गुजरात सभा के एक कार्यक्रम में गांधीजी की बात सुन सरदार पटेल की जो प्रतिक्रिया थी, उसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे.
जब गांधीजी (Mahatma Gandhi) साउथ अफ्रीका से हमेशा के लिए भारत लौटे थे, तब उन्हें भी ऐसे ही सवालों का सामना करना पड़ा था. यूं तो गांधीजी के साउथ अफ्रीका में संघर्ष की कहानियां भारत के अखबारों में इतनी छपी थीं कि आम भारतीयों को तो लगने लगा था कि ये आदमी देश आजाद करवा सकता है. लेकिन बुद्धिजीवी या अभिजात्य किस्म का भारतीय ऐसे दावों पर शक करता था. उन दिनों सरदार पटेल एक सम्पन्न जमींदार परिवार से निकले. लंदन में बैरिस्टरी किए हुए, अहमदाबाद के जाने माने क्राइम वकील थे. गुजरात क्लब के ब्रिज चैम्पियन हुआ करते थे वो. आसानी से किसी के आगे सरेंडर ना करना उनकी आदतों में शुमार था. शुरुआत में उन्होंने गांधीजी की चर्चा को भी सीरियस नहीं लिया, क्लब में जब भी गांधीजी की चर्चा होती तो कह दिया करते थे कि, ‘शौचालयों की सफाई से स्वराज कैसे आ सकता है?’, लेकिन जब गांधीजी ने गुजरात प्रांतीय सभा की मीटिंग में एक ऐसा अनोखा प्रस्ताव पारित कर दिया, कि पटेल उनकी हिम्मत का लोहा मान गए, जीवन भर के लिए उनके मुरीद हो गए और हमेशा के लिए उनकी सेवा में खुद को अर्पित कर दिया.
गांधीजी ने जब कोर्ट में पहला मुकदमा लड़ा था, तो जज के सामने उनकी आवाज नहीं निकली थी, तो काफी शर्मिंदा हुए थे. उनका जीवन, उनके फैसले, उनके विषय लोगों को अंदर तक पसंद आते थे. लेकिन वो आग लगाने वाला या ऊर्जा उत्पन्न करने वाला भाषण नहीं देते थे. तभी तो गांधीजी को जब गुजरात सभा के एक कार्यक्रम के शुरुआत में बुलाया गया था. तब गांधीजी ने सौम्यता से अपनी बात रखी थी. उनका भाषण सुनकर सरदार पटेल की जो प्रतिक्रिया थी, उससे जानकर आप हैरान रह जाएंगे. तब सरदार पटेल ने उनका भाषण सुनकर कहा था कि ‘भाषण काफी ढीला ढाला है.’
लेकिन उसके बाद उन्होंने उन्हें 1916 के लखनऊ अधिवेशन में देखा और उसके बाद जब भारत में गांधीजी के पहले आंदोलन ‘चम्पारण सत्याग्रह’ की कामयाबी की खबर मिली तो गांधीजी मीडिया में एकदम से छा गए. गुजरात सभा ने तो फौरन गांधी जी को अपना प्रेसीडेंट बनाने का प्रस्ताव पारित किया, जिसका पटेल ने भी समर्थन किया. बल्लभ भाई पटेल उन दिनों तक राजनीति से दूर रहते थे, जबकि उनके बड़े भाई कांग्रेस की राजनीति का अहम चेहरा बन चुके थे, जो बाद में सेंट्रल असेम्बली के अध्यक्ष भी चुने गए थे. ये वो दौर था जब पटेल गांधीजी को मन ही मन परख रहे थे.
