Healthcare in india: पैसा फेंको-तमाशा देखो, जानिए प्राइवेट अस्पतालों का ये Money Game
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Healthcare in india: पैसा फेंको-तमाशा देखो, जानिए प्राइवेट अस्पतालों का ये Money Game

Health Sector in India: भारत में प्राइवेट अस्पताल नोट छापने की मशीन बन गए हैं. ऐसी मशीन, जिसमें मरीज को उत्पाद की तरह ट्रीट किया जाता है और मरीज के परिवार को क्लाइंट की तरह. जिन्हें रेट कार्ड थमा दिया जाता है. इसके बाद शुरु होता है- पैसा फेंको-तमाशा देखो का खेल.

फाइल फोटो

Private Hospitals in India: स्वास्थ्य सेवा को बाजार के हवाले कर देना आम नागरिक के लिए घातक होगा. ये चेतावनी वर्ष 1972 में अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिका के कैनोथ एरो ने दी थी. भारत के संदर्भ में 50 साल पुरानी ये चेतावनी अब हकीकत बन चुकी है. आसान भाषा में कहें तो भारत में प्राइवेट अस्पताल नोट छापने की मशीन बन गए हैं. ऐसी मशीन, जिसमें मरीज को उत्पाद की तरह ट्रीट किया जाता है और मरीज के परिवार को क्लाइंट की तरह. जिन्हें रेट कार्ड थमा दिया जाता है. इसके बाद शुरु होता है- पैसा फेंको - तमाशा देखो का खेल. आज हम प्राइवेट अस्पतालों के इसी Money Game को डिकोड करेंगे. जिसका आधार है Competition Commission of India यानी CCI की Investigative रिपोर्ट जो चार साल तक प्राइवेट अस्पतालों के चाल-चरित्र की पड़ताल करके बनाई गई है .

CCI की पड़ताल में खुलासा

वर्ष 2018 से लेकर दिसम्बर 2021 तक CCI के महानिदेशक ने दिल्ली-एनसीआर के 12 अस्पतालों में लूट-खसोट के इस बिजनेस की पड़ताल की. ये 6 बड़ी हॉस्टिपल चेन के अस्पताल हैं. जिनके नाम से आप भी परिचित होंगे. इस पड़ताल में सबसे ज्यादा 6 अस्पताल मैक्स ग्रुप के थे. फोर्टिस ग्रुप के भी दो अस्पतालों के अलावा दिल्ली के जाने-माने सर गंगाराम अस्पताल, अपोलो, बत्रा और सेंट स्टीफेंस अस्पताल की भी पड़ताल हुई थी. CCI के महानिदेशक ने 4 वर्ष तक की गई जांच के बाद 24 दिसम्बर 2021 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी, जिसके बाद 12 जुलाई 2022 को CCI ने इन सभी अस्पतालों से जवाब मांगा था. अबतक इन अस्पतालों ने अपनी सफाई में कोई जवाब नहीं दिया है. क्योंकि इन अस्पतालों के पास मरीजों से मनमाने ढंग से पैसा वसूलने के लिए ना तो कोई दलील है और ना कोई तर्क. इसकी वजह भी आपको CCI के महानिदेशक की इस जांच रिपोर्ट में सामने आई बातों से हो जाएगा.

जांच रिपोर्ट में सामने आई ये बात

दिल्ली-एनसीआर के ये अस्पताल मरीजों से किसी 3 स्टार या 4 स्टार होटल से भी ज्यादा रूम रेंट वसूल रहे हैं. जांच में शामिल कुछ अस्पताल, MRI, X-RAY और Ultrasound के लिए बाजार के दाम से कई गुना ज्यादा कीमत वसूल रहे हैं. ये प्राइवेट अस्पताल, SYRINGE या फिर सर्जिकल ब्लेड जैसे मेडिकल उपकरणों को भी भारी मुनाफे के साथ मरीज के इलाज के बिल में जोड़ रहे हैं .

