Explainer: समान नागरिक संहिता के पक्ष और विरोध में क्या दिए जा रहे तर्क, जानें UCC की पूरी ABCD
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Explainer: समान नागरिक संहिता के पक्ष और विरोध में क्या दिए जा रहे तर्क, जानें UCC की पूरी ABCD

Uniform Civil Code पर बीजेपी देश के लोगों के मन से इसका डर निकालने की कोशिश में लग गई है और UCC का विरोध करने वाले अपने-अपने तर्कों से लोगों को डराने की कोशिशों में लग गए हैं, लेकिन इन चर्चाओं के बीच उत्तराखंड सरकार, यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता को लेकर फाइनल ड्राफ्ट तैयार करने में जुट गई है. 

Explainer: समान नागरिक संहिता के पक्ष और विरोध में क्या दिए जा रहे तर्क, जानें UCC की पूरी ABCD

Uniform Civil Code: देश अब 'समान नागरिक संहिता' (UCC) की ओर बढ़ रहा है और ये बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ-साफ कह दी. समान नागरिक संहिता पर बीजेपी देश के लोगों के मन से इसका डर निकालने की कोशिश में लग गई है और UCC का विरोध करने वाले अपने-अपने तर्कों से लोगों को डराने की कोशिशों में लग गए हैं. 

लेकिन इन चर्चाओं के बीच उत्तराखंड सरकार, यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता को लेकर फाइनल ड्राफ्ट तैयार करने में जुट गई है. राज्य में UCC लागू करने को लेकर अभी तक उत्तराखंड सरकार सबसे ज्यादा गंभीर दिख रही है, और इसके लिए सबसे तेजी से काम भी यहीं हुआ है.

सूत्रों के मुताबिक उत्तराखंड सरकार ने करीब 2 लाख 31 हज़ार सुझावों के बाद कुछ खास बिंदुओं को इस फाइनल ड्राफ्ट में शामिल किया है. उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड के जिस तरह के नियम रखे गए हैं, माना जा रहा है कि इसी तरह के नियम, पूरे देश के लिए बनाए जा रहे समान नागरिक संहिता में शामिल किए जाएंगे. लॉ कमीशन ने उत्तराखंड की UCC कमेटी से इस मामले पर बातचीत की है.

यहां आपको ये बता दें कि संविधान की सातवीं अनुसूची में ही राज्य और केंद्र सरकार की शक्तियों का बंटवारा किया गया है.  इसमें ही ये बताया गया है कि किस विषय पर कौन नियम बना सकता है. इसके अंदर तीन सूचियां हैं. संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची. समवर्ती सूची में वो विषय हैं, जिनपर राज्य और केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं. इसमें संपत्ति, विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और बंटवारे से संबंधित नियम इसी सूची में शामिल हैं. जहां तक समान नागरिक संहिता की बात है तो इसे भी समवर्ती सूची के तहत तहत बनाया जाएगा. 

उत्तराखंड के UCC में इसमें शामिल किए जाने वाले 13 बिंदुओं के बारे में हम आपको बताना चाहते हैं. उत्तराखंड के लिए जो समान नागरिक संहिता बनाई जा रही हैं, उसमें कहा गया है कि...

-लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाई जाएगी ताकि वो शादी से पहले ग्रेजुएट हो सकें.
-शादी का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होगा. बिना रजिस्ट्रेशन के, किसी भी सरकारी सुविधा का लाभ नहीं मिलेगा. गांव के स्तर पर भी शादी के रजिस्ट्रेशन की सुविधा होगी.
-पति-पत्नी दोनों के लिए तलाक का समान आधार रखा जाएगा. तलाक का जो आधार पति के लिए लागू होगा, वही पत्नी के लिए भी लागू किया जाएगा. फिलहाल अलग-अलग 'पर्सनल लॉ' के तहत पति और पत्नी के पास तलाक के अलग-अलग आधार तय किए जाते हैं.
-बहुविवाह पर रोक लगेगी. यानी एक पत्नी या पति के होते हुए, दूसरी शादी पर प्रतिबंध होगा.
- उत्तराधिकार में लड़कियों को लड़कों के बराबर हिस्सा मिलेगा. अभी तक पर्सनल लॉ के मुताबिक लड़के का शेयर लड़की से अधिक जाता है.
- नौकरीशुदा बेटे की मौत पर पत्नी को मिलने वाले मुआवजे में वृद्ध माता-पिता के भरण पोषण की भी जिम्मेदारी शामिल होगी. अगर पत्नी दोबारा शादी करती है, तो पति की मौत पर मिलने वाले मुआवज़े में लड़के के माता-पिता का भी हिस्सा होगा. 
- अगर पत्नी की मौत हो जाती है और उसके बेसहारा माता-पिता के भरण पोषण की जिम्मेदारी पति की होगी.
- गोद लेने का अधिकार सभी को दिया जाएगा. मुस्लिम महिलाओं को भी बच्चा गोद लेने का अधिकार मिलेगा. बच्चे गोद लेने की प्रक्रिया आसान की जाएगी.
- हलाला और इद्दत पर रोक होगी.
- लिव इन रिलेशनशिप के लिए घोषणापत्र जरूरी होगा. ये एक सेल्फ डिक्लेरेशन की तरह होगा जिसका एक वैधानिक फॉर्मैट होगा. माता पिता को सूचना जाएगी.
- बच्चे के अनाथ होने पर उसके अभिभावक चुनने की प्रक्रिया को आसान किया जाएगा.
- पति-पत्नी के झगड़े की सूरत में बच्चों को उनके दादा-दादी या नाना-नानी को दी जा सकती है.
- जनसंख्या नियंत्रण भी जरूरी है, बच्चों की संख्या निश्चित की जाएगी, वो 1 या दो हो सकती है.

तो उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता में इन बिंदुओं को शामिल किया गया है. ये माना गया है कि ये वो मुद्दे हैं, जिनका समान रूप से सभी नागरिकों पर लागू होना जरूरी है. इसमें कुछ और पाइंट्स भी हैं, लेकिन फाइनल ड्राफ्ट में कई बातें भी हैं जिनको शामिल किया गया है. राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उत्तराखंड में UCC को जल्दी लागू करने की बात कही और अन्य राज्यों को भी पहल करने की अपील की है.

यूसीसी को लेकर उत्तराखंड की तेजी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तेवर देखकर विपक्ष और UCC विरोधी एक्टिव हो गए हैं. समान नागरिक संहिता को लेकर विरोध करने वालों के अपने तर्क हैं, जैसे ये कहा जा रहा है कि...

- UCC के लागू होने से नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा और व्यक्तिगत कानून प्रभावित होंगे.
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 कहता है कि किसी भी व्यक्ति को अपने धर्म को मानने और उसके प्रचार की स्वतंत्रता हासिल है. कहा जा रहा है कि UCC के आने से इसको लागू करना मुश्किल होगा.
-दक्षिण और उत्तर के राज्यों के हिंदू समाज में कई परंपराओं में विविधता है, जैसे उत्तर भारत में रिश्तेदारों में विवाह नहीं होते, लेकिन दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में इसे शुभ माना जाता है.
- इसी तरह से उत्तर-पूर्वी राज्यों, नागालैंड, मेघालय और मिजोरम के स्थानीय रीति रिवाज को संवैधानिक सुरक्षा दी गई है. अगर ये जारी रहेगा तो UCC के बाद, एकरूपता कैसे आएगी?

समाना नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का दावा है कि केंद्र सरकार सामाजिक सुधार के नाम पर अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों वाले नियम कानून लागू करने का प्रयास किया जा रहा है. देखा जाए तो केंद्र के स्तर पर समान नागरिक संहिता बनाना और लागू करना, आसान नहीं है. इसको बनाना और लागू करने के साथ-साथ कई कानूनों में भी बदलाव करना पड़ेगा. जैसे...

