अलीगढ़ का वो जमींदार,‌ जिसने लगाया एशिया का पहला प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ में पहले उर्दू अखबार से क्रांति लाई
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अलीगढ़ का वो जमींदार,‌ जिसने लगाया एशिया का पहला प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ में पहले उर्दू अखबार से क्रांति लाई

Lucknow News: भारत में प्रिंटिंग प्रेस यूं अंग्रेंजों ने सबसे पहले 1556 में शुरू कर दी थी. लेकिन किताबों को सस्ते दाम में आमजन की पहुंच तक लाने के श्रेय अलीगढ़ में जन्मे मुंशी नवल किशोर को जाता है. इसलिए उन्हें भारतीय प्रिंटिंग का प्रिंस भी कहा जाता है. 

अलीगढ़ का वो जमींदार,‌ जिसने लगाया एशिया का पहला प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ में पहले उर्दू अखबार से क्रांति लाई

Lucknow News: आज लखनऊ की सड़कों पर शायद ही कोई ऐसा हो, जिसे मुंशी नवल किशोर का नाम याद हो. हालांकि, यूपी की राजधानी में उनके नाम पर एक सड़क जरूर है. और वो नाम है मुंशी नवल किशोर. मुंशी नवल किशोर को भारतीय प्रिंटिंग का प्रिंस भी कहा जाता है. मुंशी नवल किशोर ने एशिया का सबसे पुराना छापाखाना लखनऊ में स्थापित किया था. यह केवल एक प्रिंटिंग प्रेस नहीं था, बल्कि ज्ञान और साहित्य का एक अद्भुत संगम था, जिसने ब्लैक एंड व्हाइट से लेकर रंगीन किताबें छापीं. और किताबें जो कभी ऊंचे दाम की वजह से संपन्न वर्ग तक ही सीमित थी आम लोगों के हाथ में भी पहुंच सकीं. 

भारतीय प्रिंटिंग की शुरुआत में नवल किशोर का योगदान  
भारत में प्रिंटिंग का इतिहास 1556 में शुरू हुआ, जब पुर्तगाली मिशनरियों ने गोवा में पहला प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया. हालांकि, इसके बाद 200 वर्षों तक भारतीयों ने इस क्षेत्र में कदम नहीं रखा. 19वीं सदी के मध्य में जब भारतीयों ने प्रिंटिंग प्रेस शुरू किए, तो मुंशी नवल किशोर ने इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया.  

नवल किशोर ना तो लेखक थे और ना ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी. फिर भी, उन्होंने किताबों को लिखने, छापने और लोगों तक पहुंचाने का ऐसा काम किया, जिसने उन्हें इस क्षेत्र का अग्रदूत बना दिया.  

किताबें और ज्ञान को आमजन तक पहुंचाया
मुंशी नवल किशोर का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने किताबों को कम कीमत में छापकर लोगों तक पहुंचाया. उनकी प्रेस ने मुख्य रूप से हिंदी और उर्दू में किताबें छापीं, जो उस समय की प्रमुख भाषाएं थीं. उनकी प्रेस का नाम "नवल किशोर प्रेस" था, जो उस समय देश की पहली बड़ी और आधुनिक प्रिंटिंग प्रेस थी.  

अलीगढ़ के जमींदार परिवार से ताल्लुक  
नवल किशोर का जन्म अलीगढ़ के सासनी इलाके के एक संपन्न भार्गव जमींदार परिवार में हुआ था. उनके परिवार की जड़ें मुगल दरबार से जुड़ी थीं और घर में संस्कृत व फारसी पढ़ने की परंपरा थी. उन्होंने 1852 में आगरा कॉलेज में दाखिला लिया और अंग्रेजी व फारसी की पढ़ाई की. 

प्रिंटिंग के सफर की शुरुआत  
1854 में, नवल किशोर ने लाहौर के "कोह-ए-नूर प्रेस" में नौकरी की. वहां उन्होंने उर्दू अखबार "कोह-ए-नूर" के लिए काम किया. यहीं से उन्होंने प्रिंटिंग का बारीकी से अध्ययन किया और इसे अपना करियर बनाने का फैसला किया.  

1858 में वह लखनऊ पहुंचे और यहां "अवध अखबार" के नाम से उत्तर भारत का पहला उर्दू अखबार शुरू किया. उनके काम को देखते हुए ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें बड़े पैमाने पर प्रिंटिंग के ठेके दिए. 1860 में उन्हें भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) का उर्दू में अनुवाद छापने का जिम्मा मिला.  

साहित्य से लेकर धार्मिक ग्रंथों तक  
नवल किशोर ने साहित्यिक किताबों के साथ-साथ धार्मिक ग्रंथ भी छापे. उन्होंने मिर्जा गालिब की किताबें प्रकाशित कीं और 1869 में नजीर अहमद का लिखा पहला उर्दू उपन्यास छापा. इसके अलावा, उन्होंने कुरान का सस्ता संस्करण छापा, जो सिर्फ डेढ़ रुपये में बिकता था. हिंदी साहित्य में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा. उनकी प्रेस ने तुलसीदास की "रामचरित मानस" और सूरदास की "सूर सागर" जैसी किताबें प्रकाशित कीं. 

1873 में "रामचरित मानस" की 50,000 प्रतियां बिकीं, जो उस समय एक बड़ी उपलब्धि थी. उन्होंने तुलसीदास की कृतियों का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किया. 1870 के दशक के अंत तक, नवल किशोर प्रेस 3,000 से अधिक किताबें छाप चुकी थी, जिनमें हिंदी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, मराठी और बांग्ला की किताबें शामिल थीं.  

प्रिंटिंग को व्यवसायिक बनाया  
नवल किशोर ने प्रिंटिंग को केवल साहित्य और ज्ञान तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे एक व्यावसायिक रूप भी दिया। उन्होंने अपनी प्रेस की शाखाएं कानपुर, गोरखपुर, पटियाला और कोलकाता तक खोलीं. यहां तक कि लंदन में भी एक एजेंसी स्थापित की. उनकी प्रेस न केवल आधुनिक तकनीक से लैस थी, बल्कि मार्केटिंग और एडवरटाइजिंग में भी आगे थी.  

निधन के बाद प्रेस का पतन
1895 में नवल किशोर का निधन हो गया. उनके जाने के बाद भी उनकी प्रेस ने कुछ समय तक सफलता पाई, लेकिन धीरे-धीरे उत्तराधिकारियों के बीच बंटने के कारण इसका पतन शुरू हो गया.

सम्मान के रूप में डाक टिकट जारी   
मुंशी नवल किशोर ने भारतीय प्रिंटिंग को एक नया आयाम दिया. उनकी वजह से उस दौर के लोग किताबों से जुड़ पाए और पढ़ने की आदत विकसित हुई. उनके योगदान को सम्मानित करने के लिए भारत सरकार ने उनके नाम पर डाक टिकट भी जारी किया. आज, उनका नाम भले ही लखनऊ की सड़कों पर गुम हो रहा हो, लेकिन भारतीय प्रिंटिंग के इतिहास में उनका योगदान हमेशा याद किया जाएगा.  

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