Faiz Ahmad Faiz Poetry: 'नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही', फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चुनिंदा शेर
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Faiz Ahmad Faiz Poetry: 'नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही', फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चुनिंदा शेर

Faiz Ahmad Faiz Poetry: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmad Faiz) की पैदाईश 13  फ़रवरी 1911 को लाहौर के पास सियालकोट शहर, पाकिस्तान में हुई थी. उनकी इब्तिदाई तालीम उर्दू, अरबी और फ़ारसी में हुई.

Faiz Ahmad Faiz Poetry: 'नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही', फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चुनिंदा शेर

Faiz Ahmad Faiz Poetry: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmad Faiz) भारत के जाने माने उर्दू और पंजाबी शायर थे. उन्हें क्रांतिकारी रचनाओं के लिए जाना जाता है. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmad Faiz) पर आरोप लगते रहे हैं कि वह कम्यूनिस्ट थे और इस्लाम से इतर रहते थे. जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया था. उनकी लाइन 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा' बहुत मशहूर है. फ़ैज़ ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊँचाई दी. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmad Faiz) को 1963 में सोवियत रशिया से लेनिन शांति पुरस्कार प्रदान किया गया. 1984 में नोबेल पुरस्कार के लिये भी उनका नामांकन किया गया था.
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और क्या देखने को बाक़ी है 
आप से दिल लगा के देख लिया 
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तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं 
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं 
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नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही 
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही 
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वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था 
वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है 
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आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान 
भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे 

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ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में 
हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं 
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न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ 
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं 
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आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर 
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कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी 
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी 
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गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा 
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं 
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न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है 
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है 
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