Buddhadeb Bhattacharjee: एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री रहे लेकिन 2 BHK के मकान में गुजार दी जिंदगी
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Buddhadeb Bhattacharjee: एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री रहे लेकिन 2 BHK के मकान में गुजार दी जिंदगी

 

Buddhadeb Bhattacharjee passes away: पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और कद्दावर मार्क्सवादी नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य को इतिहास में एक व्यावहारिक कम्युनिस्ट के रूप में जाना जाएगा, जिन्होंने अपने राज्य में औद्योगीकरण के लिए पूंजीवादियों को लुभाने के वास्ते अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता तक की परवाह नहीं की थी.

Buddhadeb Bhattacharjee: एक बड़े राज्य के मुख्यमंत्री रहे लेकिन 2 BHK के मकान में गुजार दी जिंदगी

Buddhadeb Bhattacharjee Demise: भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक कई ऐसे मुख्यमंत्री हुए हैं, जिनके ऊपर भ्रष्टाचार करने के आरोप लगे. करप्शन भी कोई ऐसा वैसा नहीं असीम भ्रष्टाचार. ऐसे कुछ नेता अभी भौतिक जगत में मौजूद हैं लेकिन कई दुनिया को अलविदा कह चुके हैं. यही हाल पुलिस विभाग का है. भारत में अमूनन राज्य कोई भी हो नेताओं और पुलिसवालों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. खासकर भ्रष्टाचार के मामलों में मत पूछिए की क्या-कुछ नहीं कहा जाता राजनेताओं और पुलिस अधिकारियों को, अगर कोई किताब लिखने बैठे तो पांच सौ पन्ने भी कम पड़ जाएंगे. इसी राजनीति के दलदल में कुछ ऐसे भी नेता हुए हैं जो न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए मिसाल हैं. एक नहीं ऐसे कई नेता और पुलिसवाले हैं, जिनका नाम आज भी बड़े अदब और अहतेराम से लिया जाता है. ऐसे ही नेता थे  बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य जो अपनी इस जगत की यात्रा को पूरी करके अनंत यात्रा पर निकल गए. ऐसे में  अब आपको उनके बारे में वो सब कुछ बताते हैं, जो आपको जरूर जानना चाहिए.

पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और कद्दावर मार्क्सवादी नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य को इतिहास में एक व्यावहारिक कम्युनिस्ट के रूप में जाना जाएगा, जिन्होंने अपने राज्य में औद्योगीकरण के लिए पूंजीवादियों को लुभाने के वास्ते अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता तक की परवाह नहीं की थी. बेदाग छवि वाले उत्कृष्ट बंगाली ‘भद्रलोक’ कहे जाने वाले भट्टाचार्य को 2011 में राज्य में 34 साल के वामपंथी शासन के पतन के लिए भी याद रखा जाएगा. उन्होंने एक ऐसे युग का अंत देखा, जिसमें उन्होंने सबसे लंबे समय तक लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार का नेतृत्व किया, लेकिन राजनीतिक रूप से अत्यधिक ध्रुवीकृत राज्य में वाम मोर्चे को लगातार आठवीं बार जीत दिलाने में असफल रहे.

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भट्टाचार्य का 80 वर्ष की आयु में कोलकाता में उनके घर में बृहस्पतिवार को निधन हो गया. उनके परिवार में पत्नी और एक बेटी है. पश्चिम बंगाल के सातवें मुख्यमंत्री रहे भट्टाचार्य ने अपनी पार्टी की उद्योग विरोधी छवि मिटाने तथा बंगाल की मरणासन्न अर्थव्यवस्था में नयी जान फूंकने के उद्देश्य से औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए जी तोड़ मेहनत की. वह युवाओं के लिए रोजगार के अधिक अवसर पैदा करने के मुख्य लक्ष्य के साथ राज्य में उद्योग स्थापित करने के लिए निवेशकों और बड़े पूंजीवादियों को लुभाने में सक्रिय रूप से लगे रहे. पार्टी के शक्तिशाली पोलित ब्यूरो के सदस्य होने के बावजूद, उन्होंने निडरता से ‘बंद’ (हड़ताल) की राजनीति की निंदा की, जिसे वाम दल विभिन्न मुद्दों पर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए बात-बात पर इस्तेमाल करते थे.

पार्टी में और उसके बाहर इसके लिए उनकी आलोचना और प्रशंसा दोनों हुई. हालांकि, तेजी से औद्योगीकरण की महत्वाकांक्षा उनके और माकपा दोनों के लिए नासूर बन गई, क्योंकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने भूमि अधिग्रहण विरोधी प्रदर्शनों का चतुराई से फायदा उठाया. इन विरोध प्रदर्शनों ने माकपा सरकार के ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम किया. तृणमूल कांग्रेस ने 2011 में वाम दल को सत्ता से उखाड़ फेंका और राज्य की राजनीति में कम्युनिस्टों को हाशिये पर धकेल दिया.

कौन थे भट्टाचार्या?

