सगुण भक्ति शाखा में कृष्ण भक्त संत सूरदास का जन्म वैशाख महीने के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था. इस वर्ष यह तिथि 28 अप्रैल (आज) है. सूरदास भगवान श्रीकृष्ण के उपासक और ब्रजभाषा के महत्वपूर्ण कवि हैं
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नई दिल्लीः हिंदी साहित्य के कवियों के नाम आते हैं तो श्रेष्ठता का एक प्रश्न भी उठ खड़ा होता है. इस श्रेष्ठता के प्रश्न को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक दोहे से दूर करने की कोशिश की थी.
सूर सूर तुलसी शशि, उडगन केशवदास,
अब के कवि खद्योत सम. जंह-तंह करत प्रकाश.
यानी कि साहित्य रूपी नभ में सूरदास सूर्य की तरह चमकते हैं तो तुलसीदास चंद्रमा की तरह प्रकाशमान हैं. कवि केशवदाल तारागण की तरह हैं. इसके अलावा अब जो भी कवि हैं वह जुगनुओं की भांति ही कहीं भी थोड़ा बहुत उड़ते चमकते यदा-कदा दिख जाते हैं.
सूरदास को साहित्य का सूर्य कहना इसलिए भी जरूरी जान पड़ता है, क्योंकि जिस भाव, प्रभाव, मनोभाव और मन की दशा का वर्णन उनके काव्य में मिलता है, विद्वान यह मानते ही नहीं कि एक जन्मांध उन्हें अपनी लेखनी का विषय बना सकता है. कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण की बाललीला को अपनी कविता का विषय बनाया और भक्ति के साथ उनका गान करते हुए अमर हो गए.
वैशाख शुक्ल पंचमी को जन्मे सूरदास
सगुण भक्ति शाखा में कृष्ण भक्त संत सूरदास का जन्म वैशाख महीने के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था. इस वर्ष यह तिथि 28 अप्रैल (आज) है. सूरदास भगवान श्रीकृष्ण के उपासक और ब्रजभाषा के महत्वपूर्ण कवि हैं. इनके जन्म स्थान को लेकर विद्वान मतभेद मानते हैं. फिर भी अधिक मत है कि उनका जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता गांव में हुआ था. आज यह गांव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है.
कृष्ण की बाल लीलाओं को बनाया काव्य का विषय
ऐतिहासिक नजरिए से देखें तो भक्ति आंदोलन हमारे देश के सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का काल है. भक्ति काव्यधारा के महान कवियों में सूरदास का नाम सर्वोपरि है. कृष्णभक्ति काव्यधारा के कवि और कृष्ण के सगुण रूप के उपासक सूरदास ने आततायी काल में भक्ति का प्रसार अपने भजनों के जरिए किया. सूरदास वल्लभाचार्य के भक्त थे और श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण की लीलाओं के आधार पर उन्होंने अपने काव्यग्रंथ सूरसागर में श्रीकृष्ण के अद्भुत पावन रूप और उनकी लीलाओं का गुणगान किया.
अष्टछाप के कवियों में भी हैं शामिल
महाप्रभु वल्लभाचार्य का ज़ब मथुरा आगमन हुआ तो यहाँ यमुना तट पर उनको भी सूरदास का यह गायन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. सूरदास को उन्होंने अपने मत में भी दीक्षित कर लिया. हिंदू धर्म के वैष्णव चिंतन में वल्लभाचार्य के द्वारा प्रतिपादित मत को पुष्टि मार्ग के नाम से जाना चाहता है. सूरदास अष्टछाप के कवियों में सबसे महान माने जाते हैं. हिंदी में अष्टछाप के कवियों में आठ कृष्णभक्त कवियों का नाम शामिल है.
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सूरदास ने लिखे कई कूटपद
काव्य कृति की बात होती है तो केवल कवि सूरदास के प्रेम-श्रृंगार और भक्ति रस में डूबे काव्यों का वर्णन होता है. लेकिन सूरदास इससे कहीं अधिक सिद्ध हस्त थे. उन्होंने काव्य शैली में गुप्त सूचना और संकेतों में बात कहने की शैली की भी शुरुआत की थी. जिन्हें कूटपद (कोडवर्ड) कहते हैं. उनकी एक रचना इसके उदाहरण में बड़ी आसानी से मिल जाती है, जिसमें लिखा तो कुछ और ही है, लेकिन वास्तव में कुछ और ही कहा जा रहा है. यह पद उद्धव-गोपी प्रसंग का है.
कहत कत परदेसी की बात।
मंदिरअरध अवधि बदि हमसौ, हरि अहार चलि जात।।
ससिरिपु बरष, सूररिपु जुग बर, हररिपु कीन्हौ घात।
मघपंचक लै गयौ साँवरौ, तातै अति अकुलात।।
नखत, वेद, ग्रह, जोरि अर्ध करि, सोइ बनत अब खात।
'सूरदास' बस भईं विरह के, कर मीजैं पछितात
यह पद सूरदास का कूट पद है. इसमें गोपियां कहती हैं, उद्धव जी, किस परदेसी की बात करते हो. मंदिरअरध ( 15 दिन) अवधि (समय) यानी 15 दिन की बात कहकर गया था और आज हरि (शेर) अहार(भोजन) यानी मांस या मास, महीनों बीत गए. ससिरिपु बरष (दिन वर्ष लगते हैं), सूररिपु जुग (रात युगों से लंबी है) और हररिपु (कामदेव -शिव का शत्रु) हम पर प्रहार करते हैं. मघपंचक, चित्रा नक्षत्र, यानी हृदय, कृष्ण ले गया है. नखत(27 नक्षत्र), वेद (4 वेद), ग्रह (नौ ग्रह), जोड़ कर (यानी 40) आधा करें यानी बीस (विष) खाने का मन करता है. इस तरह सूरदास ने इस पद में लिखा तो कुछ और है, लेकिन इसका अर्थ कुछ और ही निकलता है. सूरदास जैसे कवि भारतीय संस्कति की शोभा हैं.
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