Aamir Khan Films: आमिर खान पहली ही फिल्म कयामत से कयामत तक में सुपर स्टार बन गए. लेकिन रिलीज से पहले राइटर-डायरेक्टर मंसूर खान सोच में पड़े थे कि क्लाइमैक्स कैसा हो. हैप्पी या ट्रेजिक? उन्होंने मन की सुनी और नतीजा आया बॉक्स ऑफिस पर हैप्पी एंडिंग.
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Aamir Khan In Qayamat Se Qayamat Tak: 1988 में आमिर खान ने फिल्म कयामत से कयामत में डेब्यू किया था. फिल्म ब्लॉक बस्टर साबित हुई. इसने टिकिट विंडो के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. फिल्म लगभग 50 हफ्ते तक थियेटर्स में लगी रही और यह उस समय भी एक बड़ी बात थी. फिल्म ने युवाओं को झकझोर दिया था और लोगों ने इसे कई-कई बार देखा. फिल्म का म्यूजिक तो सुपर हिट हुआ ही, आमिर खान और जूही चावला रातों-रात युवा दिलों की धड़कन बन. लेकिन विश्वास कीजिए कि फिल्म का नतीजा कुछ और होता, अगर फिल्म के क्लाइमेक्स में हीरो-हीरोइन जिंदा रह जाते.
सोच में पड़े थे मंसूर खान
फिल्म के राइटर-डायरेक्टर मंसूर खान ने यह फिल्म पूरी लिख ली थी, लेकिन क्लाइमेक्स में अटके हुए थे. उनके दिमाग में चल रहा था कि अंत में हीरो-हीरोइन को मारकर फिल्म को ट्रेजिक बनाए या उस समय जैसी फिल्में बनती थी कि आखिर में सब ठीक हो जाता है, वैसी फिल्म बनाए. मंसूर के अनुसार जब वह फिल्म की शूटिंग के लिए निकलने वाले थे तो उनके पिताजी नासिर हुसैन ने पूछा कि तुमने क्या तय किया है, फिल्म का अंत क्या होगा? और उनका जवाब था कि मैंने अभी तक तय नहीं किया है. मुझे नहीं पता है कि मैं इस फिल्म का किस तरह से द एंड करने वाला हूं. मैं लोकेशन पर जाकर ही फिल्म का क्लाइमेक्स लिखूंगा.
मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए
मंसूर के अनुसार वह फिल्म की हैप्पी एंडिंग नहीं चाहते थे, लेकिन ज्यादातर यूनिट का मानना था कि क्लाइमैक्स ट्रेजिक रखकर मंसूर गलत कर रहे हैं. मंसूर सबकी सुन रहे थे लेकिन उनके अंदर से एक ही आवाज आ रही थी कि उनका फैसला गलत नहीं होगा. इसलिए मंसूर ने फिल्म के दो क्लाइमेक्स लिखे और उन्हें शूट भी किया. जब दोनों क्लाइमेक्स शूट हो गए तो उन्हें देख कर यूनिट दो हिस्सों में बंट गई. सीनियर लोग हैप्पी एंडिंग चाहते थे, जबकि नए लोगों को मंसूर का ट्रैजिक आइडिया पसंद था. आमिर-जूही भी चाहते थे कि एंड ट्रेजिक हो. मंसूर ने वही क्लाइमेक्स रखा जो उन्हें और नौजवानों को पसंद था. उनका मानना था कि भले ही फिल्म का ट्रेजिक अंत होगा लेकिन यह दर्शकों को इमोशनली फिल्म से बांधकर रखेगा. जरूरी नहीं कि दर्शक थियेटर से निकले तो हंसी-खुशी निकले. इसमें कोई बुराई नहीं कि वह रोते हुए बाहर जाए. यह क्लाइमेक्स दर्शकों को फिल्म से ज्यादा जोड़कर रखेगा. यह एक नया एक्सपेरिमेंट था. और फिल्म की कामयाबी ने साबित कर दिया कि मंसूर की सोच गलत नहीं थी.
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