darul uloom का मतलब Islamic seminary होता है. यह अरबी शब्द है जिसका अर्थ ज्ञान का घर कह सकते हैं. हालांकि इस समय यह इस्लामिक सेंटर भारत के खिलाफ गजवा-ए-हिंद कॉन्सेप्ट का सपोर्ट कर घिर गया है. ऐसे में यह समझना जरूरी है कि देवबंद की स्थापना क्यों हुई थी?
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Darul Uloom Deoband History: गजवा-ए-हिंद का सपोर्ट कर दारुल उलूम देवबंद विवाद में घिर गया है. इसे बैन करने की मांग होने लगी है. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के ऐक्शन लेने के निर्देश के बाद भाजपा, विश्व हिंदू परिषद ही नहीं, सोशल मीडिया पर आम लोगों ने देवंबद के खिलाफ गुस्सा जाहिर किया है. वास्तव में यह एक मदरसे से कहीं बढ़कर है. यह इस्लामी विचारधारा को बढ़ावा देता है, जिसके कई देशों में फॉलोअर हैं. भारत में इस्लामी शिक्षा का सबसे बड़ा और पुराना सेंटर होने के कारण देवबंद के फतवे पर लखनऊ से दिल्ली तक की सियासत गरम हो गई है. आइए जानते हैं कि देवबंद की स्थापना कब और किसलिए की गई थी?
दारुल उलूम की वेबसाइट पर इसकी स्थापना की पृष्ठभूमि बताई गई है. पढ़िए कैसे मुसलमानों के शासन से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के पहुंचने और दारुल उलूम के अस्तित्व में आने की कहानी बताई गई है. इसका लिंक सहारनपुर जिले की सरकारी वेबसाइट पर भी उपलब्ध है. आगे की लाइनें देवबंद की हैं.
मुस्लिम बादशाहों की हुकूमत
'स्वर्ग समान भारतवर्ष में मुसलमान बादशाहों के शासन काल का दौर बड़ा प्रकाशमान रहा है. मुस्लिम शासकों ने भारत की उन्नति और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी साख मजबूत कर ऐसे कार्य किए जो भारत के इतिहास में सुनहरे शब्दों में लिखे जाने के योग्य है. इस्लामी हुकूमत का आरम्भ पहली शताब्दी हिजरी (सातवीं ईसवी शताब्दी) से हो जाता है. गंगा-जमुना की लहरों की तरह यह सल्तनत अपने स्थान से चलकर देश के हर भाग पर लहराती, बलखाती फैलती चली जाती है. 18वीं ईसवी तक पूरी शान के साथ मुस्लिम शासक हिन्दुस्तानियों के दिलों पर शासन करते हैं. यह कहना अनुचित न होगा कि औरंगज़ेब आलमगीर मुस्लिम हुकूमतों के उत्थान और पतन के बीच सीमा रेखा थे.
उनकी मृत्यु के बाद देश खण्डित हो गया और संयुक्त भारत अलग-अलग प्रांतों और रजवाड़ों में बंटता चला गया. वैसे, इसके बाद भी डेढ़ सौ साल तक मुगलों की हुकूमत रही मगर यह निर्जीव थी... सोलहवी शताब्दी के अंत में अंग्रेज व्यापारी भारत में आने लगे. 1600 ईसवी में महारानी एलिजाबेथ की आज्ञा से ईस्ट इण्डिया कम्पनी स्थापित हो गई थी. डेढ़ सौ साल तक इन लोगों को केवल अपने व्यापार से ही संबंध या संपर्क रहा लेकिन जब आलमगीर और मुअज़्ज़मशाह की मुग़लिया परिवार की हुकूमतों में फूट पड़ने लगी और देश में आंतरिक युद्ध आरम्भ हो गए तब लाभ उठाकर अंग्रेज भी मैदान में उतर आए और धोखेबाजी से प्रत्येक प्रांत में विश्वासघात को जन्म दिया.
अंग्रेजों ने टिड्डी दल फौज लेकर बंगाल, मैसूर, पंजाब, सिंध, बर्मा और अवध को विजय करते हुए 1857 में दिल्ली के लाल किले पर भी कब्ज़ा कर लिया. मुगल परिवार के अंतिम चिराग बहादुर शाह ज़फर को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया जहां वह मृत्यु की गोद में सो गए. इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी पूरे भारत पर छा गई.
अंग्रेजों के निशाने पर मुसलमान थे
1857 में पूरे मुल्क में स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी गई, मगर इस युद्ध में असफलता मिली. इसके बाद भारतीयों पर अत्याचार शुरू हो गए. ये इतने कठोर थे कि सुनकर हृदय कांप उठता है. अंग्रेजों के अत्याचार का सीधा निशाना मुसलमान थे क्योंकि हुकूमत मुसलमानों से ही छीनी गई थी. उन्हें मुसलमानों से गड़बड़ी की ज्यादा आशंका थी. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश गवर्नर जनरल ने घोषणा कर दी थी कि हमारे विरोधी वास्तव में मुसलमान हैं...
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में लगभग दो लाख मुसलमान शहीद हुए जिनमें पचपन हज़ार से अधिक उलमा (मोलवी) थे.
