Jhalawar News: धापू बाई सेन बताती हैं कि लोकगीत पर्यावरण और समय अनुकूल रचे जाते हैं. इनका माटी और हमारी संस्कृति से पूरा जुड़ाव होता है. लोकगीत हमारी लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग हैं. पहले औरतें चक्की चलाते समय, पानी लेने जाते समय, मांडने बनाते समय या अधिकांश अपने कामकाज के दौरान लोक गीत गाया करती थी. लेकिन अब पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित महिलाएं लोक गीतों को भूलती चली जा रही हैं.
झालावाड़ की बोली अपने आप में है अद्भुत.
विंध्याचल पर्वतमाला में स्थित हाड़ौती के झालावाड़ जिले की बोली अपने आप में अद्भुत हैं. यहां हाड़ौती के साथ मालवा के शब्दों का भी बोलचाल के रूप में अधिक इस्तेमाल किया जाता है, जिससे झालावाड़ की भाषा और भी रसमयी हो जाती है. यह ना केवल यहां के लोगों को बल्कि पड़ोसी राज्यों के साथ देश-विदेश के लोगों को भी लुभाती हैं. ऐसे में झालावाड़ की बोली में ही धापू बाई सेन इन लोकगीतों को सुनाती हैं और अपने पौत्र बालकवि मनीष सेन से लोकगीतों को किताब में भावी पीढ़ी के लिए सँजोने का सराहनीय प्रयास कर रही हैं। दादी के गीतों को पौत्र द्वारा लिखित रूप दिया जा रहा है.
आज अधिकांश महिलाएं लोक गीतों को भूल चुकी हैं. 87 वर्षीय धापू बाई सेन को गांव में आज भी मांगलिक कार्यक्रमो रातीजगा के गीत, पूर्वजों के गीत, विवाह में प्रभातिया सहित कई गीतों को गाने के लिए महिलाएं बुलाने आती है. धापू बाई सेन ने बताया कि आज की महिलाओं को लोकगीतों को सीखना चाहिये, जिससे कि लोकगीत हमेशा जीवंत बने रहे.
अब महिलाएं लोकगीतों को भूलती चली जा रही है. कई महिलाएं कहती हैं कि उन्हें गीत आते ही नहीं. क्योंकि उन्होंने इन गीतों को कभी पढ़ा नहीं है. धापू बाई सेन बताती है कि यह लोकगीत अपनी माटी में ही रचे बसे जाते हैं. पहले विवाह के दौरान भी प्रभातियां से लेकर सभी रस्मों में अलग-अलग गीत गाए जाते थे. लेकिन अब परिपाटी कुछ अलग हो चुकी है. यह गीत लुप्त होते जा रहे हैं। इन्हीं गीतों को जीवंत बनाए रखने के उद्देश्य से धापू बाई सेन लोक गीतों को लिखित रूप देने में लगी हुई हैं. वहीं धापू बाई सेन के पौत्र बालकवि मनीष सेन दादी जो गीत सुनाती हैं, उन्हें दादी के पास बैठकर लिखते है. लोकगीतों में माटी की खुशबू का अहसास होता है, इसलिए इनका संरक्षण भावी पीढ़ी के लिए आवश्यक हैं.
बुजुर्ग धापू बाई सेन को लोकगीतों से अत्यधिक लगाव है. वे अपने दैनिक दिनचर्या के अधिकांश कार्य करते समय या खाली समय में गीतों को गाती रहती है. सगाई, बधावा, चाकभात, राती जगा, मायरा, घोड़ी गीत, तोरण गीत, बन्ना-बन्नी, हथलेवा, कंवर कलेवा, जुआ-जुई, जमाई, कामण, पावणा, बिन्दौरी, जच्चा-बच्चा, सहित देवी देवताओं आदि के गीत दादी स-स्वर सुनाकर लिखवाती हैं. साथ ही धापूबाई सेन इन गीतों को गाने का विशेष प्रयोजन भी बताती हैं.
धापू बाई सेन के पौत्र बालकवि मनीष सेन ने बताया कि दादी धापू बाई सेन जो लोक गीत सुनाती हैं, उन्हे लेख बद्ध किया जा रहा है. जल्द ही वरिष्ठ साहित्यकारों का मार्गदर्शन प्राप्त कर एक किताब के माध्यम से लोगों के समक्ष लाया जाएगा, जिससे लोगों का अपनी लोक संस्कृति से जुड़ाव कायम रह सके.
झालावाड़ जिले के ग्रामीण अंचल में स्थित सरड़ा ग्राम की एक 90 वर्षीय बुजुर्ग महिला ने परंपराओं को जीवित रखने के लिए अनूठा प्रयास किया है. महिला धापू बाई सेन ने खास प्रयास किया है उन लोकगीतों को जीवित रखने के लिए जो शहरी और ग्रामीण अंचल में धार्मिक और वैवाहिक जैसे कई शुभ मांगलिक कार्य में महिलाओं द्वारा गाए जाते हैं. परिवार में कोई भी मांगलिक कार्य हो तो महिलाओं द्वारा लोकगीतों का सामूहिक गायन किया जाने की परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है. लेकिन समय के साथ यह परंपराएं धीरे-धीरे लुप्त भी होती जा रही। इसके पीछे मुख्य कारण है, कि संयुक्त परिवार काम होते जा रहे, जिससे परिवारों में बुजुर्ग महिलाओं की उपस्थिति लगातार कम होती गई, तो नई पीढ़ी को गायन हेतु क्षेत्रीय लोकगीत नहीं मिल पा रहे हैं.
ऐसे में 90 वर्षीय बुजुर्ग महिला धापू बाई ने मांगलिक कार्यों में गाए जाने वाले पारंपरिक गीतों को लेखबद्ध करवाने का निर्णय किया. हालांकि धापू बाई साक्षर नहीं है, तो उन्होंने इन गीतों को लेखबद्ध करवाने के लिए परिवार के बच्चों का सहयोग लिया, जिसमें परिवार ने भी दादी का साथ दिया और अब तक दर्जनों पारंपरिक लोकगीतों को लेख बद्ध किया जा चुका. परिवार की इच्छा है कि इन हस्तलिखित लोकगीतों को एक किताब में प्रकाशित करवा कर आमजन के लिए उपलब्ध करवाया जाएगा, जिससे हर परिवार को मांगलिक कार्यों के दौरान गीत गायन में परेशानी नहीं हो और नई पीढ़ी की महिलाएं भी इन गीतों से मांगलिक कार्यों को शुरू कर पा. साथ ही यह परंपराएं भी जीवित रह सकें