बिहार का बाहुबली: प्रभुनाथ सिंह "छपरा का नाथ"

बिहार की सियासत में एक ऐसे वर्चस्व के बारे में आपको बताते हैं, जिसका लोहा हर किसी ने माना. लेकिन हत्या के केस में वो शख्स जेल में है. जिसका नाम है प्रभुनाथ सिंह..

Written by - Madhaw Tiwari | Last Updated : Oct 7, 2020, 06:49 AM IST
  • बिहार के सियासत का एक बड़ा नाम
  • जो बाहुबली से बन गया सियासतदान
  • विधायक बने अशोक सिंह पर बम से हमला
बिहार का बाहुबली: प्रभुनाथ सिंह "छपरा का नाथ"

प्रभुनाथ सिंह ने उस दौर में बिहार की सियासत में कदम रखा जब बंदूक और लाठी के बल पर चुनाव का फ़ैसला होता था. नेता अपने साथ लठैतों और
बंदूकवाले गुंडों की फौज पालते थे, जो अपने नेता के लिए नोट और वोट बटोरने से लेकर बूथ कैप्चरिंग का भी काम करते थे लेकिन दौर बदला और लाठी और बंदूक रखने वाले गुंडे ख़ुद उन राजनेताओं के सिर पर पैर रखकर आगे निकलने लगे. 

4 अप्रैल 1995, लालू का शपथ ग्रहण

1995 के चुनाव हो चुके थे, लालू ने 4 अप्रैल 1995 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. ये लालू प्रसाद यादव का दूसरा कार्यकाल था. इस शपथ ग्रहण के 3 महीने बाद की शाम, लालू प्रसाद यादव अपने सरकारी घर में बैठे हुए थे, सीएम आवास के पास ही जनता दल के नौजवान विधायक अशोक सिंह का घर था, पटना का 5 मैंग्लेस रोड. एक धमाका और फिर फायरिंग होने लगती है, लालू के साथ बैठे लोग कहते हैं कि शादी ब्याह का मौसम है, किसी की बारत निकल रही होगी.

जुलाई 3, 1995, अशोक सिंह की हत्या

शाम के 7 बजकर 20 मिनट पर अपने सरकारी आवास के लॉन में एक साथी अनिल कुमार सिंह के साथ बैठे मशरक से विधायक चुने गए अशोक सिंह पर बम से हमला होता है. मोटर साइकिल पर सवार तीन हथियारबंद लोगों ने पहले बम फेंका जो अशोक सिंह के चेहरे पर लगा और वहीं फट गया, अशोक सिंह के चीथड़े उड़ गए और तीनों हमलावर फायरिंग करते हुए फरार हो गए बजे. अशोक सिंह और अनिल कुमार सिंह की हत्या हो चुकी थी. इस हत्याकांड को जिसने अंजाम दिया था उसका नाम है प्रभुनाथ सिंह.

प्रभुनाथ सिंह की कहानी

एक सीमेंट कारोबारी जो सियासत में बिना किसी की सरपरस्ती हासिल किए दाखिल हुआ और साल 1985 में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर उतरा और अपने धन बल और बाहुबल के बूते पहुंच गया बिहार विधानसभा. सारण ज़िले की मशरक सीट प्रभुनाथ का पहला सियासी युद्ध का मैदान था. रसूख इतना था कि वो झुकना नहीं जानता था.

हालांकि सियासत में कूदने से पहले ही प्रभुनाथ का आस्तीन दाग़दार हो चुका था. 1980 में मशरक के विधायक रामदेव सिंह की हत्या हुई थी और आरोप लगा था प्रभुनाथ सिंह पर, कहा जाता था कि अपनी चुनावी पारी शुरू करने के लिए रामदेव सिंह को एक कारोबारी ने अपने रास्ते से हटा दिया. हालांकि जनता ने उपचुनावों में कांग्रेस के रामदेव सिंह को ही अपना प्रतिनिधि चुना, उनके बेटे हरेंद्र सिंह के रूप में. हालांकि 1985 में प्रभुनाथ ने सीट पर निर्दलीय कब्ज़ा किया और हरेंद्र को मात दी. छपरा में प्रभुनाथ को छपरा का नाथ कहा जाता है. सिर्फ रामदेव सिंह की हत्या ही नहीं, छपरा में कहा जाता था कि प्रभुनाथ अपने रसूख और ठसक के आगे किसी को बर्दाश्त नहीं करता था.