CCI रिपोर्ट में प्राइवेट अस्पतालों के बिजनेस मॉडल का खुलासा

DNA में हम पहले भी कई बार प्राइवेट अस्पतालों की इस लूट नीति का विश्लेषण कर चुके हैं. कोरोना काल से पहले और कोरोना काल के दौरान तो प्राइवेट अस्पताल लूटपाट केंद्र बन चुके थे. जिनका लाखों का बिल चुकाने के लिए लोगो को अपना घर तक बेचना पड़ा था . जिनकी आवाज बनकर Zee News ने प्राइवेट अस्पतालों के खिलाफ मुहिम भी चलाई थी और अब CCI की रिपोर्ट में भी प्राइवेट अस्पतालों के बिजनेस मॉडल का खुलासा हुआ है. CCI की इंवेस्टिगेटिव रिपोर्ट के बाद अब हम आपको Zee News की इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट बताते हैं. जिससे आपको पता चलेगा कि प्राइवेट अस्पताल कैसे मरीज को देखते ही उस पर भेड़िये की तरह झपटते हैं और तब तक नोंचते रहते हैं. जब तक कि मरीज की जेब से पूरा माल साफ ना कर लें फिर चाहे इस दौरान मरीज की जान ही क्यों ना चली जाए. उन प्राइवेट अस्पतालों का चेहरा बेनकाब करना जरूरी है जिनके दिमाग में फैल चुके लालच का कैंसर लाइलाज हो चुका है. जिसकी ना तो आजतक कोई दवा ईजाद हुई है और ना कोई कानून.

अस्पताल ऐसे करते हैं वसूली

एक शख्स अपनी पत्नी की डिलीवरी के लिए फोर्टिस अस्पताल गया. वहां बताया गया बिल अंदाजन सवा लाख तक आएगा. ऑपरेशन हो गया लेकिन पैसे का खेल यहीं नहीं खत्म हुआ. बच्चे की डिलीवरी के बाद 5 डायपर के लिए 200 रुपये वसूल लिये गये. दिल्ली के एक मरीज के पेट में दर्द था. अस्पताल गया तो पता चला कि किडनी में स्टोन था. 68 हजार रुपये में ऑपरेशन करवाया. 12 दिन भर्ती करने के बाद भी बुखार नहीं जा रहा था तो पहुंच गए नामी-गिरामी अस्पताल सर गंगाराम.  6 दिन गंगाराम अस्पताल में भर्ती रहे. बिल आया 1 लाख 98 हजार रुपये रुपये. तीन दिन का रूम रेंट बना - 23 हजार रुपये यानी एक दिन का 7300 रुपये और 3 दिन का ICU चार्ज - साढ़े 37 हजार रुपये यानी 12 हजार 500 प्रतिदिन. डॉक्टर विजिट चार्ज बना - 26 हजार रुपये. दवाओं का बिल बना - 60 हजार रुपये. अलग-अलग जांच का चार्ज - 40 हजार रुपये..जिसमें एक अल्ट्रासाउंड भी शामिल है जिसका चार्ज है 3800 रुपये . यानी किडनी का ऑपरेशन 68 हजार में हो गया  और सिर्फ इंफेक्शन का इलाज करवाने में दो लाख रुपये लग गये. कुल मिलाकर करीब पौने तीन लाख रुपये प्राइवेट अस्पतालों की जेब में चले गये. उस शख्स की किडनी ठीक है लेकिन दिल पर भारीपन है. CCI की इंवेस्टिगेशन और हमारी इंवेस्टिगेशन में कोई अंतर नहीं है. आम आदमी जिन अस्पतालों को मंदिर मानता है. वो ये नहीं हैं और जो डॉक्टर भगवान माने जाते हैं वो भी यहां नहीं पाए जाते. प्राइवेट अस्पताल का फंडा क्लियर है. पैसा है तो आ जाओ, पैसा नहीं है तो भाड़ में जाओ.

प्राइवेट अस्पताल मरीजों को लूटकर करते हैं करोड़ों की कमाई

ये कोई हवा-हवाई रिपोर्ट नहीं है बल्कि दिल्ली-एनसीआर के बड़े-बड़े नामी अस्पतालों की उस Modus Operandi की पड़ताल करके तैयार की गई है जिसके जरिये बड़े नाम वाले प्राइवेट अस्पताल मरीजों को लूटकर करोड़ों की कमाई करते हैं. इसका खुलासा राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण यानी NPPA की स्टडी में भी होता है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे थ्री, फोर और फाइव स्टार होटलों से भी महंगी कीमत पर कमरे देकर..बाजार भाव से कई गुना ज्यादा कीमत पर टेस्ट करके और महंगी दवाओं के जरिये मरीजों से लाखों रुपये की उगाही की जाती है. 

