"कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए, वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था"
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"कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए, वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था"

Akhtar Hoshiyarpuri: अख्तर होशियारपुरी ने उर्दू अदब खास काम किया. इसके लिए उन्हें पाकिस्तान सरकार की तरफ से तमगा-ए-इम्तियाज दिया गया. 18 मार्च 2007 को वह इस दुनिया को अलविदा कह गए.

"कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए, वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था"

Akhtar Hoshiyarpuri: अख्तर होशियारपुरी उर्दू के बेहतरीन शायर थे. उनका ताल्लुक पंजाब से था. वह 20 अप्रैल 1918 को पंजाब के होशियारपुर में पैदा हुए. बंटवारे के बाद वह पाकिस्तान चले गए. 'अलामत', 'आइना या चिराग', 'बर्ग-ए-सब्ज़', 'समत नुमा', 'शहर हर्फ', 'खैरुल बशीर' और 'खातेमुल मुर्सलीन' उनकी मशहूर किताबें हैं. मुजतबा और खिरुलबशर को 1998 और 2000 में दूसरे और तीसरे पुरस्कार के लिए चुना गया था.

ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक 
हमें देखो कि अपने आप को ओढ़े हुए हैं 

पुराने ख़्वाबों से रेज़ा रेज़ा बदन हुआ है 
ये चाहता हूँ कि अब नया कोई ख़्वाब देखूँ 

कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए 
वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था 

वो पेड़ तो नहीं था कि अपनी जगह रहे 
हम शाख़ तो नहीं थे मगर फिर भी कट गए 

कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है 
इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ 

थी तितलियों के तआ'क़ुब में ज़िंदगी मेरी 
वो शहर क्या हुआ जिस की थी हर गली मेरी 

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क्या लोग हैं कि दिल की गिरह खोलते नहीं 
आँखों से देखते हैं मगर बोलते नहीं 

तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए 
न जाने मैं कहा क्या और उस ने समझा क्या 

हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं 
मैं अपनी मिट्टी से फूल बन कर उभर रहा था 

किसी से मुझ को गिला क्या कि कुछ कहूँ 'अख़्तर' 
कि मेरी ज़ात ही ख़ुद रास्ते का पत्थर है 

कुछ इतने हो गए मानूस सन्नाटों से हम 'अख़्तर' 
गुज़रती है गिराँ अपनी सदा भी अब तो कानों पर 

बारहा ठिठका हूँ ख़ुद भी अपना साया देख कर 
लोग भी कतराए क्या क्या मुझ को तन्हा देख कर

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