Champaran News: इस अनोखे अंदाज में मनाते है आदिवासी होली, आप भी हो जाएंगे दीवाने
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Champaran News: इस अनोखे अंदाज में मनाते है आदिवासी होली, आप भी हो जाएंगे दीवाने

Bihar News: होलिका दहन की आग से घर में चूल्हा जलाया जाता है और उसकी आग से पुआ पकवान बनाने की प्रथा वर्षों से चली आ रही है. वहीं साल के नई फसल के स्वागत के रूप में गेहूं की बाली से की जाती है और उनके परंपरागत पूजा होती चली आ रही है.

Champaran News: इस अनोखे अंदाज में मनाते है आदिवासी होली, आप भी हो जाएंगे दीवाने

चम्पारण: चम्पारण के आदिवासी थारू शिवालिक की पहाड़ियों के बीच तलहटी में फैले वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के घने जंगलों किनारे बसे हैं. होली पर्व को ये अनोखे अंदाज में मनाते चले आ रहे हैं, जो इको फ्रेंडली होली है. दरअसल, थारू जनजाति के लोग बिना मांस मछली के पर्व को अधूरा मानते हैं. माना जाता है कि होली का रंग फीका नहीं पड़े इसलिए मांस, मछली हर घर में बनाना और खाना प्रसिद्ध है.

नेपाल से सटे तराई में बसे आदिवासी बहुल इलाके के थारू जनजाति के लोग रंगों का होली के त्योहार को अलग ही अंदाज में सेलिब्रेट करते हैं. यहां होलिका दहन की आग से घर में चूल्हा जलाया जाता है और उसकी आग से पुआ पकवान बनाने की प्रथा वर्षों से चली आ रही है. वहीं साल के नई फसल के स्वागत के रूप में गेहूं की बाली से की जाती है और उनके परंपरागत पूजा होती चली आ रही है.

दरअसल, हिंदी कैलेंडर के अनुसार चैत्र माह से नए साल का आगाज होता है. लिहाजा नये अनाज की पूजा करने के बाद उनके यहां के आदिवासी सेवन करते हैं और फिर होली का पर्व मनाते हैं. इतना ही नहीं चैता के बगैर होली का रंग फीका रह जाता है. लिहाजा आदिवासी हफ्ते भर पहले से घर-घर जाकर चहका, चौताल और चैतवाल गाते हैं. होली के दिन सुबह धुरखेल खेला जाता है. जिसकी शुरुआत चहका से होती है. चहका गाते हुए ग्रामीण सड़कों पर धुरखेल खेलते हैं और फिर दोपहर में रंग अबीर खेलने के बाद गांव में लोगों के घर जाकर चैता गाते हैं.

थारू जनजाति के महेश्वर काजी बताते हैं कि होली की खुमारी पहले से आदिवासी लोग पर चढ़ जाती है. होली के एक दिन पूर्व होलिका दहन की जाती है. जिसमें गेहूं की बालियों को भुना जाता है और होली के दिन धुरखेल खेलने के बाद नहा धोकर भुने हुए गेहूं के साथ आम का मंजर और नीम का पत्ता गुड़ के साथ सेवन करने की परंपरा है. बताया जा रहा है कि होली से पूर्व यहां गांव की कीर्तन मंडली रात में अलग-अलग लोगों के घर के बाहर चहका, चौताल और चैतवाल गाते हैं जिसे फागुआई भी बोला जाता है.

आदिवासी ग्रामीण अपने सभी पूजा पाठों में प्रकृति पूजा को काफी महत्व देते हैं. लिहाजा उनका उद्देश्य भी पर्यावरण को संरक्षित करना रहता है. जिसका मकसद पर्यावरण को सुरक्षित रखना और प्राचीन संस्कृति को जीवित रखना है. आदिवासी ग्रामीण नए साल में पैदा होने वाले अनाज की पूजा करने के बाद इसका सेवन करते हैं और फिर होली का पर्व खास अंदाज में मनाते हैं. इधर अभी से ही होली की खुमारी जारी है आस पास के बाज़ी व अन्य समुदाय के लोग 'अवध में होली खेले रघुवीरा और रंग बरसे भींगे चुनर वाली रंग बरसे' गीतों के साथ रंग ग़ुलाल उड़ा रहे हैं तो आदिवासी चहका व चैता के साथ फगुआई गाने बजाने में जुटे हैं.

इनपुट- इमरान अजीजी

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