चिड़ावा का दो आंखों वाला पेड़ा आपने खाया क्या, एक साल में बीकता है करीब 70 करोड़ का पेड़ा
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चिड़ावा का दो आंखों वाला पेड़ा आपने खाया क्या, एक साल में बीकता है करीब 70 करोड़ का पेड़ा

दिवाली के सीजन में मिठाई की बात चलती हैं. तो जुबां पर झुंझुनूं के चिड़ावा का नाम जरूर आता है. झुंझुनूं जिले के अधिकांश कस्बे किसी न किसी मिठाई के लिए प्रसिद्ध हैं. यहां के पेड़े और राजभोग की अलग पहचान है. इनमें भी पेड़े सबसे अलग हैं. चिड़ावा के पेड़े देशभर में प्रसिद्ध हैं.

 चिड़ावा का दो आंखों वाला पेड़ा आपने खाया क्या, एक साल में बीकता है करीब 70 करोड़ का पेड़ा

झुंझुनूं: दिवाली के सीजन में मिठाई की बात चलती हैं. तो जुबां पर झुंझुनूं के चिड़ावा का नाम जरूर आता है. झुंझुनूं जिले के अधिकांश कस्बे किसी न किसी मिठाई के लिए प्रसिद्ध हैं. यहां के पेड़े और राजभोग की अलग पहचान है. इनमें भी पेड़े सबसे अलग हैं. चिड़ावा के पेड़े देशभर में प्रसिद्ध हैं. विदेशों में रहने वाले प्रवासी भी इनके मुरीद हैं. चिड़ावा कस्बें में पेड़ों का सालाना कारोबार करीब 70 करोड़ रुपए का है. इस काम से जुटे करीब 8 हजार लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला हुआ है. कभी चिड़ावा में सिर्फ एक दुकान हुआ करती थी. आज काफी दुकानें खुल चुकी हैं. यहां का पेड़ा देशभर में प्रसिद्ध है.

चिड़ावा के पेड़ों की खासियत भी अनूठी है. यहां के पेड़े में दो आंखें होती हैं. यानी पेड़े में अंगुली का निशान एक नहीं, बल्कि दो होते हैं. बाकी देश में कहीं भी ऐसा नहीं होता है. सब जगह के पेड़े में सिर्फ एक ही निशान होता है. चिड़ावा के कारोबारी इसे दो आंख वाला पेड़ा कहते हैं. यानी दो अंगुलियों के निशान सिर्फ चिड़ावा के पेड़ों पर ही होते हैं. बाकी देशभर में जहां भी पेड़े बनते हैं, उनके एक ही अंगूली का निशान होता है.

हालांकि देखादेखी में अब कई जगह दो निशान लगाने लग गए, लेकिन चिड़ावा के पेड़ों की दो आंखें देखते ही इसके मुरीद इसे पहचान लेते हैं. दो आंख के अलावा चिड़ावा का पेड़ा साइज में बड़ा और चपटा होता है. बाकी पेड़े साइज में छोटे और मोटे होते हैं. राजस्थान के साथ साथ हरियाणा-दिल्ली जाने वाली बसों में पेड़ा राजस्थान से बाहर जाता है. देश के कई बड़े शहरों, खासकर पूर्व और दक्षिण भारत के अधिकांश शहरों में ऑर्डर पर यहां से पेड़ा भेजा जाता है. यहां के पेड़ों की खास बात यह है कि ये लंबे समय तक खराब नहीं होते हैं. क्योंकि इनमें शुद्ध मावा काम में लिया जाता है. बनाने की तकनीक भी ऐसी है कि इन्हें कितने भी दिन सुरक्षित रखा जा सकता है.

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पेड़ों के लिए दूध की मांग बढ़ी
 जब से सालासर, खाटू व देश के अन्य धार्मिक स्थलों पर सवामणी करने का ट्रेंड बढ़ा है. तब से चिड़ावा के कारोबार ने भी गति पकड़ी है. पहले सिर्फ एक दो किलो खरीदने वाले ही थे. लेकिन सवामणियों के लिए 50 किलो से खरीद शुरू होती है. इस वजह से कारोबार बढ़ गया. इस कारोबार से क्षेत्र के हजारों लोगों को रोजगार मिला हुआ है. पशुपालक से लेकर दूध सप्लायर, मावा तैयार करने वाले और फिर पेड़ों की पैकिंग करने से लेकर उसकी सेल करने तक में जुड़े लोगों को रोजगार मिला हुआ है. पहले पेड़ा बाहर भेजने के साधन नहीं थे, इसलिए भी बिक्री कम होती थी. अब बस, ट्रेन आदि की खूब सुविधाएं हैं. इससे कारोबार को गति मिली है.

चिड़ावा कस्बे में कम से कम 50 कारोबारी ऐसे हैं जो सिर्फ मावा ही बनाते हैं. आसपास के गांवों से दूधिए दूध लाकर इन्हें देते हैं और यह मावा तैयार करते हैं. यहां से तैयार मावा पेड़ा कारोबारियों तक पहुंचता है. इसके बाद पेड़ा कारोबारी उसकी घुटाई करके पेड़े तैयार करते हैं. चिड़ावा एरिया में अकेले दूध के कारोबार से 200 से अधिक सप्लायर जुड़े हुए हैं. यह गांवों से दूध लाकर मावा तैयार करने वालों तक पहुंचाते हैं.

देशभर में यहां के पेड़ो की डिमांड 

 चिड़ावा के पेड़ों की एक अहम विशेषता यह भी है कि यह जल्दी खराब नहीं होते. इसकी वजह शुद्ध मावा, यहां का पानी, दूध व उसकी घुटाई को माना जाता है. त्योहारी सीजन के अलावा सालभर चिड़ावा के पेड़ों की डिमांड देशभर से आती रहती हैं. इसके लिए चिड़ावा के व्यापारियों ने अपनी साईट बना रखी हैं जिसपर लोग ऑनलाइन आर्डर करते हैं वही सालासर और खाटू श्याम में भी श्रद्धालु सवामनी के लिए यहाँ से पेड़ों मंगवाते हैं.

Reporter- Sandeep Kedia

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