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कौन है बकरवाल समुदाय, अनुच्छेद 370 के हटने के बाद पहली बार विधानसभा में डालेंगे वोट, जम्मू-कश्मीर में सत्ता तय करने की ताकत?

Who is Bakarwal community? जम्मू-कश्मीर में चुनावी बिगुल बज चुका है. सभी पाटियों ने वोटरों को लुभाने के लिए घोषणापत्रों के जरिए वादों की बौछार लगा दी है,  2019 में अनुच्छेद 370 को हटाने और राज्यों को दो केंद्र शासित प्रदेशों में अलग करने के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. वोट डालने के लिए बकरवाल समुदाय मैदानी इलाकों में लौटना शुरू कर दिया है. आइए जानते हैं कौन हैं बकरवाल समुदाय, जम्मू-कश्मीर में क्या है इनकी ताकत, चुनाव में किस रूप में निभाएंगे अपनी भूमिका. 

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Jammu Kashmir Assembly Election: जम्मू एवं कश्मीर के विधानसभा चुनावों को लेकर इन दिनों काफी गहमागहमी देखने को मिल रही है. इन चुनावों में एक तरफ बीजेपी, एक तरफ कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन तो एक तरफ PDP और अन्य छोटी-छोटी पार्टियां हैं. सूबे की 90 विधानसभा सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए सभी पार्टियां पूरा जोर लगा रही हैं. उधर वोट डालने के लिए बकरवाल समुदाय ने वक्त से पहले मैदानी इलाकों में लौटना शुरू कर दिया है. आइए जानते हैं कौन हैं यह बकरवाल समुदाय, चुनाव में क्या होगी इनकी भूमिका.

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सरल भाषा में समझे तो गुर्जर समाज के एक बड़े और रसूखदार तबके को 'बकरवाल' कहा जाता है. उनको यह नाम कश्मीरी बोलने वाले विद्वानों ने दिया है. दूसरी भाषा में बोले तो गुर्जर समुदाय के लोगों का दूसरा नाम बकरवाल भी है. बकरवाल समुदाय से जुड़े लोगों की बड़ी संख्या भेड़-बकरी चराने का काम करती है. ऐसे बहुत से नेता हैं जो बकरवाल होते हुए भी अपने आप को गुर्जर नेता कहलाना पसंद करते हैं.

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इनमें से कुछ लोग हैं जो थोड़ा पढ़-लिख गए हैं और लगातार इस कोशिश में हैं कि उनके समुदाय के लोग भी धीरे-धीरे पढ़-लिख जाएं, लेकिन आज़ादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी ये लोग अपना जीवनयापन आसमान की नीली छतरी के नीचे मैदानी और पहाड़ी इलाकों में करते हैं और अपने मवेशियों के साथ रहते हैं. बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, गुर्जर और बकरवालों को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. 

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कुछ गुर्जर और बकरवाल पूरी तरह से खानाबदोश (फुली नोमाद) होते हैं. ये लोग सिर्फ जंगलों में गुज़र बसर करते हैं और इनके पास कोई ठिकाना नहीं होता. दूसरी श्रेणी में आंशिक खानाबदोश (सेमी नोमाद) आते हैं. ये वो लोग हैं जिनके पास कहीं एक जगह रहने का ठिकाना है और वो आस पास के जंगलों में कुछ समय के लिए चले जाते हैं और कुछ समय बिताकर वापस अपने डेरे पर आ जाते हैं.

 

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तीसरी श्रेणी में शरणार्थी ख़ानाबदोश (माइग्रेटरी नोमाद) आते हैं जिनके पास पहाड़ी इलाकों में धोक (रहने का ठिकाना) मौजूद है और यहां मैदानी इलाकों में भी रहने का ठिकाना है. गुर्जर और बकरवाल हिंदुस्तान में 12 राज्यों में रह रहे हैं. भारत के अलावा पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में भी इनकी ख़ासी संख्या है. 1991 में बकरवालों को आदिवासी का दर्ज़ा मिला. 2011 की जनगणना के मुताबिक, जम्मू कश्मीर में गुर्जर बकरवाल की कुल आबादी लगभग 12 लाख के करीब है यानी कुल जनसंख्या का 11 प्रतिशत. जनगणना के मुताबिक 9.80 लाख गुर्जर और 2.17 लाख बकरवाल जम्मू कश्मीर में रह रहे हैं.

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गुज्जर और बकरवाल परिवार गर्मियों की शुरुआत में अपने मवेशियों के साथ हरे-भरे चरागाहों की तलाश में जम्मू-कश्मीर के ऊपरी इलाकों की ओर पलायन करते हैं और सर्दियों से पहले मैदानी इलाकों में लौट आते हैं. इस बार के विधानसभा में वोट डालने के लिए वह मैदान की तरफ लौट रहे हैं, पीटीआई एजेंसी के मुताबिक, बकरवाल समुदाय के सदस्य ने बताया कि हमारे लोगों को उम्‍मीद है “हम चाहते हैं कि एक अच्छी पार्टी जीते और सरकार बनाए ताकि लोगों के मुद्दे सुलझ सकें.” 

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उन्होंने अपने समुदाय के सभी सदस्यों से मतदान का मौका न छोड़ने का आग्रह किया. बकरवाल समुदाय के सदस्य अब्दुल कयूम “लंबे इंतजार के बाद” हो रहे चुनाव में भाग लेने के लिए उत्साहित हैं. उन्होंने कहा, “हमारा समुदाय कई समस्याओं से जूझ रहा है. शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से हम समाज के अन्य वर्गों की तुलना में पिछड़े हैं. हमें उम्मीद है कि नई सरकार हमारे उत्थान पर ध्यान देगी.” लोकसभा चुनावों के दौरान, गुज्जर और बकरवाल समुदायों के सैकड़ों सदस्य पैदल लंबी दूरी तय करके अपने मतदान केंद्र पहुंचे थे. 

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