ULFA Tripartite Peace Agreement: असम में बढ़ते बांग्लादेशी घुसपैठियों और अपनी जमीन छिन जाने की आशंका में असम के 20 नौजवानों ने देश का सबसे खूंखार उग्रवादी संगठन खड़ा कर दिया. करीब 44 साल तक खून बहाने के बाद अब उसने सरेंडर कर दिया है.
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ULFA Tripartite Peace Agreement With Assam and Center: पूर्वोत्तर में बरसों से चले आ रहे उग्रवाद को शांत करने में मोदी सरकार की रणनीति धीरे-धीरे कारगर हो रही है. बातचीत के साथ ही उग्रवादियों के प्रति सख्ती की नीति के चलते नॉर्थ ईस्ट में कई उग्रवादी संगठन अपने हथियार डालते जा रहे हैं. मणिपुर के सबसे पुराने उग्रवादी संगठन UNLF के हथियार डालने के बाद अब असम के सबसे पुराने एक्स्ट्रीमिस्ट ग्रुप यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (ULFA) ने भी हिंसा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने पर सहमति व्यक्त कर दी है. इस संबंध में आज दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा की उपस्थिति में उल्फा के अरविंद राजखोवा गुट के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किये गए.
असम में उग्रवाद के खात्मे की उम्मीद
अरबिंद राजखोवा गुट के साथ यह समझौता सरकार के बीच 12 साल तक बिना शर्त हुई वार्ता के बाद आया है. इस शांति समझौते से असम में दशकों पुराने उग्रवाद के खत्म होने की उम्मीद है. हालांकि परेश बरुआ की अध्यक्षता वाला उल्फा का कट्टरपंथी गुट इस समझौते का हिस्सा नहीं है. बरुआ चीन-म्यांमा सीमा के निकट एक स्थान पर रहता है.
उल्फा का गठन 1979 में 'संप्रभु असम' की मांग को लेकर किया गया था. तब से, यह विध्वंसक गतिविधियों में शामिल रहा है जिसके कारण केंद्र सरकार ने 1990 में इसे प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया था. राजखोवा गुट तीन सितंबर, 2011 को सरकार के साथ शांति वार्ता में उस समय शामिल हुआ था. जब इसके और केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच इसकी गतिविधियों को रोकने को लेकर समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे.
परेश बरुआ समझौते में शामिल नहीं
असम में उल्फा उग्रवाद की 44 साल लंबी यात्रा के बाद दिल्ली में हुए त्रिपक्षीय समझौता होने को एक महत्वपूर्ण अध्याय है. असम में हाल के समय में लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले कई महत्वपूर्ण कदम देखे गए हैं. हालांकि उल्फा मुद्दा कई विवादास्पद मुद्दों के बीच शीर्ष पर बना रहा. उल्फा मुद्दा शुरू में एक आंदोलन था लेकिन जल्द ही अपहरण, जबरन वसूली, हत्याओं और बम विस्फोटों के साथ यह सशस्त्र संघर्ष में बदल गया.
समझौते पर हस्ताक्षर को चार दशक पुरानी समस्या का अधूरा समाधान माना जा रहा है क्योंकि परेश बरुआ नीत उल्फा (इंडिपेंडेंट) गुट तब तक बातचीत के लिए तैयार नहीं है जब तक कि असम की 'संप्रभुता' के मुद्दे पर चर्चा नहीं होती. उसके कैडर हिंसा की छिटपुट घटनाओं में शामिल हैं और सुरक्षा बलों ने अभियान तेज कर दिया है.
ULFA the oldest insurgent group of Assam agreed to abjure the path of violence. Speaking on the signing of a memorandum of settlement with ULFA.
https://t.co/6H1DIHmmHy— Amit Shah (@AmitShah) December 29, 2023
7 अप्रैल 1979 को हुई थी स्थापना
उल्फा (आई) की अनुपस्थिति और विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों द्वारा इसे अधूरा समाधान बताए जाने के बावजूद, यह समझौता एक मील का पत्थर है क्योंकि 1991 के बाद से संगठन के साथ बातचीत के कई प्रयासों के बावजूद, कोई समाधान नहीं निकला है. ऊपरी असम जिलों के 20 युवाओं के एक समूह द्वारा सात अप्रैल, 1979 को शिवसागर के ऐतिहासिक अहोम-कालीन ‘एम्फीथिएटर’ रंग घर में गठित उल्फा ने कई मौकों पर बातचीत की इच्छा जतायी लेकिन 'संप्रभुता' मुद्दे पर अपने रुख पर अड़ा रहा.
वर्ष 2011 में संगठन में दूसरी बार विभाजन होने के बाद अध्यक्ष अरबिंद राजखोवा सहित शीर्ष नेतृत्व पड़ोसी देश से असम लौटा. उसके बाद वे संप्रभुता विषय के बिना बातचीत की मेज पर आने के लिए सहमत हुए और केंद्र सरकार को 12-सूत्रीय मांग पत्र प्रस्तुत किया. उससे पहले 1992 में नेताओं और कैडरों के एक वर्ग द्वारा बातचीत की इच्छा जताए जाने के बाद संगठन विभाजित हो गया था, लेकिन राजखोवा और बरुआ दोनों तब 'संप्रभुता' मुद्दे पर दृढ़ थे.
शुरू में बटोरी थी लोकप्रियता
बातचीत की इच्छा रखने वालों ने सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और खुद को आत्मसमर्पित उल्फा या सल्फा के रूप में संगठित किया. 1990 और 2000 के दशक में राज्य में उनका जबरदस्त प्रभाव था और कांग्रेस तथा उसके बाद की अगप सरकारों ने उन्हें उल्फा के खिलाफ इस्तेमाल किया. आरोप है कि अगप सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान उल्फा नेताओं के परिवारों के सदस्यों की हत्याओं में सल्फा सदस्यों का इस्तेमाल किया था.
उल्फा शुरू में पड़ोसी नगालैंड और मिजोरम के उग्रवाद से प्रभावित था और उसने अपने शुरुआती दिनों में ग्रामीण लोगों के बीच लोकप्रियता हासिल की. उसने ग्रामीण शिक्षित बेरोजगार युवाओं को विशेष तौर पर आकर्षित किया था. कहा जाता है कि यह संगठन 1985 की पहली असम गण परिषद (अगप) सरकार के दौरान काफी प्रभावशाली था, लेकिन राज्य सरकार और जनता दोनों के साथ संबंध धीरे-धीरे खराब होते हुए क्योंकि उल्फा द्वारा अपहरण, जबरन वसूली और हत्याएं किए जाने के कारण राज्य में उथल-पुथल मच गई.
ऐसे हुई उग्रवाद के खात्मे की शुरुआत
नवंबर 1990 में राज्य की स्थिति एक निर्णायक मोड़ पर आ गई. बाद में 28 नवंबर, 1990 को सेना ने उल्फा के खिलाफ ऑपरेशन बजरंग शुरू किया और अगले दिन, प्रफुल्ल महंत नीत अगप अगप सरकार को बर्खास्त करने के साथ ही राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. ऑपरेशन बजरंग की शुरुआत के साथ 1,221 उग्रवादियों की गिरफ्तारी हुई, असम को 'अशांत क्षेत्र' घोषित किया गया और सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) कानून लागम किया. इसके साथ ही उल्फा को अलगाववादी और गैरकानूनी संगठन घोषित कर दिया गया जो अब तक कायम है.
(एजेंसी इनपुट के साथ)