पावर ऑफ वुमन पेन: किसी के लिखने से स्कूल बना तो किसी को मिली फ्री एजुकेशन
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पावर ऑफ वुमन पेन: किसी के लिखने से स्कूल बना तो किसी को मिली फ्री एजुकेशन

Education for Girl Child: खराब सड़कों से लेकर खराब इंटरनेट तक, दूरदराज के इलाकों में रहने वाली लड़कियां अपने समुदायों में बदलाव लाने के लिए राइटिंग की पावर का इस्तेमाल कर रही हैं.

पावर ऑफ वुमन पेन: किसी के लिखने से स्कूल बना तो किसी को मिली फ्री एजुकेशन

International Womens Day: उत्तराखंड के बागेश्वर में हेमा रावल के परिवार ने 2022 में भारी बारिश के दौरान अपने सिर के ऊपर की छत का छोटा सा टुकड़ा खो दिया, जिससे उनमें से सात लोग बिना घर के रह गए. लगभग एक साल तक कोई मदद नहीं मिलने पर, हेमा ने एक लोकर न्यूज पेपर में अपने परिवार की दुर्दशा के बारे में लिखा - और गांव के उन अन्य लोगों की दुर्दशा के बारे में जिन्होंने अपना घर या जमीन खो दी. जिससे हड़कंप मच गया.

द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, ग्राम प्रधान ने प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) के तहत घर के लिए परिवार द्वारा दायर एक आवेदन दायर किया. पिछले साल हेमा का परिवार अपने दो कमरों के नए घर में रहने आया था.

जम्मू में कलम की ताकत

जम्मू-कश्मीर के पुंछ में, रुखसार कौसर ने लड़कियों के एक सरकारी स्कूल छोड़ने के बारे में लिखा क्योंकि इसकी जर्जर दीवार उन्हें परिसर में असुरक्षित महसूस करा रही थीं. कुछ ही महीनों में शिक्षा विभाग ने लंबे समय से उपेक्षित स्कूल के लिए बजट मंजूर कर दिया. खराब सड़कों से लेकर खराब इंटरनेट तक, दूरदराज के इलाकों में रहने वाली लड़कियां अपने समुदायों में बदलाव लाने के लिए राइटिंग की पावर का इस्तेमाल कर रही हैं.

पुंछ की रहने वाली रेहाना कौसर द्वारा एक स्थानीय उर्दू न्यूज पेपर में छपे एक लेख ने एक विकलांग स्कूली छात्रा रुखसाना को फ्री एजुकेशन पाने में मदद की. रेहाना ने इस बात पर फोकस किय कि कैसे मंडी के ऊबड़-खाबड़ इलाकों के कारण रुखसार के लिए स्कूल पहुंचना मुश्किल हो गया था. आर्टिकल ने समाज कल्याण विभाग का ध्यान खींचा और उन्होंने उसे जारी रखने में मदद करने के लिए उसकी शिक्षा को स्पोंसर करने का फैसला लिया.

बिहार में कलम की ताकत का असर

बिहार में, मुजफ्फरपुर के गुरियारा गांव की 20 साल प्रियंका साहू ने ग्रामीण स्कूलों में डिजिटल एजुकेशन लर्निंग टूल्स और टॉयलेट की कमी पर दो आर्टिकल लिखे हैं. उनका लेख - 'महावारी में स्कूल छोड़ने का दर्द' पिछले साल अप्रैल में छपा था, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि कैसे लड़कियां अपने पीरिएड्स के दौरान स्कूल छोड़ देती हैं क्योंकि टॉयलेट नहीं थे. दूसरा आर्टिकल - 'डिजिटल साक्षरता से दूर ग्रामीण भारत' पिछले साल जनवरी में एक हिंदी अखबार में छपा था.

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