डाइवोर्स एक्ट 1869, डिजोल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट 1939, हिंदू मैरिज एक्ट 1955, हिंदू एडोप्शन एंड मैंटेनेंस एक्ट 1956, पारसी मैरिज एंड डिवोर्स एक्ट, मुस्लिम पर्सनल लॉ, शरियत एप्लीकेशन एक्ट, स्पेशल मैरिज एक्ट, फॉरेन मैरिज एक्ट.

ये वो कानून हैं जिनपर सीधे पर तौर पर समान नागरिक संहिता के नियमों का असर पड़ेगा. समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले, इन कानूनों का हवाला देकर भी विरोध जता रहे हैं. वैसे देखा जाए तो नरेंद्र मोदी सरकार, समान नागरिक संहिता के रास्ते में आने वाली मुश्किलों को कई साल पहले से ही खत्म करने की कोशिश करती रही है. इसमें नरेंद्र मोदी सरकार ने UCC में शामिल होने वाले तीन बिंदुओं की जटिलताओं को पहले ही खत्म कर दिया. जैसे...

तीन तलाक को गैर-कानूनी बनाया गया.
सभी धर्मों के लिए विवाह की न्यूनतम उम्र को एक समान रखने का विधेयक तैयार हो चुका है, जो संसद की स्थायी समिति के पास है.
विवाह के पंजीकरण के बारे में आंशिक कदम उठाया जा चुका है. इसके तहत सभी धर्मों के अप्रवासी भारतीयों के विवाह पंजीकरण को अनिवार्य करने का विधेयक, स्टैंडिंग कमेटी के पास विचाराधीन है.

समान नागरिक संहिता को लेकर प्रधानमंत्री ने जब अपने विचार रखे, तो इसके बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सबसे ज्यादा परेशान नजर आया. AIMPLB के महासचिव मौलाना मुहम्मद फज़ल उर रहीम मुजद्दिदी के मुताबिक देश में मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा, इसे प्रभावित करने वाले किसी भी कानून को रोकना ही असली उद्देश्य है. AIMPLB ने समान नागरिक संहिता का विरोध जताया है, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के मुताबिक ये कानून देशहित में नहीं है.

देश की जरूरत है UCC

समान नागरिक संहिता इस देश की जरूरत है. ये देश के हर वर्ग, धर्म, जाति के लिए कुछ मुद्दों पर समान नियम की बात करता है जिससे पूरे समाज में एकरूपता आएगी. बहुत से लोग समान नागरिक संहिता का विरोध केवल ये तर्क देकर करते हैं कि भारत सर्वधर्म समभाव और अनेकता में एकता वाला देश है. यहां पर धार्मिक परंपराओं में विविधता है इसीलिए उनका मानना है कि 'समान नागरिक संहिता' जैसा कानून, इस सामाजिक ढांचे को खराब करेगा.

अगर हम समान नागरिक संहिता के कुछ खास टॉपिक को उठाएं तो इसमें शायद कुछ भी गलत ना लगे, जैसे...

- समान नागरिक संहिता में शादी की एक निश्चित उम्र सीमा तय की जा सकती है, जो सभी धर्मों पर लागू होगी. अभी तक हिंदू मैरिज एक्ट में लड़कियों की शादी की उम्र 18 वर्ष, और लड़कों की शादी की उम्र 21 वर्ष है. जबकि वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत लड़कियों की शादी की उम्र मासिक धर्म की शुरुआत के बाद मान ली जाती है. इसी तरह से लड़कों की शादी की उम्र 13-15 वर्ष के बाद मान ली जाती है.