सियासत का बाहुबली

शायद यही बाहुबल सियासत में उसे ऊंचाईयों की ओर लेकर जाने लगा. 1985 में जिसने अभी राजनीति में कदम ही रखा था, उसे 1990 के चुनाव में देश की सबसे चर्चित सियासी पार्टी जनता दल का साथ मिला और प्रभु का नाम पार्टी के पोस्टरों पर चस्पा हो गया. प्रभुनाथ ने भी पार्टी के सरपरस्तों को निराश नहीं किया और 1990 के विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत से वोट हासिल कर रामदेव सिंह के बेटे डॉ. हरेंद्र सिंह को करारी मात दी. इस दौरान गर्म ख़ून लिए प्रभुनाथ के गुट में शामिल हुए अशोक सिंह की सियासी महत्वाकांक्षा हिलोरे मारने लगी, उसे चुनाव लड़ना था और प्रभुनाथ को ये मंज़ूर ना था,

अशोक सिंह से अदावत

1991 की सर्दियों में सारण के ज़िला कॉम्प्लेक्स में अशोक सिंह पर जानलेवा हमला होता है. कुछ बंदूकधारी 28 दिसम्बर 1991 को अशोक सिंह पर फायरिंग करते हैं लेकिन इस हमले में अशोक सिंह बच जाता है और इस हमले का आरोप लगता है छपरा के बाहुबली प्रभुनाथ सिंह और उसके भाई केदारनाथ सिंह पर. 

कहते हैं सियासत में कोई किसी का शागिर्द नहीं होता, सियासी चेला कब गुरू बन जाए पता नहीं चलता. 90 के दशक में मंडल कमीशन को जनता दल ने समर्थन दिया तो प्रभुनाथ ने जनता दल से नाता तोड़ लिया और शामिल हो गया आनंद मोहन सिंह की बनाई नई पार्टी बिहार पीपुल्स पार्टी में, प्रभुनाथ के लिए ये सियासत का एक अहम मोड़ था क्योंकि उसका चेला उसे धूल चटानेवाला था.

अशोक सिंह से प्रभुनाथ की अदावत चल रही थी और इसी बीच साल 1994 में जनता दल से कुछ नेता ख़फ़ा हो जाते हैं. बिहार में जनता दल का शासन था, लालू प्रसाद यादव चीफ़ मिनिस्टर थे और इस दौरान जनता दल के कुछ नेताओं ने लालू पर जातिवाद का आरोप लगाया और एक अलग पार्टी बनाई. समता दल. हालांकि 1995 के विधानसभा चुनावों में इसका ख़ास असर नहीं पड़ा, लेकिन आगे जाकर इसका बड़ा असर होनेवाला था.

साल 1995 में सियासी समीकरण बदल चुके थे, अगड़े और पिछड़ों की जंग चल रही थी और सियासी दबदबे में पिछड़े आगे निकल गए थे और मिशरक की सीट पर जनता दल ने प्रभुनाथ की जगह उसी के शागिर्द अशोक सिंह को चुना, जिसने बिहार पीपुल्स पार्टी के टिकट पर उतरे अपने गुरू प्रभुनाथ को शिकस्त दे दी. कहा जाता है कि प्रभुनाथ सिंह को मरना और मारना पसंद था लेकिन पूर्व विधायक कहलाना पसंद नहीं था और फिर विधायक बने कुछ ही महीने बीते थे और 3 जुलाई 1995 की शाम बम मारकर अशोक सिंह के चीथड़े उड़ा दिए गए, उनके सरकारी आवास पर बम से हमला किया गया.