अंग्रेज़ अपने बुरे इरादों के तहत धीरे-धीरे भारत की राजनीतिक, शैक्षिक और प्रशासनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करने लगे थे. इस उद्देश्य से बाइबिल सोसाइटियां स्थापित की गईं. ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्कीम यह थी कि भारत के निवासियों विशेष रूप से मुसलमानों को असहाय और निर्धन बना दिया जाए जिसके लिए उचित और अनुचित साधनों को अपना कर कार्य किया जाता था. इस मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट मुसलमानों की शिक्षा थी. इसके लिए 1835 का शैक्षिक प्रोग्राम बनाया गया जिसकी आत्मा लार्ड मैकाले के विचार में इस प्रकार थी- एक ऐसी जमात तैयार की जाए जो रंग और नस्ल के लिहाज से तो हिन्दुस्तानी हो मगर विचार और व्यवहार के लिहाज़ से ईसाइयत के सांचे में ढली हो.
अंग्रेज़ी सभ्यता की यह चाल, मुसलमानों की धार्मिक ज़िन्दगी, सामाजिक रस्म-ओ-रिवाज और ज्ञान-विज्ञान को बरबाद करने वाली थी. इसे स्वीकार करने को वे किसी भी प्रकार से तैयार नहीं हो सकते थे. अभी तक वह अपनी धार्मिक ज़िन्दगी बरक़रार रखने का कोई समाधान न सोच सके थे कि 1857 का युद्ध छिड़ गया. लोगों के दिलों पर मायूसी की घटाएं छा गईं.
अनार के पेड़ के नीचे मदरसा
भारत में मुसलमानों की संस्कृति को मिटाने और नेतृत्व को समाप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा था. हज़रत मौलाना मुह़म्मद क़ासिम नानौतवी और हाजी मुह़म्मद आबिद के साथियों ने अंग्रेज़ों को अपने उद्देश्य में असफल बनाने और मुसलमानों को एक केंद्र पर लाने के लिए 31 मई 1866, बृहस्पतिवार के दिन मस्जिद छता में अनार के पेड़ के नीचे एक मदरसा इस्लामिया अरबिया (दारुल उ़लूम देवबन्द) स्थापित किया. इसकी वास्तविकता स्वतन्त्रता संग्राम के लिए एक फौजी छावनी की थी, जिसपर शिक्षा का सुनहरा पर्दा डाल दिया गया था.
जिहाद का गढ़ बना मदरसा
इस वास्तविकता का वर्णन ब्रिटिश सरकार की सीआईडी ने अपनी गुप्त रिपोर्ट में किया है- रेशमी रूमाल षडयन्त्र में जो मोलवी शामिल हैं वे तमाम इसी मदरसे दारुल उ़लूम से शिक्षा प्राप्त किए हैं. बाद में यह मदरसा इस्लामी संगठन और जिहाद का गढ़ और मौलाना महमूद हसन ने अपने प्रधानाध्यापक होने के समय में जो जिहाद का आंदोलन शुरू किया था, उसका केंद्र बना.
दारुल उलूम देवबंद की स्थापना किसी समय के आवेश या व्यक्तिगत हौसले के आधार पर नहीं बल्कि इसकी नींव एक निश्चित स्कीम और एक जमात की सोची समझी स्कीम के तहत रखी गई. दारुल उ़लूम की स्थापना के बाद शाह रफ़ीउद्दीन देवबन्दी हज के लिए मक्का मुअज़्ज़मा गए तो वहां हजरत हाजी इमदादुल्ला साह़ब से अर्ज़ किया- हमने देवबन्द में एक मदरसा स्थापित किया है. उसके लिए दुआ फरमाइए तो हज़रत हाज़ी साहब ने फरमाया- सुबहानल्लाह, आप फरमाते हैं कि हमने मदरसा स्थापित किया है. यह खबर नहीं कि कितने सिर सुबह के समय सज्दे करके गिड़गिड़ाते रहे कि ऐ अल्लाह हिन्दुस्तान में इस्लाम की सुरक्षा का कोई साधन पैदा कर दे. यह मदरसा उन्हीं की दुआओं का फल है. देवबन्द का भाग्य है.
दारुल उलूम का मकसद
इस तरह हजरत नानौतवी और हजरत हाजी मुहम्मद आबिद साहब आदि ने दारुल उलूम स्थापित कर यह घोषणा कर दी कि हमारी शिक्षा का उद्देश्य ऐसे नवयुवक तैयार करना है जो रंग और नस्ल के लिहाज़ से हिन्दुस्तानी हों और दिल दिमाग से इस्लामी हों. जिनमें इस्लामी सभ्यता और संस्कृति की भावना जागी हो, वे दीन और सियासत के आधार पर इस्लामी हों. इसका एक लाभ यह हुआ कि भारत में पाश्चात्य सभ्यता के फैलाव पर रोक लग गई. एक ओर ब्रिटिश समर्थकों ने जन्म लिया, दूसरी ओर मशरक़ियत (इस्लामी सभ्यता) का पालन करने वालों की जमात ने सामने आकर मुक़ाबला किया....
यह है मदरसा अ़रबी इस्लामी देवबन्द यानी अ़रबी मदरसों की जननी की स्थापना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, जिससे स्पष्ट है कि दारुल उ़लूम देवबन्द उसी क्रांति का केन्द्र है जिसको इमामुल हिन्द शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी ने स्थापित किया था. उसी क्रांति का रक्त दारुल उ़लूम की रगों में अभी तक संचार कर रहा है.