आकाश आनंद, यह नाम पिछले 24 घंटे से काफी चर्चा में है. यूपी के युवा चेहरे को एक पार्टी का उत्तराधिकारी बनाया गया है. ऐसे समय में जब भाजपा ने परिवारवाद की पॉलिटिक्स को ध्वस्त कर दिया है मायावती ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अपने भतीजे आकाश को कमान सौंप दी है. उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती चंद्रशेखर आजाद के रूप में उभरे प्रतिद्वंद्वी को रोकना है.
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Akash Anand News: दो दशक बाद कांशीराम की बनाई बहुजन समाज पार्टी को नया उत्तराधिकारी मिल गया है. 2001 में जब कांशीराम ने पार्टी की कमान मायावती के हाथों में सौंपी थी तब पार्टी का ग्राफ बढ़ रहा था. अगले ही साल मायावती फिर से मुख्यमंत्री बन गईं. अब उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद (Mayawati Nephew) पर भरोसा जताया है जबकि कांशीराम ने मायावती को मेरिट के आधार पर चुना था लेकिन माया को शायद सबसे योग्य अपना भतीजा ही लगा. खैर, पार्टी कार्यकर्ता जोश में हैं. कह रहे हैं कि पूरा बहुजन समाज खुश है. वैसे आकाश का नाम पहली बार 2017 में ही बसपा से जुड़ गया था. पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने आगरा में एक रैली भी की थी. पार्टी के नेता बताते हैं कि उन्होंने लंदन से एमबीए किया है. पार्टी को उम्मीद है कि एक युवा नेता के तौर पर आनंद पार्टी संगठन को मजबूत करेंगे. उनकी उम्र अभी 27-28 साल बताई जा रही है. सोशल मीडिया पर आकाश आनंद खुद को 'बाबा साहब के विजन का युवा समर्थक' लिखते हैं. ऐसे समय में जब बसपा देश तो क्या यूपी की राजनीति से भी ओझल होती जा रही है, लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उत्तराधिकारी की घोषणा पार्टी में जान फूंकने में कामयाब हो पाएगी? यह बड़ा सवाल है.
बसपा की सबसे बड़ी चुनौती
बसपा के उतार-चढ़ाव को समझने वाले राजनीतिक जानकार इस सवाल का जवाब ढूंढ रहे हैं. मायावती ने ऐसे समय में पार्टी की कमान अपने हाथों में ली थी जब यूपी में बसपा का बड़ा जनाधार था. अनुसूचित जाति एवं जनजाति के साथ-साथ दूसरे वर्गों के वोट भी उसके पक्के माने जाते थे. आगे चलकर ब्राह्मण वोट भी बसपा के साथ हो गए लेकिन 2014 के बाद भारतीय राजनीति ने करवट ली. अब सिर्फ जातीय गणित के आधार पर हार जीत नहीं होती और बसपा के 'कट्टर' समर्थक भी नहीं रहे. वे या तो भाजपा के साथ हो गए या सोच-समझकर हर चुनाव में फैसला लेते हैं. चुनौती इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि अब हरिजन वोटरों के रहनुमा के तौर पर मायावती अकेली नहीं हैं. सभी पार्टियों ने शोषित, वंचित समाज की बात कहनी और उन्हें प्रतिनिधित्व देना शुरू कर दिया है. आम चुनाव में कुछ ही महीने बाकी हैं. बसपा के सामने तो सबसे बड़ी चुनौती उन्हीं के रंग और ढर्रे पर राजनीति कर रहे चंद्रशेखर आजाद से मिलने वाली है.
वह भी कांशीराम और बाबा साहब आंबेडकर का नाम लेते हैं और सहारनपुर समेत पश्चिम यूपी के एक बड़े हिस्से में अच्छा समर्थन जुटा लिया है. सोशल मीडिया 'एक्स' पर उन्हें 11 लाख से ज्यादा फॉलोअर्स हैं. युवाओं में उनकी अच्छी पकड़ है. वह कहते हैं, 'जब तक हम देश से सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी खत्म करके मानवतावादी राज स्थापित नहीं करते तब तक हमारा संघर्ष जारी रहेगा.' उनके आगे बढ़ने की वजह भी मायावती की सुस्ती ही मानी जा रही है. उन पर सीबीआई की तलवार हमेशा लटकती रहती है. ऐसे में अंदरखाने उन्होंने राजनीति से एक तरह से दूरी बना ली. कुछ लोग इसे बीजेपी को मौन समर्थन भी कह देते हैं. अब लोकसभा चुनाव करीब आते ही मायावती ने एक और दांव चला है. वह शायद खुद को राजनीतिक पिच से दूर करना चाहती हैं. लेकिन 2001 की तुलना में आज 2023 में अपने उत्तराधिकारी को वह विरासत में कैसी पार्टी सौंप रही हैं?.
