"जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो..." आज़ादी की जंग में बहुत नुमाया है उर्दू का किरदार
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"जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो..." आज़ादी की जंग में बहुत नुमाया है उर्दू का किरदार

Azadi Ka Amrit Mahotsav: 15 अगस्त को पूरा देश 75वां आज़ादी का जश्न मनाएगा. यह जश्न एक लंबी जद्दोजहद के मनाया जाता है. भले ही देश को आज़ाद हुए 75 बरस हो गए लेकिन ना कितने लोगों और चीजों का बहुत बड़ा योगदान इस आजादी को हासिल करने में दिया है. इसमें भाषा का भी बहुत बड़ा किरदार है. इस खबर में हम आपको जंग-ए-आजादी में उर्दू भाषा के किरदार के बारे में बता रहे हैं. 

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Urdu: जंग कोई भी हो, उसमें भाषा का बहुत बड़ा योगदान होता है. आज पूरा देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. 15 अगस्त को 75वां आज़ादी का जश्न मनाया जाएगा. इस मौके पर हम आपको आज़ादी की जंग में उर्दू भाषा के योगादान के बारे में बताने जा रहे हैं. आज़ादी की जंग में उर्दू ने भी अपना किरदार अदा किया. उर्दू ज़बान ने अपने नारे और शेर दिए जिसे पढ़कर और सुनकर हज़ारों हिंदुस्तानियों में जज़्बए आज़ादी जोश मारने लगा. 

उर्दू के नारों से रगों में इंक़ेलाब पैदा हुआ और इंक़ेलाब ज़िंदा बाद कह कर वतन के लिए आज़ादी की जंग में तन-मन और धन के साथ कूद पड़े. उर्दू अख़बारों, रिसालों और मुजल्लो नें तहरीके आज़ादी की तब्लीग में अहम किरदार अदा किया. क्योंकि उस वक़्त हिंदुस्तान में उर्दू जानने वालों की तादाद ज़्यादा भी. इंक़ेलाब ज़िंदाबाद जैसा लाफ़ानी नारा इसी ज़बान में दिया गया. 

उर्दू शायरो अदीबों और सहाफ़ियों नें अपनी जाने हुसूले आज़ादी के लिए क़ुर्बान की. बाहदुर शाह ज़फ़र से लेकर हसरत मोहानी और मौलाना आज़ाद तक जांफ़ेशानियों का सिलसिला जारी रहा. बाहदुर शाह ज़फ़र को मुल्क बदर की सज़ा मिली तो हसरत मोहानी और मौलाना आज़ाद को क़ैदो बंद की ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ी.

है कितना बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए 
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूए यार में

बहुत से उर्दू शायरों अदीबों और सहाफ़ीयों नें अंग्रजों के ज़ुल्मों सितम भी बर्दाश्त किए. उर्दू के अज़ीम शायर मौलवी मोहम्मद बाक़र को तो अंग्रेज़ों ने मुतालबए आज़ादी के लिए सरेआम गोली मार दी. मौलवी मोहम्मद बाक़र सहाफ़ी थे और अपने अख़बार से तहरीके आज़ादी का प्रचार कर रहे थे. तहरीके आज़ादी को पाए तकमील तक पंहुचाने के लिए ज़बाने उर्दू ने एक के बाद एक अपने जियाले वतन पर निछावर किए. 

पौने दो सौ बरस तवील तहरीके आज़ादी की दास्तान में उर्दू और उसकी औलादों की कहानी सुनहरे हुरुफ़ में दर्ज हैं. उर्दू अदीबों और सहाफ़ियों के सर क़लम होते रहे लेकिन कटते सरों से बहते लहू को रौशनाई बनाकर इंक़ेलाब की कहानी लिखने का सिलसला न रुका न थमा. बड़ी से बड़ी ताक़तों आफ़त के सामने न सर झुका न क़लम रुका. 

उर्दू शायरों अदीबों और सहाफ़ियों ने आज़ादी का दर्स दिया 
उर्दू सहाफ़ियों अदीबों और शायरों की शहादत, सज़ाए क़ैदो मशक़्क़त की दास्तान बहुत लंबी है. उस दौर में उर्दू अख़बार आज़ादी की जंग तो लड़ ही रहे थे. साथ ही अवाम को भी इस काम के लिए तैय्यार कर रहे थे. जंगे आज़ादी में उर्दू के किरदार को भला कैसे भुलाया जा सकता है और उर्दू सहाफ़त ने हमें दर्स दिया है कि 

ख़ींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो

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