कोरोना मरीजों में ब्लैक फंगस की गुत्थी सुलझी! एम्स के स्टडी में मुख्य वजह का चला पता
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कोरोना मरीजों में ब्लैक फंगस की गुत्थी सुलझी! एम्स के स्टडी में मुख्य वजह का चला पता

देश में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान कई लोगों को ब्लैक फंगस (म्यूकर माइकोसिस) से जूझना पड़ा, जिसमें कुछ लोगों की आंखों और जबड़ों तक सर्जरी करनी पड़ी.

कोरोना मरीजों में ब्लैक फंगस की गुत्थी सुलझी! एम्स के स्टडी में मुख्य वजह का चला पता

देश में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान ब्लैक फंगस (म्यूकर माइकोसिस) के बढ़ते मामलों ने चिंता पैदा कर दी थी. कई लोगों को इस जानलेवा बीमारी से जूझना पड़ा, जिसमें कुछ लोगों की आंखों और जबड़ों तक सर्जरी करनी पड़ी. अब एम्स दिल्ली के डॉक्टरों ने एक अध्ययन के जरिए ब्लैक फंगस के बढ़ने की वजह का पता लगाया है.

अध्ययन के मुताबिक, माइकोबायोम में बदलाव के कारण ब्लैक फंगस के मामले बढ़े थे. माइकोबायोम शरीर या किसी अंग में पहले से मौजूद माइक्रो-ऑर्गेनिज्म जैसे फंगस का समुदाय होता है. एम्स के मेडिसिन विभाग के वरिष्ठ डॉक्टर अनिमेष रे ने बताया कि कोरोना के बाद जिन लोगों को ब्लैक फंगस हुआ, उनमें माइकोबायोम में इस तरह बदलाव हुआ कि कुछ खास तरह के फंगस इन मरीजों में ज्यादा तेजी से बढ़ने लगे.

पहले यह माना जाता था कि ज्यादा स्टेरॉयड वाली दवाएं, ऑक्सीजन थेरेपी और बिना मास्क के घूमना ही इस बीमारी के मुख्य कारण थे. लेकिन डॉक्टरों के अध्ययन में पता चला कि ब्लैक फंगस से पीड़ित मरीजों के ऊपरी श्वसन तंत्र और नाक के म्यूकोसा में कुछ तरह के फंगस पहले से ही ज्यादा मात्रा में मौजूद थे.

शोध के लिए तीन समूहों में बांटे गए मरीज
एम्स के डॉक्टरों ने अपने अध्ययन में मरीजों को तीन ग्रुप में बांटा. पहले ग्रुप में कोरोना के बाद ब्लैक फंगस से पीड़ित मरीज थे. दूसरे ग्रुप में कोरोना के गंभीर मरीज और तीसरे में हेल्दी मरीज शामिल थे. डॉक्टरों ने पहला अध्ययन मरीजों के भर्ती होने के समय किया था. दूसरा अध्ययन इसके सात दिन बाद किया गया, जब तक उन्हें स्टेरॉयड जैसी दवाएं नहीं दी गई थीं. डॉक्टरों ने पाया कि स्टेरॉयड शुरू करने से पहले ही ब्लैक फंगस वाले मरीजों के माइकोबायोम में काफी बदलाव आ चुका था.

अध्ययन के निष्कर्ष
इस अध्ययन से पता चलता है कि माइकोबायोम में बदलाव ब्लैक फंगस के खतरे को बढ़ा सकता है. यह बदलाव कोरोना संक्रमण के बाद हो सकता है. डॉक्टरों का कहना है कि इस अध्ययन से ब्लैक फंगस के रिस्क वाले मरीजों की पहचान करने और उन्हें बेहतर उपचार देने में मदद मिलेगी.

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