जल संरक्षण की अनोखी पहल: नीर, नारी और विज्ञान
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जल संरक्षण की अनोखी पहल: नीर, नारी और विज्ञान

जल संरक्षण की अनोखी पहल: नीर, नारी और विज्ञान

 

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संजीव कुमार दुबे

पानी हमारे लिए कितना अहम है। यह सभी जानते हैं। एक तरफ हमारे शरीर के 70 फीसदी से ज्यादा हिस्से में पानी है तो दूसरी तरफ धरती का 71 फीसदी हिस्सा पानी से ढका हुआ है। 1.6 प्रतिशत पानी जमीन के नीचे है और 0.001 प्रतिशत वाष्प और बादलों के रूप में है। धरती की सतह पर जो पानी है उसमें से 97 प्रतिशत सागरों और महासागरों में है जो नमकीन है और पीने के काम नहीं आ सकता। केवल तीन फीसदी पानी ही पीने योग्य है जिसमें से 2.4 प्रतिशत ग्लेशियरों और उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में जमा हुआ है और केवल 0.6 प्रतिशत पानी नदियों, झीलों और तालाबों में है जिसे इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि पीने योग्य पानी धरती पर बहुत ही कम है। रोज की जरूरतों की अगर बात की जाए तो एक व्यक्ति औसतन 30-40 लीटर पानी रोजाना इस्तेमाल करता है। धरती और पानी बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी नई पीढ़ी पर है। वर्तमान परिदृश्य में जल संरक्षण की अहमियत पर गंभीरता से मंथन और क्रियान्वयन अब बेहद जरूरी हो गया है।

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संस्कारों से ही पानी की बचत कर सकते हैं और पर्यावरण सुधार सकते हैं। नीर को बचाने के लिए नारी को आगे लाना होगा, ऐसा ईको रूट फाउंडेशन के अध्यक्ष राकेश खत्री का मानना है। पर्यावरणविद राकेश खत्री इन दिनों पानी को लेकर देश के 16 शहरों में 160 स्कूलों पर काम कर रहे हैं। इन स्कूलों में नीर नारी और विज्ञान पर आधारित थिएटर को स्कूली बच्चे संचालित करते हैं। राकेश ने विज्ञान की सरल भाषा में नीर को बचाने के लिए नारी को आगे लाया है जिसमें लड़के और लड़किया उनके लिए जल संवाहक, जल दूत, और जल योद्धा की भूमिका अदा कर रहे है। हालांकि ज्यादातर इस कार्यक्रम में लड़कियां शिरकत करती है।  यह कार्यक्रम केंद्र सरकार के डिपार्टमेनट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी  (राष्ट्रीय विज्ञानं एवं प्रोधौगिकी संचार परिषद् द्वारा प्रायोजित है जिसके प्रोग्राम डायरेक्टर डॉक्टर पंपोष कुमार हैं जो केंद्र सरकार के राष्ट्रीय विज्ञानं एवं प्रोधौगिकी संचार परिषद् विभाग में साइंटिस्ट के पद पर कार्यरत हैं।

नीर यानी पानी का संरक्षण महिलाएं ही बेहतर तरीके से कैसे करना कैसे जानती है? राकेश इस सवाल पर मुस्कुराते हुए जवाब देते हैं- 'घर में होम मिनिस्टर कौन होता है? एक घर को कौन चलाता है? आप ध्यान से देखें कि एक घर में हाउस वाइफ, गृहिणी सबसे ज्यादा कामकाज करती है। समाज में ऐसे मिसालों की भी कमी नहीं जब महिलाएं बाहर नौकरी करने के साथ घर का मोर्चा भी बखूबी संभालती है और इसमें पुरुष का योगदान उनके मुकाबले तो काफी कम होता है। एक नारी के स्वभाव में सहेजना, समेटना और संरक्षण करना होता है। बिखरे घर को समेटना वहीं जानती है। घर के तारतम्य टूटने की स्थिति में एक नारी ही उसे बखूबी सहेजती है। घर में बिजली और पानी की बर्बादी को रोकने की सबसे सजग प्रहरी वही है। इसलिए एक पुरानी कहावत भी है- घर औरतों से होता है और घर औरतों से संजता और संवरता है।

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दुनिया के हर कोने मे नीर और नारी का एक ही रिश्ता है और वो है पवित्रता और जिम्मेदारी का। घर में वह विद्युत प्रहरी (बिजली की बचत करनेवाला) और जल प्रहरी (पानी को बचाने वाला) की भूमिका निभाती है। जिस प्रकार नारी सहजता से घर को समेटने और सहेजने की कला जानती है उसी प्रकार नारी विज्ञान के जरिए पानी को सदियों से समेटती और सहेजती आई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति की दो महान रचना नीर और नारी है। नारी सृष्टि की संचालिका है तो जल जीवन का संरक्षक है। नारी को पूजे जाने की परंपरा और उसकी चर्चा हमारे पुराणों और महाभारत में भी आती है तो जल को हिंदू धर्म शास्त्रों ने देवता माना है। दोनों भारत में पूजे जाते हैं और इन दोनों का भारतीय संस्कृति में अक्षुण्ण स्थान है।

