रामचरितमानस: गोस्वामी तुलसीदास जातिवादी, ब्राह्मणवादी, स्पष्टवादी या रामवादी?
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रामचरितमानस: गोस्वामी तुलसीदास जातिवादी, ब्राह्मणवादी, स्पष्टवादी या रामवादी?

Ramcharitmanas: जब देश में सियासी हित साधने के लिए एक सनातनी धर्मग्रंथ श्रीरामचरितमानस को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. तब ये मंथन ज़रूरी हो जाता है कि मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के मानस में इसे रचते वक्त क्या था?

रामचरितमानस: गोस्वामी तुलसीदास जातिवादी, ब्राह्मणवादी, स्पष्टवादी या रामवादी?

Ramcharitmanas: जब देश में सियासी हित साधने के लिए एक सनातनी धर्मग्रंथ श्रीरामचरितमानस को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. तब ये मंथन ज़रूरी हो जाता है कि मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के मानस में इसे रचते वक्त क्या था? बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने जो बात छेड़ी वो इतनी बड़ी हो जाएगी उन्हें भी शायद ही अंदाज़ा हो, उनका मकसद भले ही अगड़ों और पिछड़ों के बीच वोट के फायदे का रहा हो लेकिन इसके बहाने तुलसीदास कृत रामचरितमानस की एक बार फिर वही स्कैनिंग हो रही है जो अतीत में कई बार हो चुकी है. लेकिन सत्य यही है कि हर बार श्रीरामचरितमानस के पाठकों और आस्थावानों की संख्या की बढ़ती ही गई.

जिन तुलसीदास पर ब्राह्मणवादी होने के आरोप लगाए जा रहे हैं उन्होंने अपने लेखन में स्पष्टता और राम के प्रति समर्पण पर जोर दिया, वो स्वयं को भी कई जगहों पर दास लिखते हैं, लेकिन उनका 'दास' निचली जाति या गुलाम नहीं बल्कि भक्त का पर्यायवाची है, हनुमान, जामवंत, अंगद, विभीषण, शबरी, निषादराज, केवट जब भी राम से संवाद करते हैं तो स्वयं को अधम या नीच कहते हैं,यहां अधम का आशय निचली जाति से नहीं बल्कि भगवान के सामने भक्त खुद को तुच्छ कहने का प्रयास भर है. जीव का परमात्मा के प्रति समर्पण का भाव है.

इसके इतर जिन पंक्तियों पर विवाद खड़ा किया जा रहा है उनकी ओर चलने से पहले तुलसीदास की कुछ चौपाइयों और दोहों को पढिए और ये पूछिए कि क्या तुलसीदास ब्राह्मण विरोधी थे.

बहु दाम सँवारहिं धाम जती. बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती..
तपसी धनवंत दरिद्र गृही. कलि कौतुक तात न जात कही..

आशय ये कि संन्यासी धन लगाकर घर सजाते हैं,वो वैराग्य हीन हो गए हैं, बड़े तपस्वी धन इकट्ठा कर रहे हैं और गृहस्थ गरीब हो रहे हैं, ऐसे कलियुग की लीला कही नहीं जा सकती

अब ये सत्य है या ब्राह्मण विरोध? जो सत्य स्वीकारेंगे वो कहेंगे कि तुलसी स्पष्टवादी थे,जो दिखा वो लिखा जो नहीं स्वीकारेंगे वो ब्राह्मण विरोधी भी बता सकते हैं

एक और उदाहरण देखिए

धनवंत कुलीन मलीन अपी. द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी..
नहिं मान पुरान न बेदहि जो. हरि सेवक संत सही कलि सो..

मतलब धनवान मलीन होने पर भी कुलीन माने जाते हैं, ब्राह्मण का चिन्ह केवल जनेऊ रह गया और तपस्वी का मतलब सिर्फ नंगे बदन रहना. जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते,कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं

तो क्या तुलसी दास ब्राह्मण, तपस्वी और संत विरोधी हैं? बिल्कुल नहीं उनका सिर्फ ये कहना है कि कर्म के आधार पर ही हर व्यक्ति को आदर मिलना चाहिए
क्योंकि तुलसी ने जिन्हें विप्र कहा या माना उनका मौजूदा वक्त के ब्राह्मणों से शायद ही संबंध हो, तुलसी का 'विप्र' नियमों को मानने वाला, वेदों पुराणों का ज्ञाता, तपस्वी, भगवान का भक्त, और सांसारिक मोह माया से दूर है

तुलसीदास ने तो उस लीक तोड़ने का काम किया जो भगवान की भक्ति को जाति के पाश में बांधने का काम करती थी. रामकथा को सर्व सुलभ बनाने और घर घर में कथा व्यास पैदा करने का काम करने वाले ग्रंथ रामचरितमानस जैसा कोई दूसरा नहीं है. आज भी जाति के बंधनों को तोड़ते हुए मानस का दैनिक पाठ, अखंड पाठ या सुंदर कांड का पाठ गांव-गांव में होता है

कुछ और उदाहरण देखिए

गोस्वामी तुलसीदासकृत वैराग्यसंदीपनी के एक दोहे को पढिए

तुलसी जाके बदन ते धोखेहुँ निकसत राम।
ताके पग की पगतरी मेरे तन को चाम ॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसके मुख से धोखे से भी ‘राम’ निकल जाता है, उसके पग की जूती मेरे शरीर के चमड़े से बने

यहां तुलसी खालिस रामवादी हैं, उनके एक और दोहे को देखा जाए

तुलसी भगत सुपच भलौ भजै रैन दिन राम।

ऊँचो कुल केहि कामको जहाँ न हरिको नाम ॥

तुलसीदासजी कहते हैं  कि वो भक्त चाण्डाल भी अच्छा है, जो रात-दिन भगवान्‌ रामचन्द्रजी का भजन करता है, जहाँ श्रीहरि का नाम न हो, वह ऊँचा कुल किस काम का

