Indian Ocean Hydrothermal Vents: भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम में दक्षिण हिंद महासागर में बड़ी कामयाबी हासिल की है. उन्होंने 4500 मीटर गहराई पर, मध्य और दक्षिण पश्चिमी रिज पर मौजूद हाइड्रोथर्मल सल्फाइड फील्ड क्षेत्र की तस्वीरें ली हैं. उन्होंने सक्रिय हाइड्रोथर्मल वेंट्स का पता लगाया. तल पर 'चिमनियों' से काला धुआं (हाइड्रोथर्मल प्लूम) निकलता हुआ देखा. यह ऐसी जगहों पर अपने तरह का पहला वैज्ञानिक अभियान था. देखिए तस्वीरें.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टेक्नोलॉजी (NIOT) और नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च (NCPOR) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक हाइड्रोथर्मल सल्फाइड फील्ड का हाई-रेजोल्यूशन डीप-सी एक्सप्लोरेशन और इमेजिंग किया. यह गहरा समुद्री क्षेत्र दक्षिणी हिंद महासागर के मध्य और दक्षिण-पश्चिम भारतीय कटकों में 4,500 मीटर की गहराई पर स्थित है.
यह इन तरह की साइट्स पर भारत का पहला वैज्ञानिक अभियान था. NIOT की ओर से X (पहले ट्विटर) पर दी गई जानकारी के अनुसार, यह अभियान दिसंबर 2024 में 'सागर निधि' रिसर्च जहाज पर चला. वैज्ञानिकों ने NIOT के बनाए ऑटोनॉमस अंडरवाटर वीइकल (AUV) जिसका नाम 'ओशन मिनरल एक्सप्लोरर' (OMe 6000) है, का इस्तेमाल किया. यह अभियान डॉ. एनआर रमेश के नेतृत्व में चला.
हिंद महासागर में 4,500 मीटर की गहराई पर मौजूद ये हाइड्रोथर्मल वेंट अपने अनोखे पारिस्थितिकी तंत्र और खनिज भंडारों के लिए जाने जाते हैं. इनका साइंटिफिक रिसर्च और और रिसोर्स एक्सट्रैक्शन में अहम प्रभाव है. हाइड्रोथर्मल सल्फाइड क्षेत्रों में वैज्ञानिकों की खास रुचि हैं क्योंकि इनमें सोना, चांदी और तांबा जैसे बहुमूल्य खनिजों का प्रचुर भंडार है.
यह अभियान भारत के 'डीप ओशन मिशन' का हिस्सा है. इस मिशन का मकसद देश के समुद्री संसाधनों और जैव विविधता की समझ में इजाफा करना है. केंद्रीय साइंस एंड टेक्नोलॉजी मंत्री, डॉ जितेंद्र सिंह ने कहा कि ऐसे अभियान भारत के आर्थिक विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में अहम भूमिका निभाते हैं. उन्होंने कहा कि डीप जी जैसे अनएक्सप्लॉरड सेक्टर भारत के 2047 के विजन को हकीकत बनाने के लिए अहम हैं.
इस अभियान से हमें जो कुछ पता चला, उसे शायद समुद्री संसाधनों के प्रबंधन से जुड़ी चर्चा में शामिल किया जाएगा. समुद्र दुनिया के सबसे कम एक्सप्लोर किए गए हिस्से हैं और भारत इस कमी को दूर करना चाहता है. तभी तो उसने 'समुद्रयान मिशन' की तैयारी कर रखी है जो तल से 6,000 मीटर नीचे जाकर रिसर्च में काम आएगा.
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