28 साल के अशोक सिंह के साथ उनके एक साथी की मौत हो गई, उनकी पत्नी ने पटना के सेक्रेटेरिएट थाने में मुकदमा लिखवाया जिसमें प्रभुनाथ सिंह और उसके भाई दीना नाथ सिंह को नामजद किया गया, बाद में जांच के दौरान दूसरे भाई केदार नाथ सिंह के साथ रितेश सिंह और सुधीर सिंह का नाम भी इस केस में आया.

प्रभुनाथ सिंह का संसद का सफर

साल 1996 में भारतीय जनता पार्टी के सुशील कुमार मोदी ने वो मुद्दा उठाया जिसने बिहार की लालू सरकार को मुश्किल में डाल दिया. चारा घोटाले को लेकर आवाज़ उठने लगी. भारतीय जनता पार्टी और समता पार्टी लालू के पीछे पड़ गई, मामला हंगामों की शक्ल में दिखा और साथ में अदालती कार्यवाही में भी. नतीजा ये हुआ कि लालू प्रसाद यादव को 25 जुलाई 1997 को सीएम पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा लेकिन उन्होंने सत्ता की बागडोर अपने पास रखी, अपनी कुर्सी पर पत्नी राबड़ी देवी को बिठा दिया, हालांकि चारा घोटाले ने लालू प्रसाद यादव की साख पर बट्टा लगाया और साथ में समता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को बिहार में जनाधार बढ़ाने का मौका भी दिया. प्रभुनाथ सिंह को यहां अपनी सियासी ज़िंदगी दिखी और समता पार्टी के चुनाव चिन्ह पर महाराजगंज लोक सभा से छपरा के नाथ ने ताल ठोकी और पहुंच गया संसद..

प्रभुनाथ की राष्ट्रीय सियासत में दखल

सियासत फिर से प्रभु के कदमों में थी लिहाजा कानून के मुलाजिम सजदे की शक्ल में सामने खड़े रहते थे, कह सकते हैं कि ये वो दौर था जब प्रभुनाथ कामयाब सियासत के सफर पर निकला. इसी दौरान प्रभुनाथ सिंह पर एक के बाद एक कई मुकदमे दर्ज हुए, कभी ज़िले के डीएम को धमकाने के मामले में तो कभी चुनाव आयोग पर तंज कसने के मामले में, लेकिन सच तो ये है कि प्रभुनाथ सिंह ने सियासी रसूख के चलते हर बार कानूनी शिकंजे से दूर रहा.

1999 में हुए आम चुनावों में भी प्रभुनाथ ने शरद यादव की जेडीयू से जीत दर्ज की और अपनी सांसदी महाराजगंज सीट से बरकरार रखी. नोट को वोट में कनवर्ट करना और बाहुबल का दम दिखाना, बिहार के इस पूर्वी इलाके की पहचान रही है. चाहे दामन पर कितने भी दाग क्यों न हो, वो अपने रसूख का इस्तेमाल कर दागदार दामन को बेदाग करने की जुगत में लगा रहा. ऐसा नहीं है कि कामयाबी नहीं मिली बल्कि इसी दौरान रामदेव सिंह काका की हत्या के आरोप से वो बरी भी हुआ.

21वीं सदी में भी राष्ट्रीय सियासत और बिहार की सियासत में काफी बदलाव आए, बाजपेयी कैबिनेट में एनडीए की पार्टियों के नुमाइंदों के महकमे बदले गए तो सियासी दायरा बढ़ाने और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अहमियत बढ़ाने के लिए 2003 में बिहार की तीन पार्टियों समता पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी और जनता दल युनाइटेड का विलय हुआ जिसमें प्रभुनाथ की भूमिका काफी अहम थी.

इस विलय के बाद जेडीयू के टिकट पर प्रभुनाथ सिंह ने फिर पूरे दम खम के साथ 2004 का इलेक्शन लड़ा और तीसरी बार प्रभुनाथ सिंह संसद तक पहुंचा. 