नारी सदियों से जल सरंक्षण में एक अहम् भूमिका निभाती आई है। जब भी जल संकट और जल प्रदूषण की स्थिति उपजती है तो उसका भुगतान भी नारी को ही पड़ता है । हमारे विकासशील देश भारत में जल लाने का कार्य केवल महिलाओं और बच्चों को ही करना होता है। आपके जेहन में शायद अब वो तस्वीरें घूम रही होंगी जब आपने रेगिस्तान या पहाड़ी इलाकों में औरतों को पानी ले जाते हुए देखा होगा। हमारे देश में ऐसी कुछ जगहें है जहां पानी लाने के लिए औरतों को मीलों दूर पैदल जाना होता है। अब नीर के इस समस्या के बीच नारी को ही उसके उत्थान के लिए आगे आना होगा। नारी को पूरे विश्व में जल संवाहक माना जाता है।

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नीर-नारी और विज्ञान पर आधारित थिएटरों को देश के 16 शहरों में किया जा रहा है और यह 160 स्कूलों में क्रमबद्ध तरीके से संचालित हो रहे हैं। हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, चंडीगढ़, ओडिशा आदि शहरों में आयोजित किया जा चुका है और बाकी शहरों में संचालित करने का सिलसिला जारी है। इसके लिए छोटे शहरों का चुनाव किया गया है। इसके लिए छठी क्लास से नवीं क्लास के बच्चों को शामिल किया जाता है। थिएटर के जरिए मंचन होनेवाले इस जागरूकता से भरे कार्यक्रम का मकसद यही है कि विज्ञान की बेहद सरल भाषा में नारी के जरिए नीर को समझा जाए और समय रहते उसके महत्व का आकलन कर उसे संरक्षित करने का प्रयास किया जाए। दरअसल साइंस को थिएटर के जरिए एक टूल बनाने की कोशिश की गई है। उसका स्वरूप जटिल या बोझिल नहीं हो इसके लिए सहज संवाद का सहारा लिया जाता है। वो बात माइम के जरिए लोगों तक पहुंचे। या फिर पोस्टर पर लिखे शब्द जल की निर्मल या अविरल धारा को प्रवाहित करते हो। या फिर कलाकार अपनी भूमिकाओं के जरिए मानव मस्तिष्क में पैठ बनाए और नीर-नारी और विज्ञान को हर अंदाज में सार्थक कर दें। मकसद वहीं की नारी नीर को विज्ञान की सरल भाषा में समझाती हो। दरअसल पुराने दौर की कहावतों और कथनों को आज की युवा पीढ़ी बड़ी शिद्दत से फॉलो करती है। ठीक उसी प्रकार विज्ञान को आसान मिसालों के जरिए किसी भी तथ्य को समझाने की कोशिश की जाए तो वह बड़ी आसानी से आपके अंत:करण में उतरता चला जाता है। वैसे भी जब नीर को नारी का साथ मिल जाए तो यह स्थिति सोने पर सुहागा से कम नहीं। दरअसल इसे आप ईको-वॉश प्रोग्राम भी कह सकते हैं।  

लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में अपनी मौजूदगी दर्ज करानेवाले राकेश खत्री के जेहन में जब विज्ञान के जरिए पानी को ले-मैन तकनीक अंदाज में बताने का ख्याल आया तो उन्होंने सबसे पहले स्कूली बच्चों और थिएटर की कल्पना की। स्कूल इसलिए क्योंकि बच्चों को वह सही मायने में जल-संवाहक और जल-दूत मानते है। उनका ऐसा मानना है कि बच्चे किसी भी विषय-वस्तु को बिना किसी लाग-लपेट के सहजता से स्वीकार करते हैं जिससे अमुक विषय पहले के मुकाबले और सहज होकर प्रखर बन जाता है। थिएटर इसलिए क्योंकि थिएटर या रंगमंच आज भी लोगों के दिलों तक बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में रखने का सबसे सशक्त माध्यम है।

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कार्यक्रम की शुरुआत करने के लिए जिस स्कूल का चुनाव किया गया होता है। वहां पहले कैरेक्टर को चुनने की बारी आती है। स्कूलों में बच्चों को नीर-नारी और विज्ञान के जरिए क्या और कैसे बताना है, इसकी उन्हें पूरी छूट होती है। राकेश जी लंबी मेहनत-मशक्कत के बाद पात्रों और उनकी भूमिका को तय करते हैं। फिर कैसे करना है यह सुनिश्चित किया जाता है। अंत में वो दिन भी आ जाता है जब तैयारियों को अंजाम देने की बारी आती है। थिएटर शुरू होने पहले खामोशी होती है। दर्शकों में बैठे स्कूली बच्चे और उनके सैकड़ों अभिभावक उत्सुकता के केंद्र-बिंदु में खो जाते हैं। क्या होनेवाला है? कैसा होनेवाला है इसको लेकर सबके मन में कई सवाल और उत्सुकता हिलोरे ले रही होती है। तभी एक म्यूजिक उनकी उत्सुकता को तोड़ता है। स्टेज पर हलचल होती है। सामने खड़ी 'वसुंधरा' (पृथ्वी) मौन है। उसके मौन में कई सवाल है। वह खुद की व्यथा बताती है। दोहन की ताबड़तोड़ कोशिशों की दास्तान सुनाती 'वसुंधरा' संरक्षण के उन किरणों पर भी रोशनी डालती है। तभी पानी की मौजूदगी दिखती है। पानी पृथ्वी में अपनी वजूद को लेकर मूक अंदाज में कुछ प्रकाश डालती है। पानी की कहानी नए सिरे से दर्शकों तक पहुंच रही होती है तभी माइम के जरिए कुछ स्कूली बच्चे बेहद शानदार प्रस्तुति देकर नीर-नारी और विज्ञान के हर पहलुओं को सार्थक करते नजर आते है। कभी यह नृत्य नाटिका के रूप में तार्किक तथ्यों को रखता है तो कभी माईम के जरिए मौन रहकर विज्ञान की सरल भाषा में जल को सहेजने के तौर-तरीकों पर प्रकाश डालती है।

