तुम जितना गिरोगे हम उतना ही पैरों में पड़ेंगे! बिहार के पुलों को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिल रही कड़ी टक्कर
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तुम जितना गिरोगे हम उतना ही पैरों में पड़ेंगे! बिहार के पुलों को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिल रही कड़ी टक्कर

बिहार में दर्जन भर से ज्यादा पु​ल ध्वस्त हो चुके हैं और मुख्यमंत्री पैरों में गिरने का भी रिकॉर्ड बनाते चले जा रहे हैं. ऐसे ही रहा तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जल्द ही बिहार के पुलों को पीछे छोड़ सकते हैं. 

बिहार के पुलों और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार में कड़ी टक्कर

एक दौर था, जब पूरा बिहार नीतीश कुमार को उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा था. अपहरण एक उद्योग बन चुका था और डकैतों, लूटेरों और माफिया को सरकारी संरक्षण प्राप्त था. पुलिस नाम की रह गई थी और अधिकारी अपनी बीवियों की आबरू की रक्षा करने में भी नामर्द साबित हो रहे थे. शाही शादी के नाम पर शोरूम से गाड़ियां उठवा ली जाती थीं और बेबस आँखें अपने हक और हक़ूक की निगहबानी में भी अक्षम साबित हो रही थीं. अखबारों के पन्ने अपराध की गाथाओं से भरे होते थे और लोग क्षोभ भरे दिल से केवल हेडिंग पढ़ने के बाद ही हाय करके रह जाते थे. दलितों को जिंदा फूंकना एक रिवाज बन गया था. पटना की सड़कें न जाने कितनी जवान लड़कियों के साथ बलात्कार की गवाह बन चुकी थीं. सरकारी धन का कोई माई बाप नहीं होता था और वहशी आँखें उस पर अपनी लार टपकाती थीं. हर नदी के दियारे में खूंखार डाकुओं का 'रामगढ़' (फिल्म शोले वाला गांव) विकसित हो चुका था और आसपास के इलाकों में ये दरिंदे किसी को भी नोच खाने के लिए बेकरार रहते थे. निचली अदालतों को तो छोड़िए, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी न्याय देने में अक्षम साबित हो रहे थे और राज्य में जंगलराज की दुहाई देते थे. ऐसे मुश्किल समय में नीतीश कुमार ने गद्दी संभाली थी.

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अपने पहले ही कार्यकाल में नीतीश कुमार ने जो किया, वे खुद आगे चलकर उसे दोहरा नहीं पाए. बिहार के लोग भी मानते हैं कि 2005 से 2010 के बीच नीतीश कुमार ने जिस तरह से शासन किया, वह खुद नीतीश कुमार के बाकी के शासनकाल के लिए नजीर साबित हुआ. नीतीश कुमार ने भले ही 9 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली हो, लेकिन पहले कार्यकाल के प्रदर्शन को वे दोहरा नहीं पाए. पता नहीं, वो कौन सी मजबूरी रही कि नीतीश कुमार की हनक सत्ता के गलियारों में लगातार कम होती चली गई. 

नीतीश कुमार न तो चंपा विश्वास को न्याय दिल पाए और न ही शंकर बिगहा और लक्ष्मणपुर बाथे के पीड़ितों की उम्मीदों के बरक्श खुद को स्थापित कर पाए. शिल्पी जैन के अपराधियों को लेकर भी नीतीश कुमार की सरकार कभी गंभीर नहीं दिखी. दूसरे कार्यकाल से ही नीतीश कुमार खुद में एक प्रधानमंत्री देखने लगे और इसके बाद से वे लगातार कमजोर होते चले गए. जिस बिहार के लोगों को नीतीश कुमार में चंद्रगुप्त दिखने लगे थे, वो नीतीश कुमार अपनी महत्वाकांक्षा को सबसे ऊपर रखकर बिहार को छोड़ देश संभालने के सपनों में खो गए. 

बार-बार इस पाले से उस पाले में और उस पाले से इस पाले में आकर नीतीश कुमार ने बुढ़ापे के लिए सहानुभूति नहीं, पलटूराम का खिताब अपने नाम कर लिया. आज वो हर मीटिंग में सफाई देते हुए कहते हैं कि अब उस पाले में नहीं जाऊंगा. फिर भी राजनीतिक गलियारे में उन्हें विश्वस्त नहीं माना जा रहा. मीडिया में और राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि आज भी नीतीश कुमार कभी भी पाला बदल सकते हैं. हालांकि, इसकी टाइमिंग खुद नीतीश ही जानते होंगे. 

फिर से हनक पर आते हैं. आज नीतीश कुमार किसी के भी पैर छूने को बेताब दिखते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पैर तो वे छू ही चुके हैं, अब तो वे अपने ही अफसरों के पैरों में गिरने को बेताब दिखते हैं. हद तो तब हो जाती है, जब वे एक निजी कंपनी के अधिकारी का पैर छूने को आगे बढ़ते हैं. अब ये नीतीश कुमार ही जानते हैं कि उनके मन में क्या चल रहा है. हो सकता है कि नीतीश कुमार अधिकारियों को लज्जित महसूस कराना चाहते हों, लेकिन नीतीश कुमार शायद भूल जाते हैं कि राजनीति हनक से चलती है, खुद को पैरों में गिराने से राजनीति नहीं चलती.

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नीतीश कुमार बिहार के कर्ता-धर्ता हैं और आज भी करोड़ों बिहारियों की उम्मीद के दीपक हैं. अगर वे ही किसी के पैरों में पड़ते रहे तो उनकी पार्टी को ही उनको डिफेंड करना मुश्किल हो जाएगा. साथ ही, बिहारियों के अभिमान को भी तगड़ा चोट पहुंचेगा. ऐसा लग रहा है कि नीतीश कुमार और बिहार के पुलों में प्रतियोगिता चल रही है कि कौन ज्यादा गिरेगा या पैरों में झुकेगा. फिलहाल तो पुल आगे चल रहे हैं, लेकिन नीतीश कुमार जिस रफ्तार से नीतीश कुमार पैरों में गिर रहे हैं, उससे लग रहा है कि जल्द ही नीतीश कुमार पुलों को पीछे छोड़ देंगे. अब कुदरत का करिश्मा ही बिहार के पुलों को गिरने और नीतीश कुमार को झुकने से रोक सकता है.

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