुंडल
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जानिए कर्ण के पूर्व जन्म की कथा, ऐसे मिले थे उसे कवच और कुंडल

कर्ण का जन्म होना और जीवनभर यातनाएं भोगना भी उसके पूर्व जन्म का फल था. कर्ण पूर्व जन्म में एक राक्षस था, जिसे सूर्य की कृपा प्राप्त थी. 

जानिए कर्ण के पूर्व जन्म की कथा, ऐसे मिले थे उसे कवच और कुंडल

नई दिल्लीः महाभारत के महारथियों और योद्धाओं की जब बात की जाती है तो कर्ण का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है. वह महारथी और महान धनुर्धर था, लेकिन जीवन भर उसे खुद को साबित करने के लिए संघर्ष करना पड़ा. जन्मजाति के साथ-साथ उसे योद्धा के तौर पर वह सम्मान नहीं मिला, जिसका वह अधिकारी था. लेकिन इसके पीछे कर्ण का पूर्वजन्म भी काफी हद तक जिम्मेदार था. जानते हैं कर्ण के पूर्व जन्म की कहानी-

  1. पूर्व जन्म में दुरदुम्भ नाम का राक्षस था कर्ण
  2. सूर्य की कृपा से पाप्त हुए थे 100 कवच

पूर्वजन्म का प्रभाव
कर्ण का जन्म होना और जीवनभर यातनाएं भोगना भी उसके पूर्व जन्म का फल था. दरअसल सतयुग में नर और नारायण ऋषि जो कि श्रीहरि के अंशावतार थे, वे तपस्या कर रहे थे. दुरदु्म्भ नाम के एक राक्षस को वरदान था कि उसका वध वही कर सकता है जिसने एक हजार साल तप किया हो.

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इसके साथ ही उसे सूर्य ने 100 कवचों और दिव्य कुंडल का रक्षण दिया था. जो भी उसका एक कवच भी तोड़ता उसकी भी मृत्यु हो जाती. इधर दुरदुम्भ के अत्याचार बढ़ गए तो देवताओं ने श्रीहरि से बचाव की प्रार्थना की, उन्होंने सभी को नर-नारायण के पास भेज दिया. नर-नारायण ने देवताओं को अभय दिया. 

ऐसे हुई दुरदु्म्भ की पराजय
इधर दुरदुम्भ को भी पता चला कि नर-नारायण एक हजार साल से तपस्या कर रहे हैं तो उसे अपनी पराजय दिखी. उसने इन दोनों ऋषिय़ों के वध के लिए आक्रमण कर दिया. पहले नर ने युद्ध किया, नारायण तपस्या करते रहे. कई दिन तक युद्ध के बाद नर ने राक्षस की कवच को तोड़ दिया और नर की भी मृत्यु हो गई. इस पर नारायण उठे और तपस्या के फल से नर को जीवित कर दिया. अब नर 

 

तपस्या करने लगे और नारायण युद्ध. नारायण ने दूसरा कवच तोड़ा तो उनकी भी मृत्यु हो गई, लेकिन उन्हें नर ने तप के फल से जीवित कर दिया. इस तरह लगातार युद्ध चलता रहा. नर-नारायण एक-एक करके युद्ध करते रहे, कवच तोड़ते रहे और एक-दूसरे को जीवित करते रहे. 

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राक्षस ने लिया कर्ण के रूप में जन्म
इस तरह एक-एक कर जब 99 कवच टूट गए तो राक्षस भागा और सूर्य के पीछे जा छिपा. नर-नारायण ने ललकारा लेकिन सूर्य ने शरणागत की रक्षा का प्रण सुनाया. तब नारायण ने कहा कि ठीक है, इसका फल आपको भी भुगतना होगा. अब यह राक्षस आपके तेज से द्वापर में जन्म लेगा और यही कवच-कुंडल तब भी इसके पास रहेंगे, लेकिन मृत्यु के समय काम नहीं आएंगे.

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यही राक्षस कर्ण के रूप में जन्म लेता है. युद्ध से पहले ही इंद्र उसके कवच-कुंडल मांग लेते हैं, इससे कवच तोड़ने का श्राप भी विफल हो जाता है और कर्ण निहत्था अर्जुन के हाथों मारा जाता है. कृष्ण और अर्जुन ही नर-नारायण के अंशावतार थे. 

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