लॉकडाउन 4.0 में थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है
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लॉकडाउन 4.0 में थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है

चौथे दौर का लॉकडाउन शुरू हो गया है और ऐसे में केंद्र सरकार का राज्य सरकारों के साथ तालमेल सराहनीय है. ये बहुत अच्छा हुआ कि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को यह तय करने का अधिकार दे दिया कि वे अपने यहां कहां और कितना लॉकडाउन रखें और इस दौरान दूसरे राज्यों के साथ भी अपने आवागमन के संबंध किस तरह के रखें.. 

 

लॉकडाउन 4.0 में थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है

नई दिल्ली. भारत की बढ़ती गर्मी कोरोना मौतों के ग्राफ पर अंकुश नहीं लगा सकी है. इसलिए देश को सावधान होकर अभी आगे भी अनुशासित रहना होगा ताकि आगामी दो से तीन महीने कोरोना के विरुद्ध युद्ध में किसी तरह की ढिलाई न हो जाये. सबसे अच्छी बात तो ये हुई है कि मोदी सरकार द्वारा पांच चरण वाली 20 लाख करोड़ रुपये की राहत की घोषणा की गई है.  

  1. कोरोना राहत राशि का सावधान-क्रियान्वयन हुआ तो फायदा अवश्य होगा 
  2. अर्थव्यवस्था की दुर्दशा कोरोना के विरुद्ध युद्ध की भांति ही उच्चतम चुनौती है
  3. वर्तमान तिमाही में 45 फीसदी अर्थव्यवस्था का संकुचन आशंकित है 
  4. बाजार को मांग भी चाहिये और सामर्थ्य भी
  5. अब प्रवासी मजदूरों को शहर-वापसी आसान नहीं होगी

 

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सावधान-क्रियान्वयन हुआ तो फायदा अवश्य होगा 

हालांकि भारत का विपक्ष सिर्फ विरोध की राजनीति करता है, उसकी कोई राष्ट्रनीति नहीं है. उसे तो हर हाल में केंद्र सरकार का विरोध करना है चाहे कितना भी अच्छा कदम केंद्र सरकार ने राष्ट्रहित में क्यों न उठाया हो. इसी तर्ज पर विरोधी दलों ने बीस लाख करोड़ की राहत राशि को कोरा छलावा और दिखावा करार दिया है. किन्तु सच तो ये है कि यदि केंद्र सरकार अपनी घोषणाओं का सावधानी से क्रियान्वयन करने में सफल रहती है तो भारत की कृषि, लघु उद्योग और शस्त्र-निर्माण के क्षेत्रों को फायदा अवश्य पहुंचेगा.  

अर्थव्यवस्था की दुर्दशा कोरोना-काल का बड़ा सच है 

कुछ अर्थशास्त्रियों ने भी राहत राशि को कोरा शब्द जाल कहा है. उनकी सोच ये है कि ये 20 लाख करोड़ रु. की राहत की बजाय तीन-चार लाख करोड़ से ज्यादा की राहत नहीं है क्योंकि अधिकतर राहतें तो देश के वार्षिक बजट का ही हिस्सा हैं जिनको उठाकर कोरोना राहत में जोड़ दिया गया है. अर्थशास्त्रियों की ये टिप्पणी शुद्ध अतिरंजना है तथापि अर्थव्यवस्था की दुर्दशा कोरोना-काल का बड़ा सच है अतएव कोरोना-ग्रस्त जर्जर भारतीय अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने की दिशा में गंभीर कदम अपेक्षित हैं.  

45 फीसदी अर्थव्यवस्था का संकुचन आशंकित है 

यदि भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर विश्व-प्रसिद्ध संस्था गोल्डमैन साक्स के विश्लेषण पर विश्वास करें तो उन्होंने जो भावी चित्र दिखाया है वह आतंकित करने वाला है. इस संस्था का अनुमान है कि अप्रेल-मई-जून की तिमाही में भारतीय अर्थ व्यवस्था लगभग 45 प्रतिशत सिकुड़ जाएगी और भारत के समग्र जीडीपी में 5 प्रतिशत की गिरावट आयेगी. 

बाजार को मांग भी चाहिये और सामर्थ्य भी

उपरोक्त आशंका को सच होने से बचाने के लिये अर्थात देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बाजार में मांग का होना अत्यंत आवश्यक है और समानांतर तौर पर सामर्थ्य अर्थात जनता के हाथ में पैसा होना भी उतनी ही बड़ी आवश्यकता है. लघु-उद्योगों के लिये की गई 3 लाख करोड़ रु. के ऋण की  घोषणा सराहनीय है किन्तु उसके लिये यदि खरीदारों की जेब खाली होगी तो कारखानों में बना उत्पाद बिकेगा कैसे? 

प्रवासी मजदूरों की शहर-वापसी आसान नहीं होगी

यद्यपि देश का हर प्रवासी मजदूर मोदी सरकार को  ‘मनरेगा’ की मजदूरी और कुल राशि बढ़ाने के लिए धन्यवाद दे रहा होगा किन्तु स्थिति अब ये है कि यदि इन मजदूरों को उनके अपने गांवों में प्रतिदिन 202 रुपये मिलेंगे और मुफ्त का अनाज मिलेगा तो वे शहरों में क्यों वापस आना चाहेंगे. इसलिये लॉकडाउन के बाद उनको वापस लाकर शहरों के कारखानों को जीवनदान देना है और देश के बाजारों को फिर से गुलजार करना है तो इन करोड़ों किसानों और मजदूरों और किसानों को भी आगामी तीन माह तक गुजारा भत्ता देना अनिवार्य है जैसा कि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी और कनाडा में हो रहा है

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