अब आप बताइए एक देश में दो अलग-अलग समुदायों के लिए शादी की उम्र में इतना अंतर क्यों है. अगर हम परंपराओं के नजरिए से अलग होकर देखें, तो क्या 12-13 वर्ष की उम्र की बच्ची की शादी होनी चाहिए? क्या ऐसे नियमों का पालन इसलिए होना चाहिए, क्योंकि पुरातन धार्मिक नियम ऐसा कहते हैं?

अगर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मुद्दे पर UCC का विरोध करता है, तो क्या वो बाल विवाह का समर्थन नहीं कर रहे हैं? वर्ष 1929 में बाल विवाह को कानूनी तौर पर पहली बार प्रतिबंधित किया गया था. भारत में भी बाल विवाह कानून के तहत दोषियों को 2 साल की सज़ा हो सकती है. ऐसा विवाह भी गैर कानून घोषित किया जाता है लेकिन ये नियम मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत शादी करने वालों पर लागू नहीं होता है. क्या ये सही है कि एक देश में बाल विवाह जैसे मुद्दे पर दो अलग-अलग नियम बना दिए गए हैं.

इसे आप देश की विंडबना कहिए कि शादी को लेकर दो अलग-अलग समुदायों के लिए देश का कानून अलग तरीके से व्यवहार करता है. जैसे अगर कोई 24 वर्ष का हिंदू पुरुष, 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की से विवाह, और संबंध रखने का दोषी हो तो, उसे बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत सज़ा हो सकती है, इसके अलावा उस पर POCSO के तहत भी मामला दर्ज किया जा सकता है.

ठीक यही अगर कोई 24 वर्षीय मुस्लिम पुरुष, 18 वर्ष से कम की मुस्लिम लड़की से विवाह और संबंध रखता है, तो उस पर ना बाल विवाह अधिनियम लागू होगा, ना ही POCSO लगेगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के हिसाब से यौन परिपक्वता यानी Puberty की अवस्था में एक मुस्लिम लड़की शादी कर सकती है. यही नहीं लड़का-लड़की की आपसी सहमति की सूरत में उस पर POCSO भी नहीं लगेगा. 

ठीक इसी तरह से माना जा रहा है कि समान नागरिक संहिता में बहुविवाह पर रोक लगेगी. यानी एक व्यक्ति, कई महिलाओं से शादी नहीं कर पाएगा ना ही एक महिला कई पति रख पाएंगी लेकिन हम आपको अब इससे जुड़ा एक रोचक तथ्य बताते हैं.

'हिंदू मैरिज एक्ट' में बहुविवाह प्रतिबंधित है यानी एक व्यक्ति, एक से ज्यादा पत्नियां नहीं रख सकता है. लेकिन वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ कहता है, कि एक मुस्लिम पुरुष, 4 पत्नियां तक रख सकता है. यानी वो 4 शादियां कर सकता है लेकिन इसमें एक ट्विस्ट ये है कि एक मुस्लिम महिला, चार मुस्लिम पुरुषों से शादी नहीं कर सकती है. यानी वो एक साथ चार पति नहीं रख सकती है.

अब अगर इसमें कोई ये तर्क दे कि धार्मिक परंपराओं के तहत ऐसा किया जा रहा है. ये क्या ऐसा नियम खत्म नहीं होना चाहिए? अगर इस नियम को धार्मिक जरूरत भी मान लें, तो क्या ये महिलाओं के साथ भेदभाव नहीं है. क्या इस नियम के तहत पुरुषों को महिलाओं के मुकाबले ज्यादा अधिकार नहीं दिए गए हैं?

केवल शादी से जुड़े नियम ही नहीं, तलाक से जुड़े नियम भी अलग-अलग समुदायों के पर्सनल लॉ में अलग-अलग है। नरेंद्र मोदी सरकार ने वैसे तो तीन तलाक के खिलाफ कानून लाकर, मुस्लिम महिलाओँ के साथ कुछ न्याय किया है. लेकिन तलाक के बाद हलाला और इद्दत से नियमों के लिए भी समान नागरिक संहिता आना जरूरी है. ऐसे क्यों है, इससे जुड़ा एक रोचक तथ्य बताते हैं.