तो क्या ऊंचे कुल को चांडाल से बदतर बता दिया, नहीं , बल्कि तुलसीदास जी भगवान की भक्ति की प्राथमिकता के आधार पर आपका ऊँचा और नीचा होना तय करते हैं
 
यहां तक कि तुलसीदास से ऊंची जातियों पर ये कटाक्ष करने से भी नहीं चूकते

अति ऊँचे भूधरनि पर भुजगन के अस्थान।

तुलसी अति नीचे सुखद ऊख अन्न अरु पान॥ 

तुलसीदासजी कहते हैं कि बहुत ऊँचे पहाड़ों पर (विषधर) सर्पों के रहने के स्थान होते हैं और बहुत नीची जगह में अत्यन्त सुखदायक ऊख, अन्न और जल होता है.

मतलब ऐसे ही भजन रहित ऊँचे कुल में अहंकार, मद, काम, क्रोधादि रहते हैं और भजन युक्त नीच कुल में अति सुखदायिनी भक्ति, शान्ति, सुख आदि होते हैं, इसमें कई और उदाहरण(चौपाइयां) भी शामिल किए जा सकते हैं, लेकिन
 
मैने अब तक जो कुछ कहा उसका उत्तर इस चौपाई में खोजिए, तुलसीदास जी ऊंचे कुल वालों और साधुओं को अलग करते हैं, ये साधु ही तुलसी के विप्र हैं, देखिए
 
जदपि साधु सबही बिधि हीना . तद्यपि समता के न कुलीना ॥

यह दिन रैन नाम उच्चरै . वह नित मान अगिनि महँ जरै ॥ ४१॥

साधु यदि सभी प्रकारसे हीन भी हो तो भी कुलीन (ऊँचे कुलवाले) की उसके साथ समता नहीं हो सकती; क्योंकि यह (साधु) दिन- रात भगवान‌ के नाम का उच्चारण करता है और वह (कुलीन) नित्य अभिमान की आग में जला करता है

अब इस चौपाई से अरण्य कांड की उस चौपाई को जोड़िए जिस पर तुलसीदास पर ब्राह्मणवादी होने का आरोप लगा दिया जाता है, अव्वल तो उसे गलत ही पढा जाने लगा है, पहले अपभ्रंश चौपाई पढिए

पूजिए विप्र सकल गुण हीना, शूद्र ना पूजिए वेद प्रवीणा

जबकि सही चौपाई ये हैं

पूजिए विप्र सील गुन हीना, शूद्र न गुन गन ज्ञान प्रवीना

इसमें तुलसी के 'विप्र' केवल उच्च कुल का एक सामान्य ब्राह्मण नहीं बल्कि असाधारण रुद्र के अंश दुर्वासा ऋषि हैं,
ये चौपाई राम और कबंध के संवाद की है, जब कबंध बताता है कि वो पूर्व जन्म में गंधर्व था और दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण राक्षस हो गया था, तब राम उसे बताते हैं कि अगर विप्र दुर्वासा जैसे हों जिनमें क्रोध का अंश ज्यादा और सील का गुण कम भी हो तब भी वो पूजा के योग्य हैं.

इसी तरह एक और चौपाई है जिसे बिहार के शिक्षा मंत्री ने उछाला

अधम जाति में विद्या पाएं, भयहुं जथा अहि दूध पिआएं

इसमें भी में और मैं का भेद है, सही चौपाई ये है
 
अधम जाति 'मैं' विद्या पाएं, भयहुं जथा अहि दूध पिआएं

इसकी कहानी बहुत दिलचस्प है, संक्षेप में समझिए, इसमें 'मैं' कागभुशुण्डि महाराज हैं और वो कलियुग के प्रभाव को पक्षीराज गरुण को समझा रहे हैं, उन्होंने अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाई, जिसमें वो शूद्र परिवार में अयोध्या में पैदा हुए, कलियुग के प्रभाव से जब एक बार अयोध्या में अकाल पड़ा तो वो अयोध्या से उज्जैन चले गए, वहां एक ब्राह्मण परिवार ने उन्हें बेटे की तरह अपने घर पर रखा, शिव के मंदिर में बैठाकर शिक्षा दी (मतलब ये कि धर्म में शूद्रों के मंदिर में प्रवेश पर रोक नहीं थी और शिक्षा भी दुर्लभ नहीं थी) लेकिन जब उन्होंने शिव के मंदिर में बैठकर विष्णु के खिलाफ बातें की और गुरू की शिक्षा का मान नहीं रखा तब प्रायश्चित करते हुए उन्होंने खुद को अधम कहा और ये पंक्ति कही.

एक और चौपाई में आरोप है कि तुलसीदास कुछ जातियों को निशाना बना रहे हैं

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा. स्वपच किरात कोल कलवारा.
पनारि मुई गृह संपति नासी. मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥

जबकि इसमें भी लक्ष्य जातियों को निशाना बनाने से ज्यादा ये बताने पर है कि संन्यासी बनने के लिए सब कुछ गंवाने का इंतजार नहीं करते बल्कि संन्यास तो विरक्ति के लिए लिया जाता है

वैसे तुलसीदास जिस दौर में ये रचना लिख रहे थे उसका प्रभाव भी इसमें आना स्वाभाविक ही रहा होगा लेकिन फिर भी एक विद्यार्थी के रूप में तुलसी को पढ़ने से पहले उनके शब्दों से ज्यादा उनके मानस को पढ़ना ज़रूरी है इसीलिए मैं ये कहता हूं कि तुलसीदास स्पष्टवादी और उससे भी बड़े रामवादी थे.

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