कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर का वध किया था. इसकी प्रसन्नता में सभी देवता भगवान शिव की नगरी काशी पहुंचे. गंगा स्नान किया और उसके बाद दीप दान कर खुशियां मनाई. इसी दिन से पृथ्वी पर देव दिवाली मनाने की परंपरा का शुरुआत हुआ.
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Dev diwali 2023: कार्तिक पूर्णिमा का त्योहार त्रिपुरासुर पर भगवान शिव की जीत की खुशी में मनाया जाता है. इस दिन सारे देवता दीपदान करते हैं. यह देवताओं की दिवाली कहलाती है. कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान- दान का विशेष महत्व है. कार्तिक पूर्णिमा का काशी से खास संबध है. इस दिन काशी में घाटों को दीपों से रौशन करते हैं. इस वर्ष कार्तिक पूर्णिमा का व्रत उदयतिथि के अनुसार 27 नवंबर को रखा जाएगा. इस तिथि पर दीपदान संघ्यादान में किया जाता है. इसलिए देव दिवाली 26 नवंबर को मनाई जाएगी.
देव दिवाली की पौराणिक कथा
पौराणिक कथाओं की माने तो इस दिन ही भगवान शंकर के बड़े बेटे कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया था. पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए तारकासुर के तीनों बेटे तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली ने प्रण लिया कि वह अपने पिता के हत्यारे से बदला लेंगे. फिर इन तीनों ने कठोर तप कर बह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरत्व का वरदान मांगा लेकिन ब्रह्मा ने उन्हें ये वरदान देने से मना कर दिए. आगे चलकर इन तीनों भाईयों को त्रिपुरासुर के नाम से जाना गया.
बह्मा जी ने क्या वरदान दिया
त्रिपुरासुर ने वरदान मांगा कि वह निर्मित तीन पुरिया जब अभिजित नक्षत्र में एक पंक्ति में हों और कोई क्रोधजित अत्यंत शांत होकर असंभव रथ पर सवार होकर असंभव बाण मारना चाहे, तब ही हमारी मृत्यु हो बह्मा जी ने तथास्तु कह दिया. इसके बाद से त्रिपुरासुर इतने ज्यादा बलशाली हो गये कि वह सत्परुषों के अलावा देवताओं पर भी अत्याचार करने लगे.
महादेव ने किया त्रिपुरासुर का वध
अंत में जब सभी देवता परेशान हो गये, तो वह भगवान शिव के शरण में गये और अपनी- अपनी व्यथा सुनाई. तब भोलेनाथ ने अपनी आधी शक्ति देवताओं को दी ताकि वह त्रिपुरासुर का वध कर सकें. लेकिन देवाओं से भगवान शंकर की आधी शक्ति भी नहीं संभाली गई. तब स्वंय शंभू ने त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया. इसके बाद देवताओं ने अपना आधा बल महादेव को दिया तब भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर का बध किया था.
कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर का वध किया था. इसकी प्रसन्नता में सभी देवता भगवान शिव की नगरी काशी पहुंचे. गंगा स्नान किया और उसके बाद दीप दान कर खुशियां मनाई. इसी दिन से पृथ्वी पर देव दिवाली मनाने की परंपरा का शुरुआत हुआ.