गजलों को हर किसी की जुबां तक लाने का श्रेय काफी हद तक जगजीत सिंह दिया जाता है. जिन्होंने अपने करियर में खूब सारी अमर होने जाने वाली गजलें गाईं. हर किसी की जुबां पर ये गाने आजतक थमे हुए हैं. जिस जगजीत सिंह ने लोगों की जिंदगी में अपनी मधुर आवाज से रंग घोला था, असल जिंदगी में वह खुद बहुत दर्द से गुजरे हैं. जब इकलौते जवान बेटे को उन्होंने खो दिया तो उनकी मानो कमर टूट गई हो. गाना बजाना सबकुछ छोड़कर दुनिया से खुद को अलग-थलग कर लिया था. चलिए जगजीत सिंह की पुण्यतिथि पर उनकी जिंदगी, उनके दर्द, उनके गीत, उनके करियर और पत्नी से रूबरू करवाते हैं.
1981 में आई फिल्म 'प्रेम गीत' का गाना 'होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो' को भला कैसे आज भी लोग भूल सकते हैं. ऐसी गजल जो हमारे प्यार और हमारे एहसास को बखूबी बयां करती है. लेकिन, इस गीत के पीछे की आवाज जितनी रूमानी है, उनके हिस्से का दर्द उतना ही गहरा. जिस जगजीत सिंह ने एक नहीं, कई जेनरेशन को प्रेम समझाया, उसे महसूस करना उनकी जिंदगी में इसी प्रेम की कमी हो गई थी.
पद्मभूषण से सम्मानित जगजीत सिंह को साल 1982 में आई फिल्म 'अर्थ' ने गायकी में एक आला दर्जे के मुकाम पर बैठा दिया. इस फिल्म में जगजीत सिंह ने ही म्यूजिक दिया था और इसके गाने तो आज भी लोगों की जुबां पर तैरते हैं. जगजीत सिंह के गायक और म्यूजिक कंपोजर बनने की कहानी थोड़ी फिल्मी है.
जगजीत सिंह का जन्म 8 फरवरी 1941 को श्री गंगानगर में हुआ. उन्हें संगीत विरासत में मिला था. आगे चलकर उनके गुरु बने पंडित छगन लाल शर्मा. जिनसे उन्होंने करीब दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखा, फिर गायिकी को अलग लेवल पर ले जाने के लिए जगजीत सिंह ने उस्ताद जमाल खान साहब से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद को सीखा.
जगजीत सिंह जो संगीत में रंगना-बसना चाहते थे तो उनके पिता चाहते थे कि बेटा सरकारी अवसर बने. खूब पढ़े लिखे और आईपीएस ऑफिस बने. लेकिन जगजीत तो सुरों के बादशाह बनने की राह पर निकल पड़े थे. उन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान उनकी संगीत में दिलचस्पी बढ़ी. कॉलेज के कुलपति ने उनका उत्साह बढ़ाया और फिर वह मुंबई की ओर चल दिए.
मुंबई एक ऐसा शहर है जो अच्छे अच्छों को पाठ पढ़ा देता है. खूब इंसानों की सहनशक्ति को ललकारता है. ऐसा ही जगजीत सिंह के साथ भी हुआ. यहां आने के बाद उन्होंने खूब पापड़ बेले. शुरुआत में पेइंग गेस्ट के तौर पर रहते हुए विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाना शुरू किया. फिर शादी या दूसरे समारोह में भी गाते रहे. बस जो भी छोटे मोटे काम मिलते वह करते गए और दो रोटी का गुजारा होता गया.
फिर जगजीत सिंह में वह आईं, जिसने सबकुछ बदल दिया. ये थीं चित्रा सिंह. साल 1967 में चित्रा सिंह से उनकी मुलाकात हुई. संगीत ही था जिसकी वजह से दोनों को एक दूसरे से भी इश्क हो गया. बस फिर क्या दोनों ने 1969 में शादी कर ली. वहीं पर्सनल लाइफ तो पटरी पर आ गई थी लेकिन कामकाज अभी भी पटरी पर नहीं था. न तो फिल्मों में काम मिल रहा ता न ही कोई नया मुकाम.
'बिल्लू बादशाह', 'कानून की आवाज', 'राही', 'ज्वाला', 'लौंग दा लश्कारा', 'सितम' जैसी फिल्मों के भी गीत-संगीत नहीं चले. इन फिल्मों ने भी खास कमाल नहीं किया. मगर जगजीत सिंह थमने वालों में से कहां थे. उन्होंने फिर नया दांव चला. 1975 का साल जगजीत सिंह और चित्रा सिंह के लिए खुशनुमा अहसास लेकर आया. उनका एलबम 'द अनफॉरगेटेबल्स' रिलीज हुआ और देखते ही देखते दोनों की जोड़ी संगीत प्रेमियों की जुबां पर चढ़ गई. इसके बाद जगजीत सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
1990 में जगजीत सिंह के इकलौते बेटे विवेक की 18 साल की उम्र में मौत हो गई. इस घटना ने जगजीत सिंह और चित्रा सिंह को तोड़कर रख दिया था. कहा जाता है कि विवेक के गुजरने के बाद जगजीत और चित्रा ने गाना छोड़ दिया था. लेकिन, चाहने वालों की दुआ रंग लाई, दोनों ने फिर से माइक थामा और राग छेड़ा, 'चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश, जहां तुम चले गए.' इस गीत में दोनों के दर्द झलकते हैं. 10 अक्टूबर 2011 को जगजीत सिंह ने दुनिया को अलविदा कह दिया था.
इनपुट: एजेंसी
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