साल 1991 में अशोक सिंह पर हुए जानलेवा हमले को लेकर साल 2008 में पटना की अदालत ने फैसला दिया और प्रभुनाथ सिंह और उसके भाई केदारनाथ सिंह को इस मामले में बरी कर दिया गया. सोनिया गांधी का सबसे बड़ा आलोचक और एक समय में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को उठाकर चर्चा में आनेवाले प्रभुनाथ सिंह ने साल 2009 के चुनाव में फिर से ताल ठोकी. सियासत में सिल्वर जुबली मना रहे प्रभुनाथ सिंह ने सियासी भाषा तो सीख ली थी लेकिन अभी भी उन्हें पूरा यकीन था कि उनके बाहुबल के आगे कोई खड़ा नहीं सकता.

अक्सर सार्वजनिक तौर पर भी सिगरेट का धुंआ उड़ाते प्रभुनाथ सिंह को इस काल खण्ड में नीतीश कुमार के बाद बिहार में सबसे पावरफुल नेता माना जाता था. अपने इलाके में राजपूतों के नेता प्रभुनाथ सिंह का दरबार लगता था और लोग हाथ जोड़कर उनके सामने ज़मीन पर बैठते थे, फरियादियों की फरियाद सुनाना और फैसला सुनाना प्रभुनाथ का शगल था. अपने इलाके में राजा की तरह रहनेवाले प्रभुनाथ को साल 2009 में आरजेडी के कैंडिडेट ने महज़ 2797 वोटों से शिकस्त दे दी. प्रभुनाथ की सियासी ज़िंदगी में ये बड़ा झटका था.

नीतीश से रार, लालू से प्यार

24 अगस्त 2006 को लोकसभा की बैठक में प्रभुनाथ सिंह जो लालू प्रसाद यादव पर सीधे आरोप लगाया था कि आरा में हुई एक हत्या में लालू के रिश्तेदार शामिल थे. लालू प्रसाद यादव ने प्रभुनाथ सिंह को सदन में गुंडा तक कहा था. वही प्रभुनाथ सिंह अगस्त 2010 में नीतीश से अलग हुआ और अपने चिर प्रतिद्वंदी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया.

इसी बीच में साल 2009 में प्रभुनाथ सिंह को महाराजगंज लोक सभा सीट पर मात देने वाले उमा शंकर सिंह की तबियत बिगड़ी. निमोनिया की शिकायत के साथ वो दिल्ली के एम्स में भर्ती हुए जहां 24 जनवरी 2013 को उनका निधन हो गया. प्रभुनाथ सिंह को हराने वाला ये दूसरा ऐसा प्रत्याशी था जिसकी मौत हो गई थी.

साल 2013, महाराजगंज उप चुनाव

इस चुनाव को नीतीश और लालू की नाक की लड़ाई की तौर पर देखा जा रहा था. प्रभुनाथ सिंह छपरा ज़िले की महाराजगंज सीट से आरजेडी के चुनाव चिन्ह पर फिर से ताल ठोकने उतरा और लालू यादव अपने पुराने प्रतिद्वंदी को चुनाव जिताने पहुंचे. वोटिंग हुई, और चाहे जैसे कहें प्रभुनाथ सिंह ने बाज़ी मार ली. जेडीयू के कैंडिडेट को करारी शिकस्त मिली.

साल 2014, लोकसभा चुनाव

बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद के लिए गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को प्रोजेक्ट किया. जनता दल युनाइटेड के नीतीश को सम्प्रदायिक छवि वाले नरेंद्र मोदी का साथ स्वीकार नहीं था और दोनों पार्टियों का सालों का नाता टूट गया. सियासी समीकरण उलट चुके थे, ये मोदी की बयार थी और इसमें विरोधी दलों में किसी के लिए भी सीट बचा पाना काफी मुश्किल होने वाला था, प्रभुनाथ को इसका इल्म था, लिहाज़ा एक बार फिर उसका बाहुबली रूप सामने आया जो चुनावी रैलियों में खुलेआम अपने समर्थकों से बूथ कैप्चरिंग तक करने की बात कह देता है.