4 बड़े और नामी अस्पतालों पर स्टडी कर बनी रिपोर्ट

NPPA ने फोर्टिस समेत दिल्ली-एनसीआर के 4 बड़े और नामी अस्पतालों पर स्टडी करके ये रिपोर्ट तैयार की है. इस रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर के कई प्राइवेट अस्पताल, MRP से ज्यादा पर दवाओं, सीरिंज और दूसरे मेडिकल उपकरणों को बेचकर उस पर 1200 से 1700 फीसदी का मुनाफा कमा रहे हैं. रिपोर्ट में पता चला कि मरीज के बिल में एक ग्लव्स की कीमत करीब 10 रुपये रखी गई, जबकि अस्पताल ने इस ग्लव्स को महज डेढ़ रुपये में खरीदा है. एक अस्पताल ने ऑपरेशन के दौरान 1200 ग्लव्स यूज होने की बात कहते हुए एक मरीज से 11 हजार 400 रुपये वसूल लिए. ऐसे ही एक अस्पताल ने ब्लड चढ़ाने के लिए इस्तेमाल होने वाले कैनुला को दो रुपये में खरीद कर मरीजों से करीब 1500 रुपये इसके लिए वसूले गए. रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में जहां MRI के लिए सामान्य डायग्नोस्टिक सेंटर महज दो हजार रुपये वसूलते हैं वहीं एक अस्पताल में प्रति MRI मरीज से 10 हजार रुपये लिए गए.  शायद डॉक्टरी ही इकलौता पेशा है जिसमें इलाज के नाम पर लाखों रुपये वसूलने के बाद भी मरीज के ठीक होने की ना तो कोई गारंटी होती है और ना कोई वारंटी यानी जीरो जिम्मेदारी. अब इससे ज्यादा रिस्क फ्री बिजनेस और क्या हो सकता है. इसलिए प्राइवेट अस्पतालों के मैनेजमेंट को ना तो किसी कानून से डर लगता है और ना किसी सरकारी रिपोर्ट से. CCI के महानिदेशक की इंवेस्टिगेटिव रिपोर्ट पर प्राइवेट अस्पताल कितने सीरियस हैं. वो इनके रिएक्शन से पता चलता है . Zee News की टीम ने CCI रिपोर्ट में संदिग्ध अस्पतालों से ईमेल के जरिये जवाब मांगा लेकिन किसी ने भी अपना पक्ष नहीं रखा. अपोलो अस्पताल ने जवाब दिया कि उनका प्रवक्ता अभी दीवाली तक बाहर है इसलिए जवाब नहीं दे सकते. फोर्टिस अस्पताल के प्रवक्ता ने पीड़ित की पहचान छिपाने का बहाना करके जवाब देने से मना कर दिया. सर गंगाराम, मैक्स, बत्रा और सेंट स्टीफेंस अस्पताल ने बार-बार रिमाइंडर ईमेल भेजे जाने के बावजूद कोई जवाब ही नहीं दिया है. CCI अगर अपनी इंवेस्टिगेटिव रिपोर्ट के तथ्यों के आधार पर आरोपी अस्पतालों को दोषी मानती है तो इन अस्पतालों पर अधिकतम 3 वर्षों की कमाई के दस फीसदी हिस्से का जुर्माना लगा सकती है. बस इससे ज्यादा इन अस्पतालों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. यही सच है. यही हमारे देश का कानून भी है जिसमें प्राइवेट अस्पतालों को इलाज के नाम पर लूट मचाने की खुली छूट है.