मायावती को विरासत में क्या मिला था?
तब आईएएस की तैयारी कर रही मायावती की भाषण कला देखकर कांशीराम ने उन्हें पार्टी जॉइन करने का ऑफर दिया था. 1989 में वह पहली बार सांसद बनीं. 94 में राज्यसभा पहुंचने के बाद अगले ही साल उन्होंने यूपी की पहली दलित महिला सीएम बनकर इतिहास रच दिया. फिर मायावती ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. 2001 का साल आया और कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. बसपा मतलब मायावती हो गया. 2007 में मायावती चौथी बार यूपी की सीएम बनीं. 2012 में अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद बसपा का वोटबैंक खिसकता ही गया. बची-खुची कसर भाजपा के हिंदू वोटरों को एकजुट करने के हिंदुत्व के एजेंडे ने पूरी कर दी.
क्या से क्या हो गया देखते-देखते!
जरा गौर कीजिए 2007 में यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा ने 403 में से 206 सीटें जीती थीं और उसे 36.7 प्रति वोट मिले थे. डेढ़ दशक बाद स्थिति ऐसी हो गई कि 2022 के चुनाव में उसे केवल एक सीट ही मिल सकी और राज्य में वोट शेयर खिसक कर 12.7 प्रतिशत पर आ गया. जबकि यूपी में दलित वोटर 20 प्रतिशत हैं. मायावती ने 2012, 2017 और 2022 में हार की हैटट्रिक लगाई. सतीश चंद्र मिश्रा भले ही बसपा में हों पर ब्राह्मण अब बसपा के साथ नहीं है. उसकी सोशल इंजीनियरिंग पूरी तरह से फ्लॉप हो चुकी है. मुसलमान सपा को वोट देते हैं या फिर कांग्रेस में उम्मीद देख रहे हैं. अति पिछड़ा वर्ग भी भाजपा के प्रति ज्यादा लालायित है. ऐसे में आकाश आनंद को विरासत में जो बसपा मिली है उसकी स्थिति बेहद खराब है. चंद्रशेखर आजाद की रैली का एक नजारा देख लीजिए. जल्दी में देखेंगे तो लगेगा कि बसपा की ही रैली होगी. कुछ लोग यह भी कहते हैं कि आजाद ने एक तरह से बसपा के वोटबैंक पर 'कब्जा' कर लिया है.
आज आगरा में संविधान दिवस के अवसर पर भीम आर्मी व आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के तत्वाधान में संविधान बचाओ विशाल जनसभा में अपनों के बीच। pic.twitter.com/PMmCrdqD6t
— Chandra Shekhar Aazad (@BhimArmyChief) November 26, 2023
आजाद vs आनंद
कहा जा रहा है कि दलितों में तेजी से लोकप्रिय होते चंद्रशेखर को चुनौती देने के लिए ही मायावती ने एक युवा चेहरे को उत्तराधिकारी बनाया है. हालांकि यह सवाल तो चंद्रशेखर भी पूछेंगे कि कांशीराम ने तो अपने परिवार के सदस्य को पार्टी नहीं सौंपी तो माया ने परिवारवाद को क्यों अपनाया. चुनाव में भाजपा भी इसे मुद्दा जरूर बनाएगी. चंद्रशेखर ने खुद को हाल के वर्षों में एक जुझारू और धाकड़ युवा नेता के तौर पर स्थापित कर लिया है, आनंद के लिए तो पूरी सियासी जमीन बंजर सी लगती है. देखना यह है कि बसपा का युवा चेहरा लोकसभा चुनाव में पार्टी को कितना फायदा पहुंचा सकता है.
आनंद पर पूरी जिम्मेदारी अभी नहीं