Osho Rajneesh: विवादित जीवन और रहस्यमयी मौत वाले ओशो रजनीश 19 जनवरी, 1990 को दुनिया छोड़ गए थे. ओशो की 34वीं पुण्यतिथि पर उनके दर्शन, उनकी विरासत और उनकी जिंदगी और मौत से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में जानने की कोशिश करते हैं.
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Osho Rajneesh Life And Death : दार्शनिक ओशो का नाम सामने आते ही दुनिया के सामने उन्हें भगवान मानने वाले फॉलोवर और खलनायक मानने वाले विरोधी दोनों धड़ों की दलीलें आ जाती है. हालांकि, इन दोनों से ही बेफिक्र ओशो ने अपनी जिंदगी को धरती पर एक गेस्ट की तरह बताया था. मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसंबर 1939 को जैन परिवार में जन्मे ओशो ने 19 जनवरी, 1990 को पुणे में आखिरी सांस ली थी. आइए, उनके विवादित जीवन और रहस्यमयी मौत के बारे में विस्तार से जानने की कोशिश करते हैं.
चंद्रमोहन जैन कैसे बन गए ओशो बने, जानिए शुरुआत से अंत तक पूरी कहानी
पिता बाबूलाल और मां सरस्वती की 11 संतानों में सबसे बड़े बेटे ओशो के बचपन का नाम चंद्रमोहन जैन था. सात साल की उम्र तक वह अपनी नानी के पास रहे. आगे चलकर चंद्रमोहन जैन 1960 के दशक में आचार्य रजनीश और भगवान रजनीश के रूप में प्रसिद्ध हुए. उसके बाद 1989 में वह दुनिया भर में ओशो के नाम से चर्चित हो गए. ओशो लैटिन भाषा का शब्द है. इसे ओशैनिक शब्द से लिया गया है. इसका मतलब है सागर में विलीन होना. उनका संस्थाएं भी ओशो के नाम से ही आगे बढ़ीं.
तोहफे में मिली थीं 96 Rolls Royace, गिनती को 365 तक ले जाने का था मकसद
ओशो ने बतौर लेक्चरर अपने करियर की शुरुआत की थी. कामुकता पर नशे को लेकर उनके बेबाक विचारों ने दुनिया भर में चर्चित कर दिया. तमाम जगहों पर उन्हें सराहा गया तो कई देशों में उन्हें काफी बदनाम किया गया. हालांकि, ओशो के मानने वालों यानी शिष्यों में कभी कमी नहीं आई. कहा जाता है कि काफी महंगी घड़ियां और लेटेस्ट डिजाइन के कपड़े के शौकीन ओशो के पास शिष्यों से तोहफे में मिलीं 90 से ज्यादा Rolls Royace कारें थी. उन्होंने इसकी संख्या 365 करने की इच्छा भी जताई थी.
कैसे सुर्खियों में आए रजनीश, मुंबई और पुणे के रास्ते अमेरिका जाकर बने ओशो
फिलॉसफी के लेक्चरर के तौर पर दुनिया के सामने आए चंद्रमोहन जैन महात्मा गांधी की विचारधारा, समाजवाद और संस्थागत धर्म की आलोचना कर विवादों में आ गए. साल 1970 में रजनीश मुंबई गए और शिष्यों को ‘नव संन्यास’ की शिक्षा दी. इसके साथ ही उन्होंने आध्यात्मिक गुरु के रूप में काम करना शुरू कर दिया. साल 1974 में उन्होंने पुणे के कोरेगांव पार्क में इंटरनेशनल मेडिटेशन रिसॉर्ट को स्थापित किया. यहां बड़ी संख्या में विदेशी भी आने लगे थे. इसके चलते साल 1977 के आसपास उनकी सरकार से खटपट भी हो गई थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और रजनीश एक-दूसरे को पसंद नहीं करते थे.
खुद को अमीरों का गुरु कहने लगे थे ओशो, ओरेगॉन में शिष्यों ने बनाई टाउनशीप
इसको देखते हुए साल 1980 में रजनीश अमेरिका गए. अमेरिका के ओरेगॉन स्टेट में उनके शिष्यों ने मिलकर लगभग 65 हजार एकड़ बंजर जमीन पर पूरा रजनीशपुरम ही बसा दिया. तीन साल में ही इस कम्यून में लगभग 7000 से अधिक नागरिक रहने लगे थे. फायर ब्रिगेड, पुलिस, रेस्टोरेन्ट, शॉपिंग मॉल, टाउन हाउस, 42,000 फीट लम्बी हवाई पट्टी, सार्वजनिक बस सेवा के अतिरिक्त, सीवेज प्लांट और जलाशय जैसी सारी आधारभूत सुविधाओं के कारण यह शहर चर्चा में आ गया. तब ओशो खुद को अमीरों का गुरु कहने लगे थे.