भट्टाचार्य का जन्म एक मार्च 1944 को उत्तरी कोलकाता में एक विद्वान पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था. उनके दादा कृष्णचंद्र स्मृतितीर्थ एक संस्कृत विद्वान थे जिन्होंने पुजारियों के लिए एक पुस्तिका लिखी थी. वह प्रसिद्ध बंगाली कवि सुकांत भट्टाचार्य के दूर के रिश्तेदार थे, जिन्होंने आधुनिक बंगाली कविता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उन्हें खुद एक सफल लेखक के रूप में जाना जाता है और वह विभिन्न परिस्थितियों में रवींद्रनाथ टैगोर को उद्धृत करने में माहिर थे. भट्टाचार्य को सादगीपूर्ण जीवन जीने के लिए जाना जाता था क्योंकि वह मुख्यमंत्री रहने के दौरान और उसके बाद पाम एवेन्यू स्थित अपने दो कमरे के सरकारी फ्लैट में ही रहे. बंगाली में प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक करने के बाद उन्होंने पूरी तरह से राजनीति में आने से पहले एक शिक्षक के रूप में काम किया और 1960 के दशक के मध्य में माकपा में शामिल हो गए.

इस दौरान प्रमोद दासगुप्ता की नजर उन पर पड़ी, जिन्होंने बिमान बोस, अनिल विश्वास, सुभाष चक्रवर्ती और श्यामल चक्रवर्ती जैसे बंगाल के अन्य पार्टी नेताओं के साथ भट्टाचार्य को राजनीति का ककहरा सिखाया. वह 1977 में पहली बार कोसीपुर निर्वाचन क्षेत्र से विधानसभा के लिए चुने गए और 33 साल की उम्र में ज्योति बसु के नेतृत्व में वाम मोर्चा की पहली सरकार में सूचना और संस्कृति मंत्री बने. भट्टाचार्य ने बंगाली संस्कृति, रंगमंच, साहित्य और गुणवत्तापूर्ण फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए प्रशंसा अर्जित की और कोलकाता में फिल्म एवं सांस्कृतिक केंद्र ‘नंदन’ की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन 1982 में वह चुनाव हार गये. इसने उन्हें अपना निर्वाचन क्षेत्र बदलकर शहर के दक्षिणी हिस्से में जादवपुर से चुनाव लड़ना पड़ा और वह 1987 में राज्य मंत्रिमंडल में लौटे. हालांकि, एक नौकरशाह के साथ अपने अशिष्ट व्यवहार के लिए कथित तौर पर फटकार लगाए जाने के बाद उन्होंने 1993 में अचानक कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली और उन्होंने ‘दुष्शामाई’ (बैड टाइम्स) नामक नाटक लिखा.

जब बने राज्य के मुख्यमंत्री

उनकी स्थिति में उस समय नाटकीय बदलाव आया जब उम्रदराज हो चुके बसु का उत्तराधिकार तलाश रही और सत्ता विरोधी कड़ी लहर का सामना कर रही माकपा ने भट्टाचार्य को राज्य के गृह मंत्री के रूप में मंत्रिमंडल में फिर से शामिल किया. तीन साल के भीतर ही वह उपमुख्यमंत्री बने और आखिरकार नवंबर 2000 में मुख्यमंत्री के रूप में बसु का स्थान लिया.

अगले वर्ष उन्होंने राज्य विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चे को जीत दिलाई और कृषि प्रधान राज्य में तेजी से औद्योगीकरण के लिए महत्वाकांक्षी पहल शुरू की. उन्होंने निवेशकों को आकर्षिक करने के लिए अपनी विचारधारा तक की परवाह नहीं की और आए दिन बंद व हड़ताल का आह्वान करने वाले पार्टी के मजदूर संघ सीआईटीयू की सार्वजनिक रूप से निंदा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. लोगों को उनका यह कदम पसंद आया और उनकी लोकप्रियता चरम पर पहुंच गयी और वाम मोर्चे ने 2006 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज की. अपनी सरकार की विकासात्मक पहलों के कारण मीडिया ने उन्हें ‘ब्रांड बुद्ध’ की ख्याति दे डाली. उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि टाटा मोटर्स को सिंगुर में एक छोटा कार संयंत्र स्थापित करने के लिए आकर्षित करना था, जो शहर से बहुत दूर स्थित एक उपजाऊ कृषि क्षेत्र नहीं था. हालांकि, इस परियोजना को किसानों का कड़ा विरोध झेलना पड़ा जो कि वाम दलों का प्रमुख वोट बैंक था और अंतत: यह मार्क्सवादी सरकार के पतन की मुख्य वजहों में से एक बन गया.

उनकी सरकार को नंदीग्राम में आंदोलन का खमियाजा भी भुगतना पड़ा, जहां तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी के नेतृत्व में कृषि भूमि के अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन के कारण वाम मोर्चा के वोट बैंक में बड़ी गिरावट आई. पुलिस ने 14 मार्च 2007 को प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की, जिसके परिणामस्वरूप 14 लोगों की मौत हो गई और मार्क्सवादियों के लिए स्थिति खराब हो गई. सिंगूर में प्रस्तावित कार संयंत्र के पास ममता के धरने को समाप्त करने के लिए कोई निर्णायक कार्रवाई करने में उनकी विफलता भी उन पर भारी पड़ी और जनवरी 2008 में टाटा को पश्चिम बंगाल से बाहर जाना पड़ा और इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चे को सत्ता से बाहर का रास्ता देखना पड़ा.

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