चुनाव बाद सत्ता संभालने वाली पार्टी को अपने घोषणा-पत्र में किये गए वायदों को पूरा करने के लिए लाखों करोड़ रुपये खर्च करना पड़ता है. इन योजनाओं के जरिये सरकार का मकसद जरूरतमंदों तक पहुंचना और की जरूरतों को पूरा करना होता है.
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Tax For Development For Nation: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार एनडीए सरकार का गठन हो गया है. मंत्रिमंडल के शपथ लेने के बाद वित्त मंत्रालय ने पूर्ण बजट पेश करने को लेकर तैयारियां शुरू कर दी हैं. लेकिन इस बीच सोशल मीडिया पर एक बार फिर से 'मेरा टैक्स देश के विकास के लिए है, मुफ्त बांटने के लिए नहीं' (I am a Taxpayer My Tax is For Development of Nation, Not For Free Distribution) ट्रेंड हो रहा है. एक साल पहले भी मई के महीने में यह ट्रेंड हुआ था. इस मैसेज को देखने से यही लग रहा है कि टैक्सपेयर यूजर्स का गुस्सा सरकार के खिलाफ है.
मुफ्त योजनाओं के प्रति यूजर्स का गुस्सा
इस मैसेज के जरिये यूजर्स सरकार की तरफ से चलाई जाने वाली मुफ्त योजनाओं के प्रति अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं. चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियां अपने घोषण-पत्र में आम आदमी को तमाम चीजें मुफ्त में देने का वायदा करती हैं. चुनाव बाद सत्ता संभालने वाली पार्टी को अपने घोषणा-पत्र में किये गए वायदों को पूरा करने के लिए लाखों करोड़ रुपये खर्च करना पड़ता है. इन योजनाओं के जरिये सरकार का मकसद जरूरतमंदों तक पहुंचना और की जरूरतों को पूरा करना होता है. योजनाओं को पूरा करने के लिए खर्च होने वाला पैसा टैक्सपेयर्स का होता है. आइए जानते हैं इस पर जानकारों की राय-
'मुफ्तखोरी ने महामारी का रूप ले लिया'
सहयोगी वेबसाइट जी बिजनेस से बात करते हुए ग्लोबल टैक्सपेयर्स ट्रस्ट के चेयरमैन मनीष खेमका का कहना है मुफ्तखोरी ने महामारी का रूप ले लिया है. हम सोशल सिक्युरिटी की बात करते हैं और इसकी तुलना विकसित देशों से करते हैं. लेकिन, यह भी गौर करने वाली बात है कि विकसित देशों की तुलना में हमारे यहां कितने टैक्सपेयर्स हैं. हमारे यहां डायरेक्ट टैक्सपेयर्स करीब 1 प्रतिशत हैं. दूसरी तरफ अमेरिका में डायरेक्ट टैक्सपेयर्स की संख्या 40-50 प्रतिशत है. तमिलनाडु की मुफ्तखोरी पर मद्रास हाईकोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि “मुफ्तखोरी ने तमिलनाडु के लोगों को नकारा बना दिया है”.
जस्टिस एन किरूबाकरन और बी पुगालेन्थी ने राजनीति के लिए इस तरह मतदाताओं को लुभाने पर दुख जताते हुए कहा कि ऐसे मुफ्त चीजों को भ्रष्टाचार की श्रेणी में लाया जाना चाहिए. खेमका का कहना है कि मुफ्त में चीजें दी जाने वाली योजनाओं के बजाय सरकारी खर्च को संसाधनों के अनुसार होना चाहिए. गरीबों और कमजोर लोगों को सहायता हो लेकिन यह उत्पादकता बढ़ाने वाला हो.
टैक्सपेयर्स की यह सोच पूरी तरह गलत
भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग का कहना है कि इस तरह की योजनाओं के लिए पूरा पैसा टैक्सपेयर्स से ही आता है, यह कहना गलत है. इस मद में खर्च होने वाली रकम का 50 से 60 प्रतिशत टैक्स से मिलने वाले पैसे और 40 प्रतिशत लोन लेकर खर्च किया जाता है. पब्लिक फाइनेंस एंड सर्विसेज के लिए इस्तेमाल होने वाला पैसा टैक्सपेयर्स से लिया जाता है. फ्रीबीज का तात्पर्य उन योजनाओं से हैं जिनका फायदा अपात्र लोगों को सरकार की तरफ से दिया जाता है.
वह कहते हैं बेरोजगारों को नरेगा में मजदूरी के बदले किये जाने वाला भुगतान फ्रीबीज की कैटेगरी में नहीं आता. लेकिन यदि सरकार की तरफ से ऐसे लोगों को फ्री बिजली, पीएम किसान, मुफ्त का भोजन और राशन आदि की सुविधा दी जाती है, जो इनपर होने वाले खर्च को उठा सकते हैं, यह फ्रीबीज है. कई मामलों में सरकारी योजनाओं का फायदा उन लोगों को भी मिल रहा है, जो इनके लिए अपात्र हैं. इस तरह की किसी भी गलती से बचने के लिए पूरे सिस्टम को पारदर्शी होना पड़ेगा.
सरकार मुफ्त योजनाओं पर सालाना 4-5 लाख करोड़ रुपये खर्च करती है. कुल 45 लाख करोड़ रुपये के बजट में से इस खर्च की बात करें तो यह करीब 10 प्रतिशत है. इसके अलावा टैक्सपेयर्स से करीब 25 लाख करोड़ रुपये आते हैं. इस हिसाब से नागरिकों के लिए चलाई जा रही मुफ्त योजनाओं पर टैक्सपेयर्स से आने वाले पैसे का करीब 20 प्रतिशत खर्च किया जाता है. अगर कोई यह कहता है कि टैक्सपेयर्स के पैसे से इस तरह की योजनाओं का खर्च पूरा किया जा रहा है तो यह गलत है.