World Bank ने दावा किया है कि एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने से अगले 25 सालों में ग्लोबल एक्सपोर्ट में 3.8% की कमी आ सकती है. वहीं दवाओं के बेअसर होने से जान का खतरा भी बढ़ा है.
Trending Photos
WHO के अनुमान के मुताबिक एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस यानी दवाओं के बेअसर होने की वजह से हर साल दुनिया में 10 लाख से ज्यादा लोग मारे जा रहे हैं. दक्षिण एशियाई देशों में 4 लाख लोगों की मौत ऐसे खतरनाक इंफेक्शन से हो रही है जिन पर कोई दवा असर नहीं कर रही. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आंकलन किया है कि जिस स्तर पर आज समस्या नजर आ रही है. अगर ये हल नहीं की जा सकी तो 2050 तक दुनिया में एक करोड़ लोग इस वजह से मारे जाएंगे क्योंकि उन पर दवाएं असर नहीं कर रही होंगी. आपको बता दें कि एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस इंसान की जान पर बने दस सबसे बड़े खतरों में शामिल है.
वर्ल्ड बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने की वजह से अगले पच्चीस सालों में ग्लोबल एक्सपोर्ट में 3.8% की कमी आ सकती है, हर साल पैदा होने वाला लाइव स्टॉक जैसे मीट और डेयरी प्रॉडक्टस सालाना 7.5% की दर से कम हो सकते हैं और स्वास्थ्य पर आने वाले खर्च में 1 ट्रिलियन डॉलर की बढ़त हो जाएगी. एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस का मतलब है इंफेक्शन से लड़ने वाली ज़रुरी दवाओं का बेअसर हो जाना,
क्यों बेअसर हो रही हैं दवाएं?
सर्जरी के दौरान होने वाले इंफेक्शन, कैंसर के इलाज के दौरान चल रही कीमोथेरेपी से होने वाले इंफेक्शन को रोकने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं की एक तय डोज दी जाती है लेकिन लंबे समय तक बार बार इन दवाओं को इस्तेमाल करते रहने से इन दवाओं का असर कम होने लगता है.
70 प्रतिशत मरीजों की जान खतरे में- एम्स
एम्स के नए एनालिसिस के मुताबिक देश भर के आईसीयू में भर्ती गंभीर इंफेक्शन के शिकार कई मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही है. ऐसे मरीजों के बेमौत मारे जाने का खतरा है. एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होते चले जाने का हाल ये हो गया है कि सबसे लेटेस्ट दवा जिसे विश्व स्वास्थय संगठन ने रिजर्व कैटेगरी में रखा है वो भी अब कई बार काम नहीं कर रही. रिजर्व कैटेगरी की दवा का मतलब होता है कि इसे चुनिंदा मौकों पर ही इस्तेमाल किया जाए.
लेकिन देखा गया कि सबसे असरदार एंटीबायोटिक भी केवल 20 परसेंट मामलों में ही कारगर पाए जा रहे हैं. यानी बाकी बचे 60 से 80 परसेंट मरीज खतरे में हैं और उनकी जान जा सकती है. इसकी वजह धड़ल्ले से मरीजों और डॉक्टरों का मनमर्जी से एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करना है.
भारत की सबसे बड़ी मेडिकल रिसर्च संस्था आईसीएमआर ने पिछले वर्ष जनवरी से लेकर दिसंबर तक देश के 21 अस्पतालों से डाटा इकट्ठा किया. इन अस्पतालों में आईसीयू में भर्ती मरीजों के 1 लाख सैंपल्स इकट्ठे किए गए. इस जांच में 1747 तरह के इंफेक्शन वाले बैक्टीरिया मिले. इन सभी में दो बैक्टीरिया - ई कोलाई बैक्टीरिया (bacterium Ecoli) और क्लैबसेला निमोनिया (Klebsiella pneumonia) के बैक्टीरिया सबसे ज्यादा जिद्दी हो चुके हैं. इन बैक्टीरिया के शिकार मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही थी.
2017 में ई कोलाई बैक्टीरिया के शिकार 10 में से 8 मरीजों पर दवाओं ने काम किया था लेकिन 2022 में 10 में से केवल 6 मरीजों पर दवाओं ने काम किया. 2017 में क्लैबसेला निमोनिया (Klebsiella pneumonia) इंफेक्शन के शिकार 10 में से 6 मरीजों पर दवाओं ने काम किया लेकिन 2022 में 10 में से केवल 4 मरीजों पर दवाएं काम कर रही थी. इंफेक्शन मरीजों के ब्लड तक पहुंच कर उन्हें बीमार से और बीमार कर रहा है.
एंटीबायोटिक दवाओं के काम ना करने की समस्या केवल अस्पताल में भर्ती गंभीर मरीजों तक सीमित नहीं है. पेट खराब होने के मामलों में ली जाने वाली कॉमन एंटीबायोटिक दवाएं भी मरीजों पर बेअसर साबित हो रही हैं.
अस्पतालों में जानलेवा इंफेक्शन का खतरा क्यों ज्यादा होता है?
अस्पतालों में आईसीयू में, मरीज को लगाए जाने वाले कैथेटर, कैन्युला और दूसरे डिवाइस में कई बैक्टीरिया और जीवाणु पनपते रहते हैं. ये इंफेक्शन पहले से बीमार और कमजोर इम्युनिटी वाले मरीजों को और बीमार करने लगते हैं. लंबे समय तक आईसीयू में भर्ती मरीजों को ऐसे इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है.
अब ये इंफेक्शन खून में पहुंच रहे हैं. खून में पहुंचने का मतलब है कि पूरे शरीर में सेप्सिस होने का खतरा – इस कंडीशन के गंभीर होने पर धीरे धीरे मरीज के अंग काम करना बंद करने लगते हैं. जिसे मल्टी ऑर्गन फेल्यर कहा जाता है.
कैसे हो सकता है एंटीबायोटिक रेजिसटेंस की समस्या का हल?
अस्पतालों और डॉक्टरों के लिए आईसीएमआर की गाइडलाइंस हैं कि किन मामलों में एंटीबायोटिक दवाएं इस्तेमाल की जाएं और किन मामलों में नहीं, लेकिन इनका पालन नहीं किया जाता. पोल्ट्री यानी मुर्गे, बकरे और गाय भैंस से मिलने वाले मीट, दूध और अंडों के जरिए एंटीबायोटिक अंजाने में लोगों को मिल जाते हैं. अस्पताल और इंडस्ट्री के वेस्ट के जरिए ग्राउंड वॉटर में एंटीबायोटिक घुलने की पुष्टि भी कई रिसर्च में हो चुकी है.
खुद मरीजों के केमिस्ट से सीधे एंटीबायोटिक दवाएं लेकर खा लेने और आधा कोर्स करके उसे छोड़ देने की वजह से भी ये दवाएं बेअसर हो रही हैं. अस्पतालों में इंफेक्शन वाले बैक्टीरिया जिन्हें सुपरबग्स का नाम भी दिया गया है, उन पर लगाम लगाने के लिए इंफेक्शन कंट्रोल पर भी काम किया जा रहा है. हालांकि पूरे देश के छोटे बड़े अस्पतालों में उस नेटवर्क को तैयार होने और पूरी तरह से काम करने में कई साल लग सकते हैं.