अमेरिका में ओशो की गिरफ्तारी फिर देश निकाला, दोबारा बंजर हुआ रजनीशपुरम
इसी दौरान बायोटेरर केस में ओशो की सेक्रेटरी आनंद शीला को सजा मिलने के बाद अमेरिका प्रशासन ने रजनीशपुरम और ओशो पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया था. अमेरिका के गुयाना में साल 1979 में हुए जोन्सटाउन हादसे के बाद वहां की सरकार ऐसी कोशिशों को संदेह से देखती थी. प्रवासी कानूनों को तोड़ने समेत करीब 35 आपराधिक मामलों में ओशो को गिरफ्तार कर लिया गया. कई दिन जेल में बिताने के बाद ओशो को देशनिकाला दे दिया गया. रजनीशपुरम दोबारा बंजर हो गया और ओशो की अधिकतर रॉल्स रॉयस बेच दी गईं. अमेरिका के अलावा 21 देशों ने उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था.
भारत लौटने के पांच साल बाद ही ओशो की मौत, शक जताते हुए आईं कई थ्योरीज
आखिरकार 1985 में ओशो को भारत लौटना पड़ा. इसके बाद कुछ समय के लिए वह नेपाल भी गए. पांच साल बाद ही ओशो का निधन हो गया. महज 58 साल में हुई ओशो की मौत को अब तक संदेह की नजर से देखा जाता है. ओशो की मौत को लेकर कई थ्योरीज हैं. कहा जाता है अमेरिका की तत्कालीन सरकार ने ओशो को ‘थेलियम’ नाम का स्लो पॉइजन दिया था. इससे ओशो धीरे-धीरे मौत के शिकार हो गए. अमेरिका से लौटने के बाद ओशो ने खुद भी कहा था कि उनमें जहर के लक्षण हैं. उनका रेजिस्टेंस कमजोर हो गया है.
ओशो ने खुद जताया था अमेरिका में जहर दिए जाने का शक, मौत पर आई किताब
ओशो ने भारत लौटने के बाद कहा था कि जब उन्हें अमेरिका में गिरफ्तार किया गया, बिना कोई वजह बताये जमानत नहीं दी गई और फिर जहर के लक्षण सामने आए तो शक होना लाजिमी है. दूसरी थ्योरी में ओशो की मौत को प्रॉपर्टी के लिए हत्या करार दिया गया है. पत्रकार अभय वैद्य ने इस पूरे मामले पर “व्हू किल्ड ओशो” नाम की एक किताब लिखी है. इस किताब में ओशो की मौत की वजह साफ नहीं होने, अस्पताल नहीं ले जाने, बाहर से डॉक्टर बुलाने, उस पर दबाव बनाने, पोस्टमार्टम नहीं होने देने, जल्दबाजी में अंतिम संस्कार और ओशो की जाली वसीयत वगैरह को शक की वजह बताया गया है.
ओशो की मां और परिवार को समय पर नहीं दी जानकारी, कोर्ट में है जाली वसीयत का मामला
ओशो की संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई मौत के बाद उनके परिवार खासकर उनकी मां ने भी इसे स्वाभाविक मानने से इनकार किया था. परिवार को ओशो के बीमार होने की जानकारी तक नहीं दी गई थी. ओशो की सेक्रेटरी नीलम के मुताबिक जब उन्होंने ओशो की मां को उनकी मौत की बात बताई तो उन्होंने कहा, ''नीलम, उन्होंने उसे मार दिया.'' साल 2013 में अचानक ओशो की वसीयत सामने आई और उसकी प्रमाणिकता का मामला बॉम्बे हाई कोर्ट में विचाराधीन है.
हाई कोर्ट ने इससे पहले सरकारी जांच एजेंसी के कहने पर ओशो की वसीयत के मामले को ठुकरा दिया था. बाद में फोरेंसिक लैब की रिपोर्ट के बाद इसे दोबारा सुनना शुरू किया. पुणे सहित ओशो से जुड़े देश भर के कई संस्थानों पर आए दिन कुछ न कुछ विवाद सामने आते रहते हैं. वसंत जोशी ने ‘द ल्यूमनस रेबेल लाइफ़ स्टोरी ऑफ़ अ मैवरिक मिस्टिक’ ओशो की जीवनी लिखी है. सोशल मीडिया के दौर में ओशो के वीडियो और ऑडियो प्रवचन काफी देखे जा रहे हैं.