one nation one election news in hindi: देश में एक साथ पांच साल में चुनाव कराने की आवाज जोर पकड़ने लगी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में कैबिनेट ने इसे मंजूरी दे दी है. देखना होगा कि सपा-बसपा, अपना दल जैसी पार्टियों का इस पर क्या रुख रहता है.
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One Nation One Election Report: वन नेशन वन इलेक्शन यानी एक देश एक चुनाव कराने की मुहिम को बुधवार उस वक्त बल मिला जब मोदी कैबिनेट ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई वाली समिति की रिपोर्ट को हरी झंडी दे दी.संसद के शीतकालीन सत्र में बिल पेश किए जाने के संकेतों के साथ ही इस पर नए सिरे से बहस छिड़ गई. कुछ छोटे दलों और क्षेत्रीय दलों ने इस पर आवाज उठानी भी शुरू कर दी है. ऐसे ही कुछ पांच सवाल या यूं कहें चुनौतियों को हम यहां दे रहे हैं, जिनको लेकर सरकार को घेरना का प्रयास हो रहा है.
1. छोटे दलों का डर
वन नेशन वन इलेक्शन को कई दलों ने छोटे दलों और क्षेत्रीय दलों के लिए खतरा बताया है. एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने सबसे पहले ये आवाज बुलंद की है. तर्क ये दिया जा रहा है कि राष्ट्रीय चुनाव देश के बड़े मुद्दों पर लड़े जाते हैं. ऐसे में आम चुनाव में एक साथ मतदान के दौरान वोटर्स प्रभावित हो सकते हैं और राष्ट्रीय दलों को इसका सीधा फायदा पहुंचेगा.
2. बड़े दलों का बड़ी प्रचार मशीनरी का फायदा
दूसरा तर्क यह भी है कि बड़े दलों के पास आम चुनाव के दौरान ताकत झोंकने के लिए बड़ी प्रचार मशीनरी होती है.ऐसे में छोटे दलों और क्षेत्रीय दलों के मुद्दे गौण हो जाएंगे. इन दलों को इसका भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है, जो अभी अपने-अपने राज्यों में निर्णायक ताकत रखते हैं. बिहार में जीतनराम मांझी जैसे दल ऐसी ही निर्णायक ताकत रखते हैं.इन राज्यों में ऐसे छोटे दलों का आधार ही विशेष जाति या वर्ग होता है. अपना दल, सुभासपा, निषाद पार्टी इसका उदाहरण हैं. महाराष्ट्र, तेलंगाना, यूपी या बिहार में अलग चुनाव होते हैं तो AIMIM के ओवैसा या अन्य दलों के नेताओं को उस विशेष राज्य में फोकस करना आसान होगा. जबकि एक साथ चुनाव होने पर उनका पूरे देश में एक साथ चुनाव प्रचार मुश्किल होता है. तेलंगाना में एआईएमआईएम बीआरएस सरकार में ऐसी ही स्थिति में थी.
3. आम चुनाव के चेहरे
आम चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करने वाले मजबूत चेहरों के नाम पर वोट देने की आदत भी मतदाताओं में देखी जाती है. वर्ष 2014 और 2019 के बाद लगातार तीसरे चुनाव में पीएम मोदी बीजेपी की जीत के एक्स फैक्टर रहे हैं. छोटे दलों का मतदाता वर्ग इससे बिदक सकता है. परिवार पर टिके दलों के लिए यह चुनौती बन सकता है.
4. ज्यादा जवाबदेही सरकारों की
तर्क यह भी दिया जा रहा है कि लोकतंत्र में हर साल छह महीने में होने वाले चुनाव जनता के प्रति सरकारों को ज्यादा संवेदनशील और जवाबदेह बनाते हैं. कल्याणकारी योजनाओं पर ज्यादा ध्यान देते हैं. गरीबों के लिए नई योजनाओं लाकर लुभाने का प्रयास होता है. एक बार चुनाव हो जाने से अगले पांच साल तक जनता सरकारों पर ज्यादा दबाव डालने की स्थिति में नहीं होगी.
5. राज्यों की सियासी मोलभाव की ताकत घटेगी?
एक साथ चुनाव को लेकर संघीय ढांचे के तहत राज्यों की शक्तियों और अधिकार और कमजोर होने का सवाल उठाया जा रहा है. क्षेत्रीय दलों के मन में ये आशंका हो सकती है कि राज्य में विधानसभा चुनाव को लेकर उन्हें केंद्र में मनमाफिक सरकार से जो पैकेज या रियायती योजनाओं का पिटारा खोला जाता है, वो बंद हो सकता है.
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