कहीं पानी का नल पानी की बूंदों और पानी की तेज धार की अहमियत बताता है। तो कहीं ट्यूबवेल हमें ड्रिप इरिगेशन की सीख देता है। क्या 16 शहरों के 160 स्कूलों से नीर, नारी और विज्ञान का ये संदेश देशभर में पहुचेगा?  यह पूछे जाने पर राकेश कहते हैं कि किसी भी बड़े काम की शुरुआत छोटे कदमों से होती है। एक-एक कदमों के जरिए आप मीलों दूर का फासला तय करते हैं जिसमें वक्त लगता है। अगर कोई कदम ही ना बढ़ाए तो फिर किलोमीटर या मील का फासला तय करने की नहीं सोच सकता। उन्होंने इसे आंकड़ों के जरिए समझाते हुए कहा कि एक स्कूल में जब हम थिएटर करते हैं तो उसमें 700 से 1000 बच्चे जुड़ते है। हम मान लेते है कि वह संदेश एक हजार लोगों तक पहुंचा। तो फिर जब हम जिस दिन 160 स्कूलों में इस थिएटर को कर लेंगे तो वह संदेश एक लाख 60 हजार लोगों तक पहुचा। इसके बाद यही स्कूली बच्चे और उनके अभिभावक अपने-अपने सर्किल में इस संदेश को साझा करेंगे तो यह आंकड़ा और भी बढ़ता जाएगा। आपकी पहल ठोस होगी, आपकी कोशिशों में ताकत होगी तो करोड़ों देशवासियों तक यह संदेश पहुंचाना मुश्किल नहीं होगा। हां इसमें समय जरूर लग सकता है।

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पानी को लेकर देश में जागरूक करने की कई कोशिशें हुई। कई योजनाएं भी बनी जिसपर करोड़ों खर्च हो गए। आजादी के बाद केंद्र की सत्ता पर समय-समय पर काबिज हुई कई सरकारों ने इसके लिए करोड़ों रुपए खर्च किए। घर, पास-पड़ोस की सफाई को लेकर हम पहले के मुकाबले ज्यादा जागरूक हुए हैं। स्वच्छता देश, समाज, मोहल्ला और घर के लिए कितना जरूरी है इस बात की समझ विकसित तो हुई है। लेकिन पानी को लेकर हमारा रवैया अब भी उदासीन है और यह वर्तमान और भविष्य के लिए गहरी चिंता पैदा करता है। समय रहते यह समझना होगा की टैब या नल से निकलते पानी के पतले या मोटे धार में लाखों-करोड़ों बूंदों का योगदान है। अगर ये बूंदें ना होती तो पानी का प्रवाह वैसा नहीं होता जिससे पानी की एक बाल्टी चंद मिनटों में भर जाती है।

असंख्य बूंदों का स्वरूप पानी को तेज धार में तब्दील करता है ठीक उसी प्रकार जल को लेकर जागरूकता और उसके संरक्षण को लेकर हम सवा सौ करोड़ देशवासियों को एकजुट होना होगा। ध्यान रहें हमारे बाद भी हमारी कई पीढ़ियों को जीवन में जल की जरूरत होगी। उनके खातिर ही सहीं हम इसे समय रहते तन-मन से संरक्षित करने का प्रयास तो करें। कोशिशों के बाद परिणाम आने में भी वक्त लगता है। समय पर और सार्थक कोशिशें होंगी तो उसका स्वरूप सुंदर, निर्मल और बेजोड़ होगा, इमसें कोई संशय नहीं है। अगर पानी को बचाना है तो सबसे पहले हमें खुद को सुधारना होगा, क्योंकि पानी ही हमारा जीवन है और इसके बिना हम जिंदा नहीं रह सकते। इसलिए हमें पानी की कीमत समझनी होगी, और पानी को बचाना होगा। इसी पीढ़ी के लोगों को जल-दूत, जल-प्रहरी और जल संवाहक की भूमिका निभानी होगी ताकि आगामी हर पीढ़ी में जल और जीवन का अटूट श्रंखला सदियों बाद भी कायम रहें।

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