गांधीजी ने कुछ शर्तों के साथ गुजरात सभा का प्रेसीडेंट बनना स्वीकार कर लिया, और गोधरा में गुजरात सभा की मीटिंग बुलाई गई. ये खेड़ा सत्याग्रह से ठीक पहले की बात है और जगह चुनी गई. आज की पीढ़ी के बीच दंगों के लिए मशहूर गोधरा, तब गांधीजी ने एक ऐसा फैसला वहां लिया, जो सबके लिए हैरतअंगेज था. सरदार पटेल की आंखें तो उनके लिए प्रशंसा भाव से भर गईं. अब तक ये होता था कि गुजरात सभा की मीटिंग होने से पहले एक शपथ पत्र पढ़ा जाता था जो ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी की बात करता था. लेकिन गांधीजी ने कहा, ‘ब्रिटिश जनता का कोई संगठन तो ऐसी वफादारी की शपथ नहीं लेता, फिर हमें क्यों लेनी चाहिए?’ उन्होंने वो प्रेक्टिस बंद करवा दी. हर कोई हैरान था. सरदार पटेल तो जैसे उनके मुरीद हो गए. उन्होंने उस वक्त किसी को कहा भी था, ये ही असली मर्द.
उसी सम्मेलन में जब गांधीजी ने अपनी एक शर्त रखी कि ‘मुझे देश भर में काम करना है, खाली गुजरात से बंधा नहीं रह सकता, मुझे गुजरात का काम देखने के लिए ऐसा आदमी चाहिए जो गुजरात में मुझे अपना पूरा समय दे सके. अपना घर जलाकर तीर्थयात्रा की तैयारी कर सके.’ अब तक वल्लभ भाई अंग्रेजों को खिलाफ उनकी हिम्मत देखकर अपना मनमस्तिष्क बना चुके थे. उन्हें लगने लगा था यही है वो व्यक्ति जो अंग्रेजों को चुनौती दे सकता है. पटेल फौरन खड़े हो गए, बोले- ‘मैं हूं ऐसा आदमी, जो अपना घर जलाकर तीर्थयात्रा पर जाने के लिए तैयार है. आपकी सेवा के लिए हमेशा तैयार रहूंगा, जैसा आप चाहेंगे, वैसा करूंगा.’
उन दिनों तक वल्लभ भाई पटेल की वेशभूषा अंग्रेजी हुआ करती थी. कोट-पैंट और टाई. जैसे कभी गांधीजी की हुआ करती थी. गांधीजी भी उन्हें देखकर काफी हैरान थे वो उन्हें सर से पांव तक देखने लगे. तब बिट्ठल भाई पटेल ने उठकर गांधीजी से कहा, ‘वल्लभ मेरे छोटे भाई हैं. लंदन से बैरिस्टरी की पढ़ाई करके आए हैं.’ आजकल अहमदाबाद में बैरिस्टर हैं. तब भी गांधीजी थोड़ी देर उनको लेकर सोचते रहे कि आदमी जैसा दिखता है, वैसा ही अंदर तो नहीं होगा. लेकिन वल्लभ भाई के चेहरे और उनकी भावभंगिमाओं में गांधीजी ने एक तेज देखा. एक संकल्प देखा और फिर कहा कि, ‘आइए वल्लभ भाई, गुजरात प्रांतीय राजनीतिक परिषद के सचिव के रूप में आज से आपकी नियुक्ति करता हूं.’ इस तरह से गांधीजी के करीबी लोगों में शामिल हो गए वल्लभ भाई पटेल जो बाद में सरदार पटेल कहलाए.
वो दिन था और गांधीजी की मौत का दिन. पटेल गांधीजी से तमाम बातों पर असहमत हुए, लेकिन कभी उनके खिलाफ नहीं गए. दो-दो बार तो वह कांग्रेस के अध्यक्ष पद तक की रेस से गांधीजी के आदेश से हट गए, रेस में सबसे आगे होने के बावजूद. यहां तक कि तीसरी बार तो कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव ही देश के पहले प्रधानमंत्री के लिए होना था. 1946 की बात है, अंग्रेजों ने तय कर लिया था कि देश छोड़ना है, तब वो कांग्रेस के अध्यक्ष को अंतरिम सरकार बनाने का प्रस्ताव देना चाहते थे. लेकिन 15 में से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने उस साल पटेल का नाम चुनकर भेजा. लेकिन एक ने भी पंडित नेहरू का नाम नहीं भेजा. तब भी उन्होंने गांधीजी के कहने पर पीएम के पद की रेस से खुद को अलग कर लिया, पंडित नेहरू के लिए भारत का पहला पीएम बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया और अपना नाम वापस ले लिया.
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