चेन्नई में पूर्व पीएम वी पी सिंह की प्रतिमा का अनावरण हुआ. खास बात यह थी कि इस मौके पर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी मौजूद रहे हैं. यहां पर हम समझने की कोशिश करेंगे कि दोनों की जुगलबंदी के मायने क्या हैं.
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सियासत में यह जरूरी नहीं है कि कोई भी कदम सीधे तौर पर किसी राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाए. कुछ कदम ऐसे भी होते हैं जो संदेश देने के लिए किए जाते हैं. पूर्व पीएम वी पी सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं. लेकिन उनकी चर्चा एक बार फिर राजनीतिक गलियारे में हो रही है. वैसे तो वी पी सिंह का रिश्ता देश के सबसे बड़े सूबों में से एक यूपी से है. लेकिन उनकी प्रतिमा का अनावरण तमिलनाडु में हुआ. इस खास कार्यक्रम की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें यूपी के पूर्व सीएम और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव भी शामिल हो रहे हैं. यहां पर हम समझने की कोशिश करेंगे कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और एम के स्टालिन की जुगलबंदी के मायने क्या हैं.
वी पी सिंह की प्रतिमा का अनावरण
चेन्नई के प्रेसीडेंसी कॉलेज में वी पी सिंह की प्रतिमा के अनावरण मौके पर अखिलेश यादव के शामिल होने के सियासी मायने क्या हैं.इसके लिए हमें करीब तीन दशक पीछे चलना होगा. आपको याद होगा सामाजिक न्याय की आवाज को धार देने के लिए 1990 में तत्कालीन पीएम वी पी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया था. मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किए जाने के बाद सरकारी नौकरियों में पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसद आरक्षण को मंजूरी मिली. वी पी सिंह के उस कदम को बीजेपी की कमंडल राजनीति की काट के तौर पर देखा गया. सियासी तौर पर वी पी सिंह को उसका कितना फायदा मिला वो जगजाहिर है. लेकिन यूपी और बिहार की राजनीति में पहली बार बड़ी जाति वाले नेताओं को सीधे चुनौती मिली.
जब यूपी-बिहार की सियासत बदल गई
यूपी और बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव हुआ. एक तरफ मुलायम सिंह यादव तो दूसरी तरफ बिहार में लालू प्रसाद यादव की राजनीति को पंख लगा. वहीं सुदूर दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में एम करुणानिधि को जबरदस्त फायदा हुआ. बता दें कि दक्षिण की राजनीति में एम करुणानिधि खुद को शोषित समाज के पहरुआ के तौर पर पेश किया करते थे. अब ना तो भारत की सियासत में वी पी सिंह, ना ही एम करुणानिधि और ना ही मुलायम सिंह सशरीर मौजूद हैं. वी पी सिंह का परिवार का सियासत से नाता नहीं है लेकिन मुलायम सिंह यादव और एम करुणानिधि की विरासत को अखिलेश यादव और एम के स्टालिन आगे बढ़ा रहे हैं.
सामाजिक न्याय का नारा बुलंद
जातीय जनगणना के मुद्दे पर इन दोनों दलों की आवाज मुखर है. और इसमें वी पी सिंह के प्रतिमा अनावरण को सियासी फसल काटने के नजरिए से देखा जा रहा है. लेकिन सवाल तो यही है कि अखिलेश यादव की वजह से स्टालिन को तमिलनाडु में कितना फायदा होगा. या स्टालिन की वजह से अखिलेश यादव को यूपी में कितना फायदा होगा. जानकार बताते हैं कि दरअसल वी पी सिंह की प्रतिमा अनावरण के जरिए वो दो तरह के संदेश देना चाहते हैं. पहला तो यह कि वो सवर्ण समाज को संदेश देने की कोशिश में हैं कि वो उस शख्स का सम्मान कर रहे हैं जिसने देश के लिए में निजी फायदे को तिलांजलि दी. दूसरा यह कि सामाजिक न्याय की जिस लड़ाई का आगाज वी पी सिंह ने की थी उस लड़ाई को हम आगे बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे.
सवाल यह है कि वी पी सिंह की मूर्ति अनावरण से वाकई अखिलेश यादव या स्टालिन को फायदा मिलेगा. इस सवाल के जवाब में जानकार कहते हैं कि आप अखिलेश यादव की पीडीए मुहिम को देखें. उन्हें यह पता है कि अपने कोर वोटर्स के साथ साथ समाज के उस तबके को भी साथ लेकर चलना है जो अब बीजेपी का कोर वोट बैंक है. कुछ ऐसी ही कोशिश एम के स्टालिन की भी है, स्टालिन को भी इस बात का अंदाजा है कि जब तक वो अपने सामाजिक आधार को आगे नहीं बढ़ाएंगे राष्ट्रीय फलक पर पहचान बनाए रखने की चुनौती होगी.
मीटिंग के पीछे क्या है मकसद
अगर आप यूपी में स्टालिन की शक्ति या तमिलनाडु में अखिलेश यादव के प्रभाव को देखें तो वो नगण्य है, लेकिन अपने वोटर्स को यह संदेश दे ही सकते हैं कि सामाजिक न्याय की लड़ाई में दो अलग अलग राज्यों की बड़ी शख्सियतें एक साथ है. इसका बड़ा फायदा यह भी है कि वो इंडिया गठबंधन पर भी दबाव बना सकते हैं. हाल ही में आपने देखा होगा कि मध्य प्रदेश में टिकट बंटवारे के मुद्दे पर किस तरह से समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के नेता एक दूसरे के आमने सामने आ गए थे. सियासत में दबाव की राजनीति का अपना अलग मतलब होता है, किसी बड़े मुद्दे को लेकर समान विचारधार के दल एक दूसरे के करीब तो आ सकते हैं. लेकिन राजनीति में रिश्ते तो परिवर्तनशील होते हैं लिहाजा आगे की संभावनाओं को भी ध्यान में रखकर सियासी गुणा गणित होती है. अगर बात समाजवादी पार्टी की करें तो क्षेत्रीय स्तर पर उसे आगे के चुनावों में बीजेपी को ही चुनौती देना है, इसी तरह की स्थिति डीएमके के सामने भी है, ऐसी सूरत में एम के स्टालिन और अखिलेश यादव इंडिया गठबंधन से यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि सामाजिक न्याय की लड़ाई में वो बीजेपी के हर एक हथकंडे का विरोध करेगी तो दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन के सबसे बड़े दल कांग्रेस को भी यह संदेश देने की कवायद है कि हम छोटे जरूर हैं लेकिन छोटा मत समझना.