'उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा'; अहमद महफूज के शेर
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'उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा'; अहमद महफूज के शेर

Ahmad Mahfooz Shayari: उर्दू शेर के जानकार होने के साथ-साथ प्रोफेसर अहमद महफूज उर्दू ग़ज़ल के बेहतरीन शायर भी हैं. हाल ही में उनकी एक किताब 'ग़ुबार-ए हैरानी' छपी. अदब के हलके में इसकी खूब तारीफ हुई है.

'उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा'; अहमद महफूज के शेर

Ahmad Mahfooz Shayari: प्रोफ़ेसर अहमद महफूज उर्दू के बेहतरीन शायर हैं. उनका ताल्लुक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से है. उन्होंने दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से सहायक प्रोफेसर के बतौर अपना करियर शुरू किया. आज, वह विभाग के प्रमुख के तौर पर काम कर रहे हैं. प्रोफ़ेसर अहमद महफूज को उर्दू और फ़ारसी शेरों पर अच्छी पकड़ है. उन्होंने मशहूर आलोचक शम्सुर रहमान फारूकी की देखरेख में मीर तकी मीर की रचनाओं का संपादन किया है.

यहीं गुम हुआ था कई बार मैं 
ये रस्ता है सब मेरा देखा हुआ 

देखना ही जो शर्त ठहरी है 
फिर तो आँखों में कोई मंज़र हो 

उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा 
कि मेरा सारा असासा इसी मकान में था 

किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए 
हमीं हवा की ज़द में थे हमीं शिकार हो गए 

अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना 
ये काम सहल बहुत है मगर नहीं करना 

मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने 
सोचा तो उस ख़याल से सदमा बहुत हुआ 

कहाँ किसी को थी फ़ुर्सत फ़ुज़ूल बातों की 
तमाम रात वहाँ ज़िक्र बस तुम्हारा था 

नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा 
मैं पलट के अब किसी हाल में नहीं आऊँगा 

जानता हूँ इन दिनों कैसा है दरिया का मिज़ाज 
इस लिए साहिल से थोड़ा फ़ासला रखता हूँ मैं 

सुना है शहर का नक़्शा बदल गया 'महफ़ूज़' 
तो चल के हम भी ज़रा अपने घर को देखते हैं 

उस से मिलना और बिछड़ना देर तक फिर सोचना 
कितनी दुश्वारी के साथ आए थे आसानी में हम 

हम को आवारगी किस दश्त में लाई है कि अब
कोई इम्काँ ही नहीं लौट के घर जाने का

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