हिंदू मैरिज एक्ट में तलाक के लिए कानूनी प्रक्रिया का पालन करना होता है, जिसमें तलाक के बाद पुरुष और महिला, कहीं भी अन्य जगह तुरंत विवाह करने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं. तलाक होने के बाद आमतौर पर किसी तरह का कोई बंधन नहीं रहता है. लेकिन वहीं अगर हम केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ की बात करें तो तीन बार तलाक कहकर, महिलाओं को तलाक देने की कुप्रथा, कानून बनाकर समाप्त कर दी गई. लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तलाक के बाद महिला अगर दोबारा अपने पति से दोबारा विवाह करना चाहे, तो उससे पहले उसे किसी अन्य व्यक्ति से विवाह और संबंध रखने होते हैं, जिसे हलाला कहा जाता है.

विडंबना ये है कि ये नियम केवल मुस्लिम महिलाओं पर ही लागू होते हैं, ये पुरुषों पर लागू नहीं होते हैं. अगर कोई पुरुष, अपनी तलाकशुदा पत्नी से दोबारा विवाह करना चाहे, तो इस केस में भी महिला को ही हलाला से गुजरना पड़ता है, पुरुष को कुछ नहीं करना होता. क्या महिलाओं के साथ ये भेदभाव नहीं है.

इसी तरह से मुस्लिम पर्सनल लॉ में 'इद्दत' का एक नियम है. 'इद्दत' वो नियम है, जो किसी महिला के पति की मृत्यु के बाद या तलाक के बाद, महिलाओं के लिए ही बनाया गया है. नियम के मुताबिक महिला को अपने पति की मृत्यु या तलाक के बाद, कुछ समय तक 'एकांतवास' में रहना होता है.

इस नियम के तहत मुस्लिम महिला पति की मृत्यु या तलाक हो जाने के करीब 40 दिनों तक, किसी अन्य के साथ विवाह नहीं कर सकती है. यही नहीं अलग-अलग परिस्थितियों में, ये समय सीमा बढ़कर 1 वर्ष तक भी हो जाती है. जबकि 'इद्दत' जैसा नियम, मुस्लिम पुरुषों पर लागू नहीं होता है. यहां भी इस नियम को बनाकर महिलाओं के साथ भेदभाव जैसी स्थिति है. 

हम यहां आपको बता दें कि हम सभी धर्मों और उनकी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हैं. यहां इस तरह के उदाहरण देकर, हम ये समझाना चाहते हैं कि समय के साथ-साथ सामाजिक रूप से बदलाव की जरूरत सभी को है. बाल विवाह और सती प्रथा जैसे नियम, किसी दौर में समाज की मान्यताओं का प्रतीक थे. उस दौर में सती होने वाली महिलाओं को देवी का दर्ज दिया जाता था लेकिन समय के साथ लोगों को ये अहसास हो गया कि किसी की मृत्यु के बाद उसकी चिता पर उसकी पत्नी का जान दे देना, कोई दैवीय प्रथा नहीं, बल्कि आत्महत्या के समान है. ये ऐसी कुप्रथा थी, जिसको समाज ने धीरे-धीरे नकार दिया.

आज सती प्रथा जैसी कोई घटना नहीं होती है और बाल विवाह जैसे मामलो में कानूनी रूप से सज़ा मिलती है. समान नागरिक संहिता, देश के नागरिकों के लिए बनाया जाने वाला एक ऐसा नियम होगा, जो सभी समुदायों के पुरुष और महिलाओं के समान अधिकार सुनिश्चित करेगा और यकीन मानिए, आने वाले भविष्य में सभी इसको सहर्ष स्वीकार करेंगे और इस बड़े सामाजिक बदलाव का हिस्सा बनेंगे.

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