अपना-सपना, मनी-मनी

प्राइवेट अस्पतालों का एक ही ध्येय वाक्य है - अपना सपना, मनी-मनी . फिर चाहे इसके लिए उन्हें किसी भी हद तक क्यों ना जाना पड़े. कोरोना महामारी के दौरान सरकारी अस्पतालों की बुरी हालत और प्राइवेट अस्पतालों के लालच को पूरे देश ने देखा और भुगता है. परिवार के सदस्य को खोने के बाद उसकी लाश के साथ लाखों का बिल थमा दिए गए. लोग जब अस्पतालों में बेड के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे थे तब प्राइवेट अस्पताल मलाई काट रहे थे और मुनाफा कमा रहे थे . इसका खुलासा देश में बीमा कंपनियों को कंट्रोल करने वाली सबसे बड़ी संस्था IRDAI के ने किया है. IRDAI के अनुसार महामारी के दौरान अस्पतालों ने इंश्योरेंस कंपनियों से करीब ढ़ाई गुना ज्यादा हेल्थ क्लेम का पैसा वसूला है. कोरोना काल में बीमा कंपनियों ने एक मरीज पर औसतन एक लाख रुपये की दर से अस्पतालों को पेमेंट किया, जबकि 2018 में इंश्योरेंस कंपनियों ने एक मरीज पर औसतन 39 हजार रुपये की दर से अस्पतालों को पेमेंट की थी.

प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराना करीब सात गुना खर्चीला

पैसा कमाने के लिए प्राइवेट अस्पताल किस हद तक गिर सकते हैं, कोरोना महामारी के दौरान ये सबने देखा . लेकिन लूट-खसोट मचाने के लिए प्राइवेट अस्पतालों को किसी महामारी के आने का इंतजार नहीं करना पड़ता . क्योंकि हमारे देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का हाल इतना बुरा है कि प्राइवेट अस्पतालों को ज्यादा कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ती . राष्ट्रीय सांख्यिकी ऑफिस यानी NSO की रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी अस्पतालों के मुकाबले प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराना करीब सात गुना खर्चीला है. रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी अस्पताल में इलाज कराने का औसत खर्च 4,452 रुपये है, जबकि प्राइवेट अस्पतालों में ये खर्च औसतन 31 हजार 845 रुपये है. 

प्राइवेट अस्पतालों का सच

देश में ज्यादातर लोगों को सरकारी अस्पताल से ज्यादा लोगों को प्राइवेट अस्पताल पर विश्वास है. इस वजह से प्राइवेट अस्पताल चलाने वालों की जेबें भरती रहती हैं और देश की जनता की जेबें कटती रहती हैं. ये प्राइवेट अस्पतालों का वो सच है जो इन अस्पतालों को लूट का अड्डा बनाते हैं. लोग अक्सर ये कहते हैं कि सरकारी अस्पताल से तो अच्छा है कि वो घर पर ही रहकर इलाज करवा लें. क्योंकि हमारे देश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं खुद इतनी बीमार हैं कि सरकारी अस्पताल में इलाज करवाना भी अपने आप में कोई जंग जीत लेने के बराबर होता है और यही बात प्राइवेट अस्पतालों के पक्ष में जाती है. 

मुनाफा बनाने पर ज्यादा फोकस

NSO के मुताबिक अस्पताल में भर्ती होने वाले मामलों में 42 प्रतिशत लोग सरकारी अस्पताल का चुनाव करते हैं, जबकि 55 प्रतिशत लोगों ने निजी अस्पतालों का रुख किया. गैर-सरकारी अस्पतालों में भर्ती होने वालों का अनुपात 2.7 प्रतिशत रहा. आप खुद सोचिये कि जिस देश में लोगों को इलाज के लिए प्राइवेट अस्पतालों पर निर्भर रहना पड़े, उस देश की हालत क्या होगी. इसलिए ये जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि भारत में हर साल करीब सवा 6 करोड़ लोग सिर्फ इसलिए गरीबी रेखा से नीचे आ जाते हैं क्योंकि उन्हें अपने स्वास्थ्य और इलाज का खर्च खुद उठाना पड़ता है और ये इसलिए है क्योंकि सरकार देश के हर नागरिक को स्वस्थ रहने का अधिकार नहीं दे पाती और लोगों को प्राइवेट अस्पतालों के भरोसे छोड़ देती है. जिनका पूरा फोकस मरीज की जान बचाने से ज्यादा अपना मुनाफा बनाने पर होता है और ये कोई कही-सुनी बात नहीं है .

जनता के लिए सरकारी अस्पताल में सही इलाज नहीं

ये उस देश का हाल है जहां किसी सांसद या मंत्री का खांसी-बुखार होने पर ही प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती होना आम बात है. एम्स जैसे मेडिकल कॉलेज और कुछ बड़े सरकारी अस्पतालों को छोड़ दें तो किसी बड़े नेता का किसी सरकारी अस्पताल में भर्ती होने की कल्पना करना भी मुश्किल है. बड़े अस्पतालों में तो VVIP मरीजों के लिए अलग से बेड और डॉक्टर तक रिजर्व होते हैं  लेकिन क्या ऐसे देश में ये होना चाहिए जहां गरीब जनता को सरकारी अस्पताल में सही से इलाज भी नहीं मिल पाता. सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2018-19 में सरकारों ने एक नागरिक पर सालभर में 1 हजार 815 रुपये खर्च किये. वहीं इसी दौरान राज्यसभा सांसदों के स्वास्थ्य पर सरकार ने औसतन 51 हजार रुपये से ज्यादा खर्च किये. अब तुलना कीजिये कि आपके स्वास्थ्य पर सरकार प्रतिदिन 5 रुपये भी खर्च नहीं कर रही और सांसदों के स्वास्थ्य पर 29 रुपये खर्च हो रहे हैं. इसके बाद भी सांसदों की तबीयत जब बिगड़ती है तो वो सीधे प्राइवेट अस्पताल की तरफ दौड़ते हैं. कई प्राइवेट अस्पताल तो ऐसे भी हैं जो बड़े-बड़े नेताओं को अपना पेशेंट बताकर पब्लिसिटी करते हैं और नाम कमाते हैं.

भारत के लोगों की आमदनी का सबसे ज्यादा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च

नेताओं के लिए प्राइवेट अस्पताल में इलाज करवाना स्टेटस सिंबल होता है लेकिन गरीब जनता के लिए प्राइवेट अस्पताल में इलाज करवाना मजबूरी होती है और इस मजबूरी का फायदा उठाने में प्राइवेट अस्पताल कभी भी कोताही नहीं बरतते. इकोनॉमिक सर्वे 2021 में कहा गया है कि भारत के लोगों को अपनी आमदनी का सबसे ज्यादा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना पड़ता है. विश्व बैंक के मुताबिक भारत में अगर किसी के इलाज पर 100 रुपये का खर्च आता है तो उसमें से 63 रुपये उसे अपनी जेब से देने पड़ते हैं. चीन में ये हर 100 रुपये में से 30 रुपये के करीब है. अमेरिका ब्रिटेन, जर्मनी जैसे देशों में मरीजों को इलाज पर हर 100 रुपये में 20 रुपये कम खर्च करना पड़ता है. फ्रांस में तो ये सिर्फ 9 रुपये के करीब है. बाकी का पैसा सरकार खर्च करती है. हमारे पड़ोस भूटान, श्रीलंका और पाकिस्तान की सरकारें भी हमारी सरकारों से ज्यादा खर्च करती है लेकिन भारत में आम नागरिक के स्वास्थ्य पर खर्च करना सरकारों की प्राथमिकता में शामिल ही नहीं है. हैरत की बात तो ये है कि भारत में जहां गरीबी ज्यादा है, वहां लोगों को इलाज पर अपनी जेब से ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ रहा है. इस वजह से देश में हर साल लाखों लोग गरीब हो रहे हैं लेकिन प्राइवेट अस्पतालों की मनमानी पर रोक लगाने वाला कोई ढंग का कानून आजतक हमारे देश में बना ही नहीं है.

निजी अस्पताल, प्राइवेट कारपोरेट कंपनियों की तरह

अगस्त 2022 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने एक कार्यक्रम में प्राइवेट अस्पतालों को आईना दिखाते हुए कहा था कि निजी अस्पताल, प्राइवेट कारपोरेट कंपनियों की तरह चलाए जा रहे हैं. समाज की सेवा करने के बजाय इनका मकसद सिर्फ मुनाफा कमाना है. अब जरूरत है कि सरकार इन निजी फर्जी और मुनाफाखोर अस्पतालों की मनमानी रोकने के लिए सख्त कानून बनाए. सोचिये, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को प्राइवेट अस्पतालों की मुनाफाखोर नीति पर बोलना पड़ा है लेकिन हमारे देश की सरकारें आम जनता को प्राइवेट अस्पतालों के चंगुल से बचाने में ज्यादा इंटरेस्ट लेती दिखती नहीं है. ऐसा क्यों है. इसका जवाब आप खुद तय कीजिए...

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