प्रभुनाथ सिंह ने रैली में खुलेआम कहा कि “एक बटन दबाना हो, एक दबाओ, मौका मिले तो दो तीन चार भी दबाओ और अगर कोई सामने आए उसे अपनी ताकत भी दिखाओ”

साम, दाम, दंड, भेद. कुछ काम नहीं आया और साल 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रभुनाथ सिंह हार गया, लेकिन ऐसा नहीं था सियासी रसूख कम हो गया था. अपने छोटे भाई केदारनाथ सिंह को तीन बार विधायक बनवा चुका था और 2014 के उपचुनाव में छपरा विधानसभा सीट से अपने वारिस रणधीर कुमार सिंह को भी MLA बनवा चुका था.

2014 के लोकसभा चुनावों में हार के बाद नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. जीतन राम मांझी नए मुख्यमंत्री बने लेकिन जब सियासी बाज़ी पलट रही हो तब बड़ी मछली को हराने के लिए छोटी मछलियां तमाम दूरिया होने के बावजूद एक हो ही जाती हैं. साल 2015 के लोकसभा चुनाव में लालू और नीतीश एक होकर चुनाव लड़े. प्रभुनाथ सिंह का बेटा रणधीर सिंह फिर चुनावी मैदान में उतरा लेकिन अपनी सीट बचा नहीं सका.

प्रभुनाथ सिंह का सूरज अस्त हो रहा था. उसका वर्चस्व कम होता जा रहा था. उधर महागठबंधन की सरकार बनी लेकिन गठबंधन ज़्यादा दिन चल नहीं सका. इस बीच में वो वक़्त आता है जब होता है प्रभुनाथ सिंह के गुनाहों का हिसाब.

18 मई 2017, हज़ारीबाग कोर्ट, झारखंड

विधायक अशोक सिंह की हत्या मामले में अदालत ने प्रभुनाथ सिंह, उसके भाई दीनानाथ सिंह और भतीजे रितेश सिंह को दोषी ठहराया और 23 मई 2017 को तीनों को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई. 22 साल बाद उम्मीद इंसाफ की चौखट पर जीत गई और बाहुबल के दम पर ताउम्र जनता के रहनुमा होने का भ्रम खरीदने वाले प्रभुनाथ सिंह को सलाखों में कैद कर दिया गया. जेल में भी उसने बाहुबल और धनबल का प्रयोग किया और इसकी बानगी तब देखने को मिली जब जेल में छापेमारी के दौरान प्रभुनाथ सिंह के कब्जे से 76 हजार रूपए नगद और मोबाइल फोन बरामद हुआ.

साल 2019, लोकसभा चुनाव

प्रभुनाथ सिंह का सियासी वारिस रणधीर सिंह अभी भी प्रभुनाथ सिंह की विरासत को बचाने में जुटा है. साल 2019 में लालू की पार्टी आरजेडी ने रणधीर को टिकट तो दिया लेकिन ना तो प्रभुनाथ सिंह की साख बची और नहीं उसकी परम्परात सीट वापस मिल सकी. सितम्बर 2019 में प्रभुनाथ सिंह की तरह ख़ुद को बाहुबली साबित करने के लिए विश्वकर्मा पूजा पर रणधीर सिंह ने एक तस्वीर खिंचाई जो सोशल मीडिया पर तैरने लगी. इस तस्वीर में पूर्व विधायक और प्रभुनाथ सिंह का बेटा रणधीर सिंह 20 से ज़्यादा आधुनिक हथियारों के साथ दिख रहा था.

28 अगस्त 2020, झारखंड हाई कोर्ट

अशोक सिंह मर्डर केस में झारखंड हाईकोर्ट ने दोषी प्रभुनाथ सिंह और उसके भाई दीनानाथ सिंह को निचली अदालत से मिली उम्र क़ैद की सज़ा को बरक़रार रखा, जबकि भतीजे रितेश सिंह को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया.

प्रभुनाथ सिंह जेल में है, सज़ायाफ़्ता होने की वजह से वो चुनाव नहीं लड़ सकता, बेटा रणधीर सिंह सियासी विरासत को आगे बढ़ाते हुए छपरा सीट से 2020 में ताल ठोक रहा है, देखना है डर के आधार पर वर्चस्व एक फिर कायम हो पाएगा या नहीं.

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