आर्टिकल 370 को अस्थायी प्रावधान बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया है.सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 370 को निरस्त किए जाने को सही करार दे दिया है. अपना फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये माना कि आर्टिकल 370 एक अस्थायी प्रावधान था. सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला देते हुए ये भी कहा कि संविधान सभा की सिफारिशें राष्ट्रपति पर बाध्य नहीं थीं. 5 जजों की संविधान पीठ ने इस मामले पर तीन फैसले दिए हैं. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ इस बेंच की अध्यक्षता कर रहें थे.
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आर्टिकल 370 पर 5 जजों की बेंच ने अपना ऐतिहासिक फैसला दे दिया है. ये फैसला चीफ जस्टिस आॉफ इंडिया की अध्यक्षता वाली बेंच ने सर्वसम्मति से दिया. सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने इस मामले में फैसला सुनाया है उसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, बीआर गवई और सूर्यकांत शामिल हैं. सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने अपने फैसले में जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म करने का फ़ैसला बरकरार रखा है. इसके अलावा अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि अगले साल सितंबर तक जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने के लिए जरुरी क़दम उठाने चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जम्मू-कश्मीर को एक पूर्ण राज्य का दर्जा जितनी जल्दी बहाल किया जा सकता है, कर देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला पढ़ते हुए कहा कि आर्टिकल 370, युद्ध जैसी स्थिति में एक अंतरिम प्रावधान था. जोकि इसके टेक्स्ट को देखने से भी पता चलता है कि ये कोई स्थाई व्यवस्था नहीं बल्कि एक अस्थायी प्रावधान था. इसके बाद जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट संविधान के आर्टिकल 370 को रद्द करने के लिए आदेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति और लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने के फैसले को भी वैध मानता है.
याचिका जिसपर आया है फैसला
दरअसल साल 2019 में केंद्र की बीजेपी सरकार ने राष्ट्रपति शासन के दौरान ही आर्टिकल 370 हटाया था.केंद्र सरकार ने साल 2019 में आर्टिकल 370 को रद्द कर के जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया था. केंद्र के इस फैसले के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी जिसमें याचिकाकर्ताओं ने राष्ट्रपत्ति शासन के समय केंद्र सरकार के इस फैसले को असवैंधानिक बताया था. याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी और कहा थी कि राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्र की सरकार राज्य की तरफ से इतना अहम फैसला नहीं ले सकती है.
फैसले के वक्त चीफ जस्टिस की बड़ी बातें
इस मामले पर फैसला पढ़ते हुए सीजेआई ने कुछ बड़ी और अहम बातें भी कही. जिसमें सबसे पहले उन्होंने ये माना की विलय के बाद जम्मू कश्मीर के पास
आंतरिक संप्रभुता का कोई अधिकार नहीं है. आर्टिकल 370 को चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने एक अस्थाई प्रावधान बताया और जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य और लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने के फैसले को वैध बताया. राष्ट्रपत्ति शासन के समय लिए गए इस अहम फैसले के समर्थन में डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि राष्ट्रपति शासन की घोषणा को चुनौती देना वैध नहीं है,संविधान सभा के भंग होने के बाद भी राष्ट्रपति के आदेशों पर कोई प्रतिबंध नहीं होता और क्योंकि राष्ट्रपति की शक्ति का प्रयोग दुर्भावनापूर्ण नहीं था और इस लिए राज्य से सहमति लेना ज़रूरी नहीं था. अपना फैसला पढ़ते हुए चीफ जस्टिस ने ये भी कहा कि जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल कर के जम्मू कश्मीर में जल्द से जल्द चुनाव करवाना चाहिए.
ये टाइमलाइन समझना जरुरी है.
महाराजा हरि सिंह ने विलय पत्र में किया था हस्ताक्षर
आजादी की तारीख से पहले भारत की सभी रियासतों का एकीकरण होना था. लगभग सभी रियासतों से बात हो चुकी थी लेकिन तीन रियासतों पर पेंच फंस गया था. जिसमें से पहला जूनागढ़, दूसरा हैदराबाद और तीसरी रियासत थी जम्मू कश्मीर की. उस समय भारत के आगे ये बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी क्योंकि भारत के इन अलग अलग रियासतों का एकीकरण कर के एक देश में बदलना था. जूनागढ़ और हैदराबाद दो ऐसी रियासत थी जो क्योंकि बार्डर पर नहीं थी तो आसानी से मैनेज हो सकती थी लेकिन कश्मीर बार्डर स्टेट था इसलिए यहां की स्थिति इतनी आम नहीं थी.
आखिरकार जम्मू और कश्मीर के आखिरी शासक महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 में भारत में शामिल होने के लिए विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए. हालंकि जिस विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे उनके मुताबिक, भारतीय संघ की शक्तियां कश्मीर के विदेशी मामलों, रक्षा और संचार तक ही सीमित थी. इन सबके अलावा इस प्रदेश का अपना संविधान भी था.
जब भारत का सविंधान लागू हुआ
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था. इसके आर्टिकल 370 में कश्मीर की एक रुपरेखा तय की गई. अनुच्छेद 370 में कहा गया था कि भारत अपनी सरकार की सहमति के बिना विलय पत्र से निर्धारित दायरे के बाहर जम्मू-कश्मीर के लिए कोई भी कानून नहीं बनाएगा. इसके अलावा सविंधान में ये भी कहा गया कि भारतीय सविंधान के आर्टिकल 1 और आर्टिकल 370 को छोड़कर संविधान का कोई भी हिस्सा जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होगा. राष्ट्रपत्ति के अधिकारों के जिक्र में सविंधान में लिखा गया कि भारत के राष्ट्रपति संविधान के किसी भी प्रावधान को 'संशोधनों' या 'अपवादों' के साथ जम्मू-कश्मीर में लागू कर सकते हैं लेकिन इसमें उन्हें राज्य सरकार के साथ राय मशवरा करना होगा.
जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा का गठन और कश्मीर का सविंधान
31 अक्टूबर, 1951 को जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का गठन किया गया. इसमें 75 सदस्य थे जोकि नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी से ताल्लुक रखते थे. इन सदस्यों का लक्ष्य था जम्मू-कश्मीर के लिए एक संविधान का ड्राफ्ट तैयार करना. इसके बाद 1952 में केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार के बीच दिल्ली समझौता हुआ. यह समझौता संसद की ओर से प्रयोग की जाने वाली residual powers, आर्टिकल 248 से जुड़ा था. आसान भाषा में कहा जाए तो ये समझौता उन मामलों को लेकर था जो अभी तक लिस्टेड नहीं हैं. इस समझौते ने भारतीय संविधान के कुछ और प्रावधानों जैसे की मौलिक अधिकार, नागरिकता, व्यापार और वाणिज्य, यूनियन के चुनाव और विधायी शक्तियां को भी जम्मू कश्मीर में विस्तारित किया. इसके बाद 14 मई 1954 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने दिल्ली समझौते में सहमत शर्तों को लागू करने के लिए राष्ट्रपति आदेश जारी कर दिया. इस आदेश ने जम्मू और कश्मीर को क्षेत्रीय अखंडता की गारंटी दी और आर्टिकल 35A सामने आया जो जम्मू और कश्मीर के परमानेंट सिटीजन को विशेष अधिकार देता था. 17 नवंबर 1956 को जम्मू-कश्मीर के संविधान को अपनाया गया और ये घोषणा हुई की'जम्मू और कश्मीर राज्य भारत संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा'
संविधान सभा की सिफारिश के बाद ही अनुच्छेद 370 खत्म होगा
2016 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि संविधान सभा की सिफारिश के बाद ही आर्टिकल 370 खत्म होगा. सुप्रीम कोर्ट ने संघ के कानून को बरकरार रखा.
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 370 के क्रियान्वयन के लिए कोई निश्चित समयसीमा का उल्लेख नहीं किया गया है. यह प्रावधान तब तक प्रभावी रहेगा जब तक कि इसे समाप्त करने के लिए संविधान सभा की ओर से सिफारिश नहीं की जाती. इसके बाद बीजेपी ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) से अपना समर्थन वापस ले लिया. जिसके बाद जम्मू कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू हो गया.
जम्मू-कश्मीर के संविधान के आर्टिकल 92 के तहत राज्यपाल शासन को छह महीने से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता था जिसके कारण 19 दिसंबर 2018 को राज्यपाल शासन समाप्त हो गया. इसी दिन तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संविधान के आर्टिकल 356 के तहत जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाने की उद्घोषणा जारी की.जम्मू-कश्मीर पर राष्ट्रपति शासन 2 जुलाई 2019 को समाप्त होने की उम्मीद थी लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 3 जुलाई 2019 से इसे छह महीने के लिए बढ़ा दिया था.
इसके बाद राष्ट्रपत्ति का अहम आदेश
2019 में राष्ट्रपति ने 'संविधान सभा' के अर्थ में संशोधन का आदेश जारी किया. तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने एक आदेश जारी किया, जिसमें आर्टिकल 370 (3) के तहत 'संविधान सभा' की व्याख्या को अनुच्छेद 367-व्याख्या खंड में संशोधन करके 'विधानसभा' कर दिया गया. इसका मतलब था कि अब राष्ट्रपति का कोई भी आदेश विधानसभा' की मंजूरी के अधीन होगा. अब क्योंकि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था, इसलिए विधानसभा की सहमति की के बदले संसद की सहमति ली गई.
और आर्टिकल 370 रद्द हो गया
5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 विधेयक को गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में पेश जोकि उसी दिन पारित कर दिया गया. इसे बाद ये विधेयक 6 अगस्त 2019 को लोकसभा की ओर से पारित कर दिया गया. आखिरकार 9 अगस्त 2019 को इसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई थी, जिससे जम्मू-कश्मीर को दिया गया विशेष दर्जा हट गया था.
राष्ट्रपति के आदेश के परिणामस्वरूप अनुच्छेद 370 की क्लॉज 1 को छोड़कर सभी प्रावधान समाप्त हो गए. क्लॉज 1 में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर राज्य में भारत का संविधान चलेगा. इसके बाद जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- 'जम्मू और कश्मीर' और 'लद्दाख' में विभाजित कर दिया.