Congress Foundation Day: कहीं अतीत ही न बन जाए अतीत का गौरव देखने वाली कांग्रेस

कांग्रेस, भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी. जिसे आजादी की लड़ाई लड़ने का भी गौरव हासिल है. इसकी अध्यक्षीय परंपरा में एक से एक महान नेताओं का नाम शामिल रहा है. 136 साल पूरे करने वाली यह पार्टी आज विडंबनाओं से घिरी हुई है. इसकी अब तक यात्रा पर डालिए एक नजर-

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Dec 28, 2020, 05:00 AM IST
  • 28 दिसंबर 1885 को मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में कांग्रेस का पहला अधिवेशन हुआ.
  • 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में व्योमेश चंद्र बनर्जी पहले अध्यक्ष चुने गए
  • सुभाष चंद्र बोस ने भी इसके अध्यक्ष पद को सुशोभित किया
  • कई सालों तक देश का केंद्रीय शासन संभालने वाला राजनीतिक दल
Congress Foundation Day: कहीं अतीत ही न बन जाए अतीत का गौरव देखने वाली कांग्रेस

ऩई दिल्लीः इतिहास... हिंदी भाषा का ऐसा शब्द, जो किसी एक पंक्ति या पन्ने पर नहीं समाता, यह एक किताब, ग्रंथ, महाकाव्य में भी जगह नहीं बना पाता. कोई तुलना करे तो गणित के अनंत (Infinity) और इतिहास (History) को एक बराबर बता सकता है.

 

अब  जैसे एक पन्ने पर लिख सकने के लिए गणित वालों ने Infinity का Symbol खोज लिया है. आप इतिहास के लिए कोई प्रतीक खोज लीजिए. आज के लिए यहां हाथ के पंजे (कांग्रेस) को प्रतीक रख लेते हैं, सिर्फ आज के लिए. आप पूछेंगे क्यों? तो जवाब है, क्योंकि आज कांग्रेस का दिन है. 

स्थापना दिवस पर अकेली कांग्रेस
कांग्रेस का दिन, 136 साल.. यानी कि एक शतक और 36 पूर्ण वयस्क साल... कांग्रेस कोई व्यक्ति होती तो 136वें साल की होने वाली इस सुबह की शुरुआत एक लंबी गहरी सांस से करती. वह बांहे फैला लेती. कोई अपना सामने खड़ा होता तो उनका आलिंगन कर लेती. लेकिन यही विडंबना है.

कांग्रेस अकेली खड़ी है. उसका अपना निजी दर्द यह है कि उसके पास कोई नहीं है. आज का ही मौका देख लीजिए, 136वें स्थापना दिवस पर यह सवाल तैर रहा है कि झंडा कौन फहराएगा. 

1885 में हुई स्थापना
28 दिसंबर 1885 को मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में कांग्रेस का पहला अधिवेशन हुआ. 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में व्योमेश चंद्र बनर्जी पहले अध्यक्ष चुने गए. कांग्रेस का जन्म हुआ. 1912 में इस स्थिति के लिए Gopal Krishna Gokhale लिखते हैं कि 1885 में रिटायर्ड ब्रिटिश ऑफिसर A O Hume के अलावा कोई और कांग्रेस की स्थापना नहीं कर सकता था. 

कांग्रेस को इस दृष्टि से भी देखा गया कि कहीं यह तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन की चाल तो नहीं. लेकिन कांग्रेस के लिए यह कोई बुरा दौर नहीं था. इसे तो भविष्य में अभी कई दिन देखने थे. बुरे .या भले... वक्त ने वक्त-वक्त पर खुद ही उन्हें परिभाषित किया है. 

कांग्रेस में उससे बड़ा रहा मतभेद
कांग्रेस में सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि कोई भी कभी हमेशा के लिए कांग्रेसी नहीं हुआ. उसने कांग्रेस से प्यार ही नहीं किया. मतभेद यहां हमेशा बड़ा बना रहा. कांग्रेस से भी बड़ा. 1907 में गरम दल और नरम दल का बनना इसी मतभेद का नतीजा था. खैर, 1916 में दोनों दल एक हुए तो 1922 में संस्थापक धड़ा अलग हो गया.

यह वह दौर था जब महात्मा गांधी के विचार कांग्रेस पर छाने लगे थे. असहयोग आंदोलन वापस लेते ही मोतीलाल नेहरू, एनी बेसेंट कांग्रेस से अलग हो गए और कांग्रेस-खिलाफत स्वराज्य पार्टी की स्थापना कर ली. कांग्रेस फिर से दो भागों में पहचानी जाने लगी. 

जब राजनीतिक दल के तौर पर सामने आई कांग्रेस
साल बीतते रहे. कांग्रेस बड़ी होती गई. वह भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए लड़ने वाला दल बन गई. नमक कानून तोड़ना, स्वदेशी अपनाना, पूर्ण स्वराज्य का नारा देना इसकी उपलब्धियां बनीं.  1937 में यह राजनीतिक दल के तौर पर सामने आई और यहीं से भविष्य की जमीन भी तैयार हो गई. या यूं कह लीजिए आज की स्थिति की नींव पड़ी. 

यहीं से शुरू होने लगा राजनीति का वह दौर, जिसकी छाप स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास पर पड़ी हुई है. सबसे बड़ा नाम लिया जाता है सुभाष चंद्र बोस का, जो राजनीति में कहे जाने वाले षड्यंत्र के बड़े शिकार बने. इसके बाद कई नाम, विचार और विचारधाराओं को अलग करते-छिटकाते इसमें जवाहर लाल नेहरू का नाम शामिल हुआ.

विभाजन का दंश भारत ने झेला तो यह कांग्रेस के सबसे बुरे दौर में शामिल हो जाता है. 1947 के बाद कांग्रेस ने आजादी के सिपाही वाला तमगा खो दिया, हालांकि आजादी के लड़ाके वाली छवि को

कांग्रेस का रहनुमा कहने वालों ने, खुद को देश का रहनुमा साबित करने के लिए कई सालों तक भुनाया. और लगातार भुनाते रहे. कांग्रेस में बड़ी टूट हुई ,.जय प्रकाश नारायण जैसे कद्दावर योग्य नेता दूसरी ओर चले गए. 

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...और परिवार की होकर रह गई पार्टी

यही वह जगह है जहां से कांग्रेस की कमान परिवार की ओर चली गई. अधिवेशनों में अध्यक्ष चुनने वाले कांग्रेस के  लोग कभी रक्त में तो कभी नैन-नक्श में रहनुमा खोजने लगे. इतिहास जैसा बड़ा शब्द फिर से याद आता है और इस बार 5000 साल पीछे ले जाता है.

जहां हस्तिनापुर की सभा में एक तरफ योग्यता पांडव बनकर बैठी थी तो दूसरी ओर पुत्रमोह सिर्फ इसलिए सिंहासन पर बैठना चाहता था क्योंकि वह पिता का रक्त है. कांग्रेस का  अध्यक्षीय पद भी हस्तिनापुर का सिंहासन हो गया. 

जय प्रकाश नारायण ने बहुत ही शुरुआत में कांग्रेस की नीतियों का विरोध करना शुरू किया. पार्टी परिवारवाद की ओर बढ़ती जा रही थी.  चौधरी चरण सिंह, जिनकी बोई फसल कांग्रेस काटती रही वह किनारे लगाए गए. 

 लाल बहादुर शास्त्री की जब जब ताशकंद में  रहस्यमय मृत्यु हो गई तो फिर कांग्रेस के सामने बड़ा संकट उभरा.1966 में उभरे इस सवाल का जवाब तब इंदिरा गांधी में तलाश लिया गया और दिग्गज नेता मोरार जी देसाई दरकिनार कर दिए गए.  

हाशिए पर लगाए गए दिग्गज
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई. अब फिर से संकट सामने कि कांग्रेस का रहनुमा कौन? एक वाकये के मुताबिक, उस दिन फ्लाइट में  प्रणब मुखर्जी और राजीव साथ थे. अंदर ही अंदर सवाल और जवाब दोनों चल रहे थे. कहते हैं कि राजीव गांधी ने प्रणब दा से पूछा कि ऐसे में क्या करना चाहिए?

प्रणब मुखर्जी ने कहा कि पार्टी में जो योग्य हो और जिसकी पकड़ हो उसे शपथ लेनी चाहिए. यह भी कहा कि हत्या की खबर अभी सार्वजनिक न की जाए. दिल्ली पहुंचकर राजीव गांधी ने शपथ ली. कुछ महीनों बाद लोकसभा चुनाव हुए. कांग्रेस जीती, राजीव फिर PM बने, लेकिन इस बार मंत्रिमंडल में प्रणब मुखर्जी नहीं थे.  

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नाराजगी और ंमतभेद हमेशा बने रहे
नेहरू की कांग्रेस इंदिरा की बनी और अब राजीव की कांग्रेस कहलाने लगी. विडंबनाओं का दौर जारी था. 1989 में बोफोर्स का मुद्दा कुछ यूं उछला कि कांग्रेस 200 से कम सीटों पर सिमट गई. हार-जीत का सिलसिला चला, 1991 में राजीव गांधी की असमय मौत हो गई. पीवी नरसिंह राव को PM बन गए. 

नारायण दत्त तिवारी,अर्जुन सिंह, माधव राव सिंधिया, शीला दीक्षित जैसे बड़े नेता फिर नाराज हो गए. पीवी नरसिंह राव चार साल और फिर दो साल सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. 1998 में सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं. उन्होंने 2017 तक इस पद पर लंबा कार्यभार संभाला. एक बार फिर कांग्रेस की चाबी नेहरू से जुड़े वंश में है. 

राहुल गांधीः नहीं ंसंभाल पाए अध्यक्ष पद
राहुल गांधी 2017 में अध्यक्ष बनें और उससे अधिक उन पर मीम बने. अमेठी जैसी विरासत भी नहीं बचा सके. अमेठी का नाम लेने पर याद आते हैं संजय सिंह, कांग्रेस के हितैषी. गांधी परिवार के करीबी. जुलाई 2019 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी, राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया.

ऐसा क्यों किया? पूछने पर बोले, कांग्रेस आज भी भूतकाल में जीने वाले पार्टी है. आजादी के पहले के प्रभुत्व प्रतिभासंपन्न नेताओं की छाप में ही आगे बढ़ुना चाहती है. आगे कैसे बढ़ना है, नहीं जानती है. भटक गई है. 

शरद जोशी के शब्दों में कांग्रेस
80 के दशक में कांग्रेस की स्थिति को व्यंग्यकार शरद जोशी ने शब्द दिए थे. उन्होंने जो लिखा वह इतना सटीक है कि आज भी सही साबित होता है. उन्होंने जो लिखा, उसका एक अंश है. "कांग्रेस अमर है. वह मर नहीं सकती.

उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएंगे. जब तक पक्षपात, निर्णयहीनता ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह, ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता. कांग्रेस कायम रहेगी...."

देश की ,आत्मा को समझना जरूरी
कांग्रेस ऐतिहासिक राजनीतिक दल है. आधुनिक भारत का इतिहास है. यह सारी उपलब्धियां एक रात में नहीं मिलतीं. यह वाकई गौरव की बात है. लेकिन आज के हालात में जरूरी है कि कांग्रेसियों को इन उपलब्धियो पर गर्व करना होगा. खासकर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को यह समझना पड़ेगा.

अगर वह इसे बचाए रखना चाहते हैं तो देश की आत्मा से तो मिलना ही होगा.नहीं तो इतिहास बदलने के दावे पर गौरव करने वाली कांग्रेस इतिहास में कहीं सिमट जाएगी.. क्योंकि इतिहास बहुत बड़